जगप्रभा

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मेरे द्वारा अनूदित/स्वरचित पुस्तकों की मेरी वेबसाइट

बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

“विविध-भारती”




      अगर आपके पास रेडियो नहीं है, तो मेरी सलाह है कि ले लीजिये; और अगर आपका रेडियो कहीं इधर-उधर पड़ा है, तो उसे झाड़-पोंछ कर ठीक करा लीजिये। इसके बाद शॉर्टवेव पर रेडियो की सूई को किसी तरह से विविध भारती पर सेट कर लीजिये- बाकायदे मार्कर से वहाँ निशान लगा दीजिये, ताकि खिसक जाने पर दुबारा स्टेशन लगाना आसान हो। मैं मुम्बई से (शॉर्टवेव पर) सीधे प्रसारित होने वाले विविध भारती कार्यक्रम की बात कर रहा हूँ- अन्यान्य शहरों से (एफ.एम. पर) थोड़े समय के लिए रिले होने वाले विविध-भारती कार्यक्रम की नहीं।
      अब सुबह छह बजे रेडियो चालू कर दीजिये- पहले भक्ति-संगीत आयेगा, फिर कुछ रूमानी युगल गीत, उसके बाद पुराने गाने, फिर शास्त्रीय संगीत, फिर प्रेरणा देने वाले फिल्मी गीत और इसी प्रकार दस बजे तक कार्यक्रम चालू रहेंगे। घर के किशोरों-युवाओं के लिए नये जमाने के गाने सवा आठ बजे से आते हैं।
      दोपहर में शॉर्टवेव के साथ परेशानी होने लगती है। अगर आप मुम्बई से काफी दूर हैं, तो शायद विविध भारती पकड़े ही नहीं। मुझे तो शर्म आती है यह देखकर कि रेडियो पर चीनी भाषा के कार्यक्रम (ये भी शॉर्टवेव पर दूर से आते हैं) बहुत ही अच्छी आवाज में सुनाई पड़ते हैं, मगर हम भारतीय आज तक देशी तथा शक्तिशाली ट्रान्सपोण्डर (शायद यही कहते हैं) तक नहीं बना पाये हैं! जो लगे होंगे विविध भारती के स्टेशन पर, वे भी 1960-70 के होंगे!
      खैर, दोपहर के कार्यक्रम सुनने के लिए आप रिले प्रसारण की मदद ले सकते हैं। खासकर, घर में रहने वाली गृहणियों/युवतियों के लिए ये कार्यक्रम शानदार होते हैं। ये 5 या 5:30 तक चालू रहते हैं।
      शाम 7 बजे फिर शुरु कर दीजिये- अब आपकी मर्जी- अगर आप देर से सोते हैं, तो रात ग्यारह बजे तक धीमी आवाज में सुरीले गानों का आनन्द लेते रहिये। एक जमाने में रात ग्यारह बजे कार्यक्रम चलते रहने तक मैं पढ़ाई (इग्नू की) करता रहता था। अब तो खैर, 9-9:30 तक सो जाता हूँ। दोपहर के कार्यक्रम कभी-कभार छुट्टियों के दिन ही सुन पाता हूँ, मगर सुबह के कार्यक्रम शायद ही कभी छोड़ता हूँ।
      रेडियो की सबसे बड़ी खासियत है- यह आपको बाँधकर नहीं रखता- आप अपना काम करते रहिये- यह आपका मनोरंजन करते रहेगा। जैसे, अभी मैं यह टाईप कर रहा हूँ और पीछे गाना बज रहा है- अहसान तेरा होगा मुझपर...। जबकि टीवी आपको सामने बैठा देता है- आलसी, बल्कि इडियट बनाकर। बेशक टीवी भी देखिये, मगर रेडियो को तो जरूर अपनाईये- इसे आप मेरा व्यक्तिगत अनुरोध समझिये....
      स्कूली दिनों में जिन गानों का हम मजाक बनाया करते थे- वही गाने आज दिल को सुकून पहुँचाते हैं। उनदिनों हम अपनी दीदीयों का भी मजाक बनाया करते थे- क्योंकि वे रेडियो के गानों की दीवानी होती थीं- आज कुछ हद तक यह दीवानापन मैं अपने अन्दर भी महसूस करता हूँ...
      अन्त में, कृपया याद कीजिये... बुधवार की वे शामें... जब लोग रेडियो के आस-पास बैठ जाते थे बिनाका गीतमाला सुनने के लिए... अमीन सायनी की आवाज गूँजती थी- बहनों और भाईयों...
      शायद रविवार को एस कुमार का फिल्मी मुकदमा आया करता था...
      खैर, आप फिलहाल विविध-भारती सुनना शुरु तो कीजिये... जल्दी ही आप महसूस करेंगे- कमल शर्मा, युनूस खान, अमरकान्त... इत्यादि आपके पुराने दोस्त हैं...

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

पूर्णिया सिटी की काली माँ

ये हैं पूर्णिया सिटी की काली माँ 

 इस तस्वीर का उद्देश्य है-  राष्ट्रीय राजमार्ग-57 का एक दृश्य दिखाना.  दृश्य के बीच में जो कार्टून है, वह हम्हीं हैं. आज (शनिवार, 20 अक्तूबर'12) हमदोनों सुबह-सुबह ही काली माँ के दर्शन के लिए निकल पड़े थे. ऐसे तो हम "साइक्लिस्ट" आदमी हैं, मगर कभी-कभार 1999 मॉडल का 'लीजेण्ड' चला लेते हैं.जब 2008 में हम अररिया आये थे, तब इस राष्ट्रीय राजमार्ग का काम चल ही रहा था- '10 में यह पूरा हुआ. अभी तो यह राजमार्ग इस इलाके की शान है और लम्बी यात्रा करने वालों तथा गति के दीवानों के लिए वरदान है! 






मन्दिर के तीन दृश्य- पहले फोटो में अंशु है, तीसरे में हम और बीच वाले फोटो में वे भाई साहब हैं, जो सामंने से नहीं हटे. 


 
कुछ रोज पहले हमने पूर्णिया जाते समय एक सुन्दर दृश्य देखा था. काली मन्दिर के पास से जो नदी बहती है, उसके किनारे की परती जमीन पर "कास" के सफेद फूलों का विशाल जंगल फैला हुआ था. वह दिन बदली वाला था. मैं फोटोग्राफी के लिए ललच गया था, मगर मैं टेम्पो में बैठा हुआ था. 
आज मन्दिर से निकल कर मैं नदी के किनारे गया, कास के फूल के जंगल तो थे, मगर न उस तरह के बादल थे और न ही उस दिन- जैसा प्रकाश-संयोजन! आज बहुत ही हल्के कुहरे का असर था. मैंने वहाँ तस्वीर खींची ही नहीं! 
वापस लौटते समय "जलकुम्भी" के फूलों से ढके इस तालाब के दो तस्वीर खींचकर मैंने शौक पूरा कर लिया... मगर उस दृश्य की छायाकारी न कर पाने का अफसोस अब हमेशा रहेगा! 


लौटते वक्त एक ढाबे में हम रुके- अभिमन्यु के लिए नाश्ता पैक करवाने के लिए. मैं भी नाश्ता करने लगा. अंशु का तो व्रत था. बैठे-बैठे उसने यह फोटो खींच लिया. 

तुलसी का काढ़ा




मौसम बदलते समय बहुतों को सर्दी-जुकाम होता है- मुझे तो होता ही है!
चार-पाँच रोज पहले मुझे सर्दी-जुकाम हुआ- नाक से पानी बह रहा था। मैंने दफ्तर से ही अंशु को फोन किया- कि वह शाम ढलने से पहले तुलसी के कुछ पत्ते तोड़कर रख ले- रात मुझे उसका काढ़ा पीना पड़ेगा।
      रात मैंने गर्म काढ़ा पीया- तुसली का- सुबह सर्दी-जुकाम गायब था!
      अगर मैं कोई इलाज न करता, तो बेशक, 4-5 दिन मैं सर्दी-जुकाम से पीड़ित रहता; अगर मैं होम्योपैथ दवा लेता, तो 2-3 दिन मुझे कष्ट रहता; और अगर मैं ऐलोपैथ दवा लेता, तो बेशक, पहले दिन ही आराम हो जाता, मगर दो-तीन दिनों बाद पता चलता कि सारी सर्दी सीने में जकड़ गयी है और कई दिनों तक ‘कफ’ के रुप में वह बाहर आती रहती।
तुलसी का काढ़ा पीने से ऐसा कुछ नहीं हुआ। हाँ, अगले रोज भी सुबह व शाम मैंने फिर से काढ़ा पीया था- ठीक होने के बावजूद।
बहुत से लोग इस नुस्खे को आजमाते होंगे- काढ़ा भी अलग-अलग तरीके से तैयार करते होंगे। कुछ लोगों ने इसे कभी नहीं आजमाया होगा और उन्हें लगता होगा कि काढ़ा बनाना मुश्किल है।
तो इसलिए मैं अंशु से पता करके इसका नुस्खा यहाँ लिख रहा हूँ:-
सामग्री:  
तुलसी के पत्ते- 8-10
काली मिर्च (गोलमिर्च) के दाने- 4-5
दालचीनी- थोड़ी-सी
अदरख- थोड़ा-सा
गुड़- थोड़ा-सा
विधि:
एक गिलास पानी में उपर्युक्त सभी चीजों को मिलाकर इसे तब तक धीमी आँच पर पकाया जाय, जब तक कि पानी आधा गिलास न रह जाय।
बस और क्या, जैसे चाय पीते हैं, वैसे गर्मा-गर्म या गुनगुना करके इसे पी लिया जाय!