जगप्रभा

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मेरे द्वारा अनूदित/स्वरचित पुस्तकों की मेरी वेबसाइट

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

220. जय जवान, जय किसान


मेरी एक दबी हुई इच्छा थी कि 'जय जवान' के बाद 'जय किसान' की भी भूमिका निभाऊँ, मगर हो नहीं पाया था। पिताजी, दादाजी डॉक्टर होने के साथ-साथ खेती-बाड़ी पर पूरा ध्यान रखते थे। हमारी पीढ़ी ने नजरअन्दाज कर दिया। दूसरी बात, रासायनिक खाद और कीटनाशकों से मुझे सख्त नफरत है, जबकि जो लोग खेती-बाड़ी देख रहे हैं, वे इन्हें अनिवार्य मानते हैं। लाख समझाने का भी असर नहीं पड़ता। मिट्टी सख्त हो रही है, उत्पादन घट रहा है- यह उन्हें भी दिख रहा है, पर वे भी मजबूर हैं। जैविक खेती के बारे में जानकारियाँ हासिल कर मैंने उनलोगों तक पहुँचाई, पर वे उत्साहित नहीं हुए। मुझे लग रहा था कि मुझे ही कमर कसना होगा।
अभी हाल में गाजियाबाद स्थित NCOF (National Centre for Organic Farming) द्वारा तैयार "बायो-डिकम्पोजर" की जानकारी मिली। इस जानकारी के आधार पर यही लग रहा है कि जैविक खेती "आसानी से" की जा सकती है। शुरुआत सोच रहा हूँ मशरूम उगाने से किया जाय। यह काम यहाँ घर पर रहते हुए ही किया जा सकता है। सफल होने पर अपने खेत में (सात किमी दूर है) जैविक तरीके से सब्जियाँ उगाई जायेंगी। वह भी सफल रहने पर तीसरे चरण में चावल-गेहूँ पर इसका प्रयोग किया जायेगा।
अर्द्ध-सरकारी संस्थान में नौकरी दस साल और बची है, मगर मन उचट चुका है। छोड़ने का इरादा पक्का कर लिया है। यानि जीवन की तीसरी पारी खेलने का मन बना लिया है। हालाँकि बँगला से हिन्दी अनुवाद का जो मेरा शौकिया काम है, वह भी जारी रहेगा।
कभी-कभी सोचने से हैरान होना पड़ता है कि मेरे-जैसे आजाद और कलाकार तबीयत के आदमी ने 20 + 10 साल नौकरी करते हुए बिता कैसे लिया! (यह और बात है कि नौकरी हमने अपने अन्दाज में की है।)
...अब आजाद जिन्दगी!
जिन्दगी, आ रहा हूँ मैं...

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

219. श्रद्धाँजलि: राजकिशोर जेठू


मेरे पिताजी के एक अनन्य मित्र का कल स्वर्गवास हो गया। हमलोग उन्हें "राजकिशोर जेठू" कहा करते थे- यानि वे उम्र में पिताजी से कुछ बड़े ही रहे होंगे, लेकिन थे मित्र ही। बिलकुल पड़ोस में उनका घर है, लेकिन वे दुमका शहर में बस गये थे। शुरु में अध्यापक रहे, बाद में वकील बने। एक समय में पटना के अखबार 'इण्डियन नेशन' के लिए हमारे इलाके से संवाद भेजते थे। लिखने-पढ़ने के शौकीन थे। 1955-56 में हमारे बरहरवा से जो ग्रन्थाकार हस्तलिखित पत्रिका प्रकाशित हुई थी- "मिलॅनी", उसका दूसरा अंक देखा था हमने, उसमें उनकी एक कविता थी- "चिता"। कविता की शुरुआती पंक्तियाँ थी:
"अन्धेरी निशा में नदी के किनारे
न जाने यह किसकी चिता जल रही है।"
मुझे बहुत दुःख है कि हम पूरी कविता नहीं दे पा रहे हैं। तस्वीर तो हमने पत्रिका के हर पेज की खींची थी और उस समय मेरा 'नोकिया- 5310' तीन सौ रिजॉल्युशन की तस्वीरें खींचता था, मगर अब उन तस्वीरों को खोज नहीं पा रहे हैं- किसी सी.डी. में होनी चाहिए। एक ब्लॉग पर इन तस्वीरों को अपलोड करते समय तस्वीरों का रिजॉल्युशन घटा दिये थे (वह वन-जी का जमाना था), जिस कारण अब पूरी कविता को पढ़ पाना सम्भव नहीं रहा। (प्रभात चक्रवर्ती ने बताया कि जैसे "मिलॅनी" का पहला अंक लापता हो गया था, उसी तरह से दूसरा अंक भी गायब है।)
       खैर, बाद में मेरी त्रैमासिक पत्रिका "मन मयूर" के लिए उन्होंने दो कवितायें भेजी थीं। यह 2007 की बात है। वे दोनों कवितायें इस प्रकार हैं:
        
       दो कविताएं
-राजकिशोर
फिर जागा हूँ
फिर जागा हूँ
धुन्ध मन का छँट गया है,
रोशनी में देखता हूँ-
लेखनी की रोशनाई बह गयी है,
लोग सारे सोचते होंगे
कवि का भाव-
अब मुरझा गया है,
क्योंकि उसकी लेखनी, आवाज
सबकुछ बन्द है।
सच नहीं, यह झूठ है,
मैं फिर लिखूँगा
भावना की धूप फिर से
हँस पड़ी है।
तुम हँसो, मैं भी हँसूँगा,
अब हमारी लेखनी स्वछन्द है।
***
दो सहारा
आज मैं परदेश में
एक अजनबी हूँ,
ढूँढ़ता हूँ हर गली-
कूचे, शहर में-
एक भी पहचान का चेहरा मिले,
किन्तु, मेरे दोस्त अब मैं क्या कहूँ?
इस वीराने में कहीं कोई नहीं,
जो मिला, मिलकर छलावा दे गया,
जो भी मेरे पास था, सब ले गया।
इसलिए मैं रूक गया हूँ राह पर
दो सहारा लौट आऊँ उस गली में
हम जहाँ बिछुड़े हुए थे।
***
       एक कहानी भी उन्होंने भेजी थी- 'समय का फेर'। यह सच्ची घटना पर आधारित कहानी थी। हो सका, तो उसे प्रस्तुत करेंगे।
       फिलहाल मेरी ओर से यही दोनों कवितायें उन्हें श्रद्धाँजलि के रुप में अर्पित हैं...

सोमवार, 2 सितंबर 2019

218. मुहल्ले में गणेश पूजा की शुरुआत





       हमारे मुहल्ले में बहुत पहले मलेरिया विभाग के एक अधिकारी किराये पर रहते थे- हीरालाल साहा। उनके बड़े सुपुत्र को हमलोग 'ललन भैया' के नाम से जानते थे। उन्होंने ही पहली बार मुहल्ले में सरस्वती पूजा का आयोजन किया था- बेशक, मुहल्ले के बड़े बच्चों को साथ लेकर। शायद यह 1973-74 की बात है। बैनर टांगा गया था- बाल संघ या बालक संघ का। बाद में मेरे बड़े भाई और उनके मित्रों ने इस आयोजन को जारी रखा। बैनर दिया गया- 'आजाद हिन्द संघ' का। कुछ वर्षों बाद बाद हमलोगों ने मोर्चा सम्भाला, फिर बाद में अगली पीढ़ी के लड़कों ने। फिर खुले जगहों की कमी के कारण तथा मुहल्ले में एक समय किशोरों एवं नवयुवाओं की संख्या कम हो जाने के कारण यह आयोजन बन्द हो गया। बीच में दो-एक बार हुआ, मगर नियमित नहीं रहा।
       इस साल देखने में आया कि मुहल्ले में उत्साही किशोरों और नवयुवाओं की संख्या अच्छी-खासी हो गयी है। उनलोगों ने गणेश पूजा का आयोजन किया है। कोई 'बैनर' नहीं है। शायद यह आयोजन नियमित रहे और सरस्वती पूजा का भी आयोजन होते रहे। इन उत्सवों के बहाने मुहल्ले में रौनक हो जाती है, बच्चे बहुत उत्साहित हो जाते हैं। हो सकता है कि इसबार एक 'पक्का पूजा स्थल' ही बनाने पर विचार हो, जहाँ गाहे-बगाहे कोई उत्सव मनाया जाता रहे, और प्रतिदिन शाम को आरती या भजन का कार्यक्रम होते रहे।
       ये त्यौहार ही तो हैं, जो जीवन में रंग भरते हैं, उमंग लाते हैं... वर्ना एकरस और एकरंग जिन्दगी बीतेगी...
       व्यक्तिगत रुप से हम तो यही चाहेंगे कि 'पूजा स्थल' के बजाय 'वॉलीबॉल' का एक पक्का कोर्ट बने, जहाँ शाम को बच्चे एकाध घण्टा खेलें, पर वास्तव में, ऐसी जगह मुहल्ले में बची नहीं है। पुस्तकालय के बारे में तो आज के जमाने में सोचा भी नहीं जा सकता। हमलोगों ने कभी एक पुस्तकालय चलाया था। जहाँ तक खेल के मैदान की बात है- उस जमाने में जगह की कोई कमी नहीं थी- कहीं भी हमलोग खेल-कूद का मैदान बना लिया करते थे- कहीं भी पूजा आदि का आयोजन कर लिया करते थे! 

(बीच में उठना पड़ गया था, इसलिए आलेख अधूरा रह गया था।)
       हमारे बचपन में गणेश चतुर्थी के दिन गणेश की प्रतिमा सिर्फ हमारे प्राथमिक विद्यालय श्री अरविन्द पाठशाला (मेरे चाचाजी इसके प्रधानाध्यापक थे) में स्थापित होती थी- बाकी आस-पास के इलाके में कहीं भी गणेश की प्रतिमा की पूजा की परम्परा नहीं थी।
एक विचित्र परम्परा कायम थी कि इस दिन शाम के समय अगर चाँद दिख जाय, तो सात घरों के छप्पर पर कंकड़ फेंकने होते थे। बस, गणेश-चतुर्थी को इसी रुप में जाना जाता था। इसे 'चकचन्दा' या ऐसा ही कुछ कहते थे।
बच्चों की मौज थी- जानबूझ कर चाँद देख लेते थे और फिर शात छप्परों पर कंकड़ फेंकने निकल पड़ते थे। बच्चे अक्सर यह काम झुण्ड बनाकर करते थे। घरों के बड़े-बुजुर्ग़ डाँटते-फटकारते भी थे, पर इसका भी काट निकाल लिया गया था कि आज की शाम गालियाँ सुनना शुभ होता है। मुहल्ले के सिनेमा हॉल की विशाल छत टीन की थी- उसपर खूब कंकड़ बरसते थे।
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