जगप्रभा

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रविवार, 26 जुलाई 2015

140. जिन्दगी


       1984 में मैट्रिक पास करके मैं अगले ही साल (इण्टर की पढ़ाई अधूरी छोड़) एक भारतीय सशस्त्र  सेना में शामिल हो गया था- एक मामूली सैनिक के रुप में। ज्यादा पैसा कमाने, ऊँचा ओहदा पाने की चाह कभी मुझ पर हावी नहीं हो सकी। मैं अपने काम के प्रति ईमानदार रहा, निजी जीवन में मस्त रहा, सिर उठाकर चला, अपनी मर्जी से मैंने जीवन को जीया...
       मेरा एक सहपाठी- जिसकी गिनती तेज विद्यार्थी के रुप में होती थी- रेलवे में क्लर्क बना। उसकी पोस्टिंग मालदा में हुई, जो हमारे बरहरवा से ज्यादा दूर नहीं है। फिर वह देश के फ्लैगशिप बैंक में पी.ओ. बना।
       पिताजी के एक पत्र से मुझे यह खुशखबरी मिली। उन्होंने यह भी लिखा कि मुझे भी कुछ इसी तरह कोशिश करनी चाहिए, जीवन में ऊँचा मुकाम हासिल करने के लिए। मैं उस वक्त आवडी में था। साथियों से पूछा कि यह पी.ओ. क्या बला है, जो मेरे पिताजी भी मुझे इसकी सलाह दे रहे हैं?
       साथियों ने बताया- ज्यादा दिमाग लगाने की जरुरत नहीं है, संक्षेप में यही समझो कि बैंकों में पी.ओ. वह होता है, जो सुबह आठ बजे बैंक में घुसता है और रात आठ बजे दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द करके ताला लगाकर घर लौटता है।
       उन दिनों सेना में हमारा वर्किंग आवर सुबह साढ़े सात बजे से दोपहर डेढ़ बजे तक का हुआ करता था। डेढ़ बजे दफ्तर से आकर हमलोग मेस में खाना खाते थे और खिड़कियों पर पर्दे तान कर सो जाया करते थे। शाम हम स्वतंत्र होते थे- खेलने, फिल्म देखने, बाजार घूमने या किसी भी अन्यान्य गतिविधि के लिए। हफ्ते में दो दिन शाम को पी.टी. होती थी।
        मैंने पिताजी को पत्रोत्तर देते समय यही लिखा कि सबको उसकी ऊँची सैलरी दिखायी देगी, मगर किसी को भी उसका सुबह आठ से रात आठ बजे तक का काम नहीं दिखायी देगा। ...मैं ऐसा जीवन नहीं जी सकता।
       ***
       समय गुजरता रहा। सेना में बीस साल बिताकर मैं घर लौट आया। दो-तीन साल कम्प्यूटर वगैरह लेकर डी.टी.पी. का काम किया। 2008 में उसी बड़े बैंक में बड़ी बहाली हुई और मैं उस संस्था में शामिल हो गया- बतौर मामूली क्लर्क।
(प्रसंगवश, दो बातों का जिक्र कर दूँ- एक, उस संस्था की कमान उस वक्त एक ऐसे नायक के हाथों में थी, जिनके प्रति मेरे मन में गहरा सम्मान है, उन्होंने लड़खड़ाती हुई उस संस्था को फिर से मजबूत बनाया; दो, मैं आभारी हूँ उस सशस्त्र सेना का, जो 20 वर्षों की सैन्य सेवा के बाद अवकाश लेने वाले सैनिकों को "स्नातक" की डिग्री प्रदान करती है, इसी डिग्री की बदौलत मैं नयी नौकरी में शामिल हो सका। (इग्नू से मैंने ग्रेजुएशन किया जरुर, मगर एक तो "जयदीप शेखर" के नाम से, जो मेरा "कलमी" नाम है, और दूसरे वहाँ से मुझे सर्टीफिकेट नहीं मिल पाया- ऐन मौके पर पता बदलने के कारण।)
       ***
       खैर, तब तक मेरा वह पी.ओ. मित्र ऊँचे ओहदे पर पहुँच चुका था। वह काफी मेहनती था, मगर उसे और किसी चीज का कोई खास शौक नहीं था। कभी-कभी वह बरहरवा आता था, उससे बातचीत भी होती थी।
       फिर पता चला कि काम के दवाब के चलते उसका "शुगर लेवल" खरतनाक स्तर तक पहुँच गया है!
       मैं फोन से उससे सम्पर्क नहीं कर पाया- नम्बर बदल गया था, नया नम्बर उसने दिया नहीं। उनके भाई साहब से दो बार उसका हाल-चाल लिया- पता चला, कुछ दिनों तक ठीक रहता है, फिर तबियत बिगड़ जाती है।
       बेशक, काम के दवाब के कारण ही उसकी यह हालत हुई होगी। लगता तो नहीं है कि ज्यादा पैसे कमाने और ज्यादा ऊँचा ओहदा पाने का उसे कोई शौक था। बस वह बगावत करना नहीं जानता था- नाक तक पानी आ जाने पर भी...
       ...पानी वाकई नाक तक पहुँचा और आज यह मनहूस खबर मिली कि वह नहीं रहा... बीती रात वह चल बसा है...
       ***
       किसको जिम्मेदार ठहराऊँ मैं? खुद उसे ही, जो परिवार-समाज से कटकर, स्वास्थ्य-शौक को त्यागकर सिर्फ काम करता था? या उस संस्था को, जो "per employee" ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए अपने कर्मियों की जान तक की परवाह नहीं करती?
       किसने छीना मेरे एक दोस्त को? आज की जीवन-शैली ने, जिसमें आदमी कुत्ते की तरह जीभ निकाले बस दौड़ता रहता है? आज के संस्कारों को, जिसमें आदमी वक्त और जरुरत पड़ने पर भी बगावत नहीं करता?
       कहाँ हैं वे युनियन वाले, जो पहली मई को सन्देश भेजते हैं: On the May day, let us all pledge to fight against exploitation of intellectual and physical labour!, मगर इस दिशा में करते कुछ नहीं
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       मैं तो मामूली क्लर्क हूँ, मगर मुझसे भी एकबार उम्मीद की गयी थी कि मैं देर रात तक काम करूँ। मैंने मना करके इस्तीफा सौंप दिया। कहा गया, इस्तीफा मंजूर होने में दो-तीन महीने लगते हैं। मैं तीन महीने दफ्तर गया ही नहीं था! यह और बात है कि इस्तीफा मंजूर नहीं हुआ और इसके बदले मेरा स्थानान्तरण ही मेरे गृहनगर में कर दिया गया।
       यहाँ भी मुझसे उम्मीद की गयी कि मैं देर शाम तक दफ्तर में काम करूँ। मेरा जवाब था- मैं काम के प्रति ईमानदार हूँ, काम के बाद मैं परिवार, समाज, स्वास्थ्य, शौक के लिए समय बिताना पसन्द करता हूँ। काम और परिस्थिति को देखते हुए मैं अपनी मर्जी से भले कुछ ज्यादा समय तक रुक जाऊँ, मगर नियमित रुप से देर शाम/रात तक दफ्तर में बैठना मुझसे नहीं हो पायेगा! मैंने अपनी बात लिखकर भी दे दी है...
       एक और बात मौखिक रुप से मैंने बतायी- इस संस्था ने मेरे "पुनर्वास" के लिए मुझे नौकरी पर रखा है- क्योंकि मैंने अपनी युवावस्था के बेशकीमती बीस साल देश की सेना को दिये हैं... जिस दिन संस्था को लगे कि मैं अपने हिस्से का काम नहीं कर रहा हूँ, या जिस दिन इस संस्था को यह पुनर्वास बोझ लगने लगे, उस दिन वह बेशक मुझे निकाल बाहर कर सकती है!
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       जिन्दगी को जीने के मेरे अपने कुछ उसूल हैं... किसी को पसन्द आये, तो ठीक, न आये तो ठीक... मगर मैं जीभ निकाल कर हाँफते हुए जिन्दगी बिताने के लिए तैयार नहीं हूँ... न ही मधुमेह, रक्तचाप, तनाव का मरीज बनकर दवाईयों पर जीने के लिए!
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रविवार, 19 जुलाई 2015

139. हास्य


       जो लोग जीवन में हास्य को महत्व देते हैं, उन्हें अफसोस होता होगा कि टीवी पर अब स्तरीय हास्य धारावाहिक नहीं आते। एक समय "ये जो है जिन्दगी" काफी पसन्द की जाती थी। फिर "देख भाई देख" और "मिसेज माधुरी दीक्षित" को पसन्द किया गया। सोनी टीवी जब शुरु हुआ, तो "बीविच्ड", "हू इज द बॉस", "डिफरेण्ट स्ट्रोक्स" और "सिल्वर स्पून" (इसका नाम शायद कुछ और था) जैसे उम्दा हास्य धारावाहिकों को हिन्दी में प्रस्तुत करने का सराहनीय काम किया था उसने।  
उसके बाद जिसे "स्तरीय" हास्य कहते हैं, उसकी कमी आ गयी। हाल के दिनों में "कॉमेडी सर्कस" ने काफी भरपाई की थी। कभी शेखर सुमन ने "मूवर्स एण्ड शेकर्स" में लोगों को हँसाया था, आज कपिल शर्मा इस काम में सफल हैं।
अपना तो टीवी देखना दो-चार-दस मिनट समाचार (कभी-कभी कार्टून) देखने तक सिमट गया है। धारावाहिक ज्यादातर स्तरहीन ही नजर आते हैं। हास्य के नाम पर जो भी आता है, उसमें "स्तर" नजर नहीं आता।
(अभी तो सबसे बड़ी बात यह है कि हम सन्थाल-परगना के वासी हैं, जहाँ दिन में दो-एक घण्टे की विद्युत-आपूर्ती को पर्याप्त माना जाता है- तो यहाँ टीवी देखेंगे भी कितना? अब सुनने में आ रहा है कि सन्थाल-परगना में "भी" बिजली की आपूर्ती सामान्य होने वाली है!)
       ऐसे में, बीते मई में- जब हमलोग चुँचुड़ा में थे, अपनी चचेरी बहन के घर- तब श्रीमतीजी को "&TV" पर आने वाले एक हास्य धाराविक "भाभीजी घर पर हैं" का पता चला। यह धारावाहिक आता तो रोज है, मगर जैसा कि मैंने कहा- बिजली न रहने के कारण हम देख नहीं पाते थे। बाद में पाया गया- रविवार के दिन हफ्तेभर की कड़ियों को एकसाथ दिखाया जाता है। कई रविवारों को हमने देखा... और मेरी यह शिकायत दूर हो गयी कि टीवी पर अब स्तरीय हास्य धारावाहिक नहीं बनते!
       ***
       हास्य की बात चली है, तो यह बता दूँ कि हास्य फिल्में मुझे बहुत पसन्द है। हालाँकि अपनी युवावस्था में पता नहीं क्यों, मैं गम्भीर, समानान्तर और सार्थक फिल्मों को पसन्द करने लगा था। "गाईड", "प्यासा", "दो बीघा जमीन", "दो आँखें बारह हाथ", "पथेर पाँचाली"- जैसी फिल्में मुझे बहुत पसन्द आने लगी थीं।
       अब गम्भीर फिल्में देखने का मन नहीं करता। या तो "हैरी पॉटर"-जैसी फन्तासी फिल्म हो, या "इवोल्यूशन", "जुरासिक पार्क" और "गॉडजिला"-जैसी साई-फाई, या फिर "गोल माल", "हेरा फेरी"-जैसी हास्य फिल्में- यही पसन्द है। बचपन में "पड़ोसन" मेरी पसन्दीदा हास्य फिल्म थी, आज- यानि अब तक, "हंगामा" मेरी पसन्दीदा हास्य फिल्म है।
       आम तौर पर हमलोग ज्यादातर समय गम्भीर रहते हैं, या फिर तनाव में। ऐसे में, ये हास्य धारावाहिक और हास्य फिल्में ही हैं, जो मन-मस्तिष्क-स्नायुओं को आराम पहुँचाती है। शायद हँसने से चेहरे पर रक्त का प्रवाह भी बढ़ जाता है- यह भी जरुरी है।
       वैसे, लजाने-शर्माने से भी चेहरे पर रक्त का प्रवाह बढ़ता है। पहले के बच्चे- खासकर लड़कियाँ- लजाती-शर्माती ज्यादा थीं- इस कारण उनके चेहरे को रक्त का पोषण भरपूर मिलता था और उनके चेहरे की स्वाभाविक या प्राकृतिक चमक बरकरार रहती थी। अब ऐसा नहीं है- खासकर, नगरीय इलाकों में तो बिलकुल नहीं है!
       खैर, ये मेरे अपने विचार हैं।

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138. एक स्थानीय रथयात्रा


       रथयात्रा मुख्यरुप से पुरी में ही होती है, मगर अन्यान्य शहरों-कस्बों में भी स्थानीय रथयात्रायें आयोजित की जाती हैं। पुरी मैं गया जरुर हूँ, मगर रथयात्रा के अवसर पर नहीं- जब हम वहाँ गये, रथों का निर्माण कार्य चल रहा था।
बरहरवा का एक पड़ोसी शहर है- पाकुड़। वहाँ की रथयात्रा के बारे में बचपन से सुनता आया हूँ, मगर आज तक कभी वहाँ की रथयात्रा में गया नहीं।
कल संयोग से एक रथयात्रा देखने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। यह शहर था- नलहाटी, बंगाल का एक शहर। हमलोग (दो परिवार) तारापीठ से माँ तारा की पूजा करके लौट रहे थे। बता दूँ कि तारापीठ रामपुरहाट से कोई दस किलोमीटर दूर एक शक्तिपीठ है- पौराणिक कथाओं के अनुसार शिव के ताण्डव नृत्य के समय सती के आँख का मणि (तारा) यहाँ गिरा था। शनिवार को यहाँ काफी भीड़ होती है। ऊपर से, इस शनिवार को रथयात्रा/ईद की छुट्टी थी, सो भीड़ कुछ ज्यादा ही थी। बँगला कैलेण्डर के श्रावण मास की भी शुरुआत हो चुकी है। अत्यधिक भीड़ के कारण मन्दिर के सामने बने चबूतरे से ही पण्डे के माध्यम से हमने पूजा-अर्चना की। दोपहर में रामपुरहाट से हमलोग वापस रवाना हुए।
पन्द्रह मिनट की रेलयात्रा के बाद हमलोग नलहाटी उतर गये। वहाँ एक परिवार में हम मेहमान बनकर रुके। सवा चार बजे करीब सड़क से वहाँ की रथयात्रा गुजरी। हमलोगों के लिए यह पहला अवसर था जब हम कोई रथयात्रा देख रहे थे। सैकड़ों लोग अलग-अलग दल में "हरे राम-हरे कृष्णा" गाते हुए और नाचते हुए चल रहे थे। भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा लकड़ी के एक रथ पर सवार थी। रथ को रस्सी से खींचा जा रहा था।
सैकड़ों लोगों की इस भीड़ में हर उम्र की, हर वर्ग की स्त्रियाँ और पुरुष मौजूद थे। सभी "हरे रामा-हरे कृष्णा" की धुन पर भाव-विभोर हो रहे थे। पहली बार मैंने देखा कि इन चार शब्दों- हरे रामा हरे कृष्णा- को कितनी धुनों में गाया जा सकता है और इन धुनों पर कितनी शैलियों में नृत्य किया जा सकता है! किसी दल का मुख्य वाद्य परम्परागत मृदंग था, तो किसी दल के पास "ताशा" था, किसी के पास "नाल" था, तो किसी दल के पास था- "कांगो"। सबकी धुन अलग-अलग और उन धुनों पर नृत्य करने वालों की शैलियाँ भी अलग-अलग! कुछ किशोरियों-युवतियों का सामूहिक नृत्य तो देखने लायक था!  
रथयात्रा के साथ ही साथ प्रसाद वितरण भी चल रहा था। घरों से निकलकर महिलायें पूजा कर रहीं थीं, तो पुरुष एक बार रथ की रस्सियों को हाथ लगाकर ही स्वयं को भाग्यशाली महसूस कर रहे थे। पता चला, आज शाम सभी घरों में "जलेबियाँ" जरुर खायी जायेंगी। हम जिस घर में मेहमान थे, उनकी मिठाईयों की भारी-भरकम दुकान है। प्राय: दर्जन भर किस्म की मिठाईयाँ हम पहले ही छक चुके थे। रथयात्रा के बाद जलेबी- वास्तव में "इमरती"- भी हमने खायी। पता चला, आज रात ग्यारह बजे तक दुकान में जलेबियों के लिए लाईन लगी रहेगी!
खैर, वहाँ से एक और परिचित के घर हम गये। संयोग से, हमारी (अगली) ट्रेन थोड़ी लेट थी, सो वहाँ भी कुछ समय हम बिता पाये।
लौटते समय पता चला, हमारे पहले वाले मेजबान के घर में हमारे लिए "दालपूरी" और खीर को पैक कर दिया गया है- रात के खाने के लिए। पता चला, रथयात्रा की रात दालपूरी और खीर बनाने-खाने का रिवाज भी है!  
रात सवा नौ बजते-बजते हम बरहरवा स्टेशन पर थे।

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शनिवार, 11 जुलाई 2015

137. आषाढ़


       बीते चैत-बैशाख में जब रह-रह कर वर्षा हो रही थी, तब मन में सन्देह हो रहा था कि कहीं सावन सूखा तो नहीं बीतेगा? सन्देह इसलिए पैदा हो रहा था कि कहीं मैंने महाकवि घाघ की एक पंक्ति पढ़ी कि चैत में बरसने वाली वर्षा की एक-एक बूँद सावन की हजार बूँदों को हर लेती है!
       ...मगर लाख-लाख शुक्र है इन्द्रदेव का कि वर्षा ऋतु शुरु होते ही वर्षा शुरु हो गयी और पहले आषाढ़ के बाद अब दूसरे आषाढ में भी वर्षा होती जा रही है। वह भी अच्छी-खासी वर्षा।
       यह 'दूसरा' आषाढ़ है- यानि तकनीकी रुप से इसे सावन होना चाहिए। हमारे भारतीय महीने चाँद पर आधारित होते हैं- हर पूर्णिमा के बाद नया महीना शुरु होता है। हर चौथे साल एक अतिरिक्त महीना जोड़कर इस "चन्द्र" कैलेण्डर को "सौर" कैलेण्डर के साथ समायोजित किया जाता है।
       ***
       इस साल मलमास के रुप में आषाढ़ महीना जुड़ा है। इस "अतिरिक्त आषाढ़" महीने के प्रति मेरे मन में भक्ति 2007 में पैदा हुई। हमलोग उस साल पुरी घूमने गये हुए थे। जो पण्डा हमारे गाईड थे, वे इतने विस्तार से और इतने सुन्दर ढंग से भगवान जगन्नाथ जी की कहानियाँ बता रहे थे कि वास्तव में हमलोग भाव-विभोर हो गये थे। उन्हीं की कहानियों से पता चला कि जिस साल "जोड़ा आषाढ़" आता है, उस साल भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की नयी प्रतिमायें गढ़ी जाती हैं। शायद बारह साल में एक बार ऐसा होता है और यह वही साल है। यह एक विशेष आयोजन होता है। एक बन्द कमरे में देवदार की लकड़ी से प्रतिमायें गढ़ी जाती हैं और बाहर ढोल-नगाड़े बजते रहते हैं। कुछ घण्टों की बात होती है- उस दौरान जैसी प्रतिमायें बन गयीं, तो बन गयीं- उन्हें ही स्थापित किया जाता है। पण्डे ने बताया कि जो पण्डा इन प्रतिमाओं में प्राण-प्रतिष्ठा करता है, उसकी सालभर के अन्दर मृत्यु निश्चित होती है!
       ***
       आषाढ़ पर रवीन्द्र नाथ ठाकुर की एक कहानी भी है- शायद 'आषाढ़ की एक रात'। कहानी पढ़ी तो है, पर कुछ याद नहीं- हाँ, आषाढ़ में होने वाली भारी वर्षा का वर्णन पृष्ठभूमि में है।
       बात निकलती है, तो दूर तलक जाती है। 1986 में बेलगाँव (कर्नाटक) में एक जंगली इलाके में हमारी जंगल-ट्रेनिंग चल रही थी- सात दिनों की। एक रात "कैम्प फायर" में गाने का कार्यक्रम चल रहा था। मधु (पूरा नाम याद नहीं) ने एक मलयाली गाना गाया था, जिसमें "आषाढ़ मासाना" का जिक्र आ रहा था। भले हमलोग मलयाली नहीं समझ रहे थे, मगर गाने की धुन प्यारी थी और मधु की आवाज भी एस.पी.बी. की याद दिला रही थी।
       ***
       हमारे घर के पिछवाड़े में थोड़ी-सी परती जगह है, वह जगह वर्षाकाल में घने जंगल में तब्दील हो जाती है- उसी का चित्र मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूँ कि मेरे आस-पास इतनी हरियाली है... वर्ना बहुत-से स्थान ऐसे भी होंगे, जहाँ हरी दूब का एक चप्पा भी नजर नहीं आता होगा!


       ***
       यह सही है कि वर्षा ऋतु बहुतों के लिए कष्ट लेकर आती है- खासकर गरीब-मजदूरों के लिए। मगर किसानों के लिए यह वरदान है- बरसात के पानी के भरोसे ही हमारे यहाँ धान की खेती होती है और चावल हमारे देश का मुख्य अनाज है। यह और बात है कि पंजाब के किसान चावल को "व्यवसायिक" फसल के रुप में उपजाते हैं- सिर्फ बेचने के लिए, खाने के लिए नहीं; और इसके लिए वे मौनसून का इन्तजार नहीं करते। गेहूँ की फसल काटने के बाद डीप बोरिंग की सहायता से जमीन के नीचे का पानी निकाल कर खेतों में भर देते हैं और धान की खेती शुरु कर देते हैं। मेरा मानना है कि आगे चलकर यह खेती भारी नुकसान पहुँचायेगी।
       ***
       रही बात हम-जैसे कलाकार-मन वालों की, तो उमड़ते-घुमड़ते बादल, ठण्डी हवाओं, वर्षा की बूँदों से हमारे मन का मोर नाच ही उठता है... यह जानते हुए भी कि इस वर्षा से बहुतों का जीवन दूभर हो रहा है...
       ..आखिर क्या किया जाय........? 

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