अररिया में अपनी बड़ी दीदी के अलावे एक कौशल्या दीदी भी रहती है, जो
बरहरवा में मेरे मुहल्ले की ही है तथा मेरी छोटी दीदी की सहेली है। जब उन्होंने गाय ली, तो मैं उनके यहाँ से दूध लेने लगा था। यह पिछले
जाड़े की बात है।
एक रोज उन्होंने
मुझे एक कटोरी दूध में उबले हुए शकरकन्द मथकर खाने को दिया। खाते समय मैं सोचने
लगा- कि पिछली बार मैंने दूध-शकरकन्द कब खाया था? याद ही नहीं आया। यानि बचपन के
बाद मैंने यह ‘डिश’ खाया ही नहीं था!
इसी के साथ
मुझे माँ के बनाये ‘ढाकुन दिया रुटी’ यानि ‘ढक्कन वाली रोटी’ की याद आने लगी थी।
बचपन में यह हम बच्चों का पसन्दीदा व्यंजन हुआ करता था।
वे गुलाबी
जाड़े के दिन हुआ करते थे- अगहन का महीना। चौलिया (हमारा पैतृक गाँव) से नया धान
आता था। कुछ नये चावल का आटा बनता था। आटे का गाढ़ा घोल तैयार किया जाता था। फिर
लकड़ी की आँच पर मिट्टी की कड़ाही पर यह रोटी बनती थी। मिट्टी की इस कड़ाही को माँ
‘सॅरा’ कहती थीं। यह रोटी बनने का कार्यक्रम तय होने पर ‘बुधवार हटिये’ से ‘सॅरा’
तथा उसका ढक्कन (मिट्टी का ही) खरीद कर लाया जाता था।
चावल के आटे
के घोल को कटोरी में भरकर सॅरा में डालकर ढक्कन से ढक दिया जाता था। ढक्कन में
पकड़ने के लिए एक खास बनावट होती थी। ढक्कन के चारों ओर थोड़ा पानी डाला जाता था। लकड़ी
की मद्धम आँच पर कुछ देर पकाने के बाद ढक्कन हटाकर पलटे से इस मोटी-सी छोटी रोटी
को निकालकर गुनगुने मीठे दूध में डाल दिया जाता था। बस ‘ढाकुन दिया रुटी’ तैयार हो
जाती थी और हम बच्चे इन्हें खाना शुरु कर देते थे।
पहले तो
रसोईघर में कोयले वाले चूल्हे के बगल में एक लकड़ी का भी चूल्हा हुआ करता था और रात
रोटियाँ बनाने में रोज उसका इस्तेमाल होता था। बाद में जब लकड़ी वाले चूल्हे का
प्रचलन समाप्त हुआ, तब आँगन में रसोईघर के बाहर ईंटें जोड़कर लकड़ी का चूल्हा बनाकर इस
ढक्कन वाली रोटी का कार्यक्रम बनता था।
मेरे मुहल्ले
के दोस्त, जो भोजपुरी बोलते थे, इस रोटी को ‘चितुआ’ कहते थे और वायु सेना के
ट्रेनिंग सेण्टर में जब इसका जिक्र चला, तो आरा के आस-पास के एक मित्र ने इसे
‘ढकनेसन’ बताया था।
***
उन्हीं जाड़ों के दिनों में उसी चावल के आटे
की मोटी-मोटी रोटियाँ भी कभी-कभी नाश्ते में बनती थीं। चटनी के साथ इसे धूप में
बैठकर खाने का आनन्द ही कुछ और था। चटनी न बनाकर सिर्फ नमक-तेल के साथ भी इस
गर्मागर्म रोटी को खाने में मजा आता था।
***
जहाँ तक
"पीठा" की बात है- इसके बारे में तो बहुत लोग जानते होंगे। यह भी चावल
के आटे से बनता था। इसके अन्दर कभी खोआ, कभी गुड़ तथा पीसी हुई तीसी का मिश्रण और
कभी उबले दाल भरे जाते थे। दाल वाला पीठा नमकीन होता था, जबकि खोए वाले पीठे को
दूध में उबाला जाता था।
यह अब भी माँ
जब-तब बनाती हैं। (इसके लिए 'लकड़ी की आँच' तथा हटिये से 'सॅरा' खरीदकर लाने का
झमेला नहीं है।)
***
बचपन के एक
और ‘डिश’ की याद आ रही है- ‘गुलगुले’। इसे भी खाये हुए जमाना बीत गया है।
वे बरसात के
दिन होते थे, जब पके हुए ‘ताड़’ के फल खुद ही पककर नीचे गिर जाते थे। चौलिया से
भागीदार कुछ पके हुए ताड़ के फल ले आते थे। क्या मादक खुशबू होती थी उनमें!
एक बड़ी थाली
के ऊपर एक टोकरी को धोकर उलट दिया जाता था। फल को छीलकर उल्टी टोकरी पर रगड़ा जाता
था। थाली पर गाढ़ा पीला द्रव जमा होने लगता था। शायद आटे के साथ इसे फिर गूँधा जाता
था और फिर छोटी-छोटी गोलियाँ बनाकर उन्हें तला जाता था। शायद गुड़ भी इसमें (गूँधते
वक्त) मिलाया जाता था।
ऐसा नहीं है
कि ताड़ के ये फल बरसात में पकने के बाद ही खाये जाते थे। जेठ की भीषण गर्मियों में
इन्हें ‘ताड़कुल’ के रुप में भी हम खाते थे। तब इस फल को ‘दाव’ (भारी हँसिया) की
मदद से काटा जाता था। इसके अन्दर से तीन या शायद चार ‘जेली’-जैसी चीज से बने खाद्य
पदार्थ निकलते थे- ये एक परत से ढके होते थे। (इन्हें 'खाजा' कहते थे- जैसाकि दीदी
ने याद दिलाया।) उन्हें छीलकर हम खाते थे। उसके अन्दर पानी भी होता था।
पके हुए ताड़
के फलों के बीज को पिछवाड़े में फेंक दिया जाता था- अगली बरसात में ताड़ के पौधे
उनसे उग आते थे। उन्हें उखाड़कर उनके बीज को काटा जाता था। यह कुछ बड़े बच्चों का
काम होता था और इसकी गिनती शरारत में होती थी। उन बीजों के अन्दर सफेद खाद्य
पदार्थ जमा रहता था- नारियल के तरह, मगर मुलायम। इसे भी हम खाते थे। इसे ‘कोआ’
कहते थे शायद। शायद चौलिया में बच्चे अब भी इनका मजा लेते हों, हम तो भूल ही गये
हैं... ।
कभी-कभी इन लम्बे रेशेदार बीजों को फेंकने
के बजाय मेरी दीदी उन्हें अच्छे से धो लेती थी। फिर बीज पर एक बुजुर्ग की मुखाकृति
उकेरती थी- रेशों को दाढ़ी तथा बालों के रुप में सँवार देती थी। इस प्रकार, यह एक कलाकृति बन
जाती थी और इसे दरवाजे के ऊपर टाँग दिया जाता था। लोग इसकी तारीफ करते थे।
देखा जाय, इस
बचे हुए जीवन में फिर कब और कितनी बार इन चीजों को खाने का सौभाग्य फिर प्राप्त
होता है......
***
एक चीज है,
जो अब भी खाने को मिल रहा है और मैं खाता भी हूँ। जाड़ा शुरु होते ही
चौराहों-तिराहों पर कुछ लोग सुबह-सुबह "भक्का" बनाने के काम में लग जाते
थे। इसे "धुक्की" भी कहते हैं। यहाँ अररिया में आम तौर पर महिलायें इसे
बनाती हैं। उनका आग सेंकना भी हो जाता है और थोड़ी कमाई भी। सुबह टलह कर लौटते वक्त
मैं अक्सर दो रूपये में एक "भक्का" खाते हुए लौटता हूँ।
मिट्टी या अल्यूमुनियम के एक
घड़े में पानी भरकर उसके मुँह को मिट्टी के ही एक गहरे प्लेट से सील कर दिया जाता
है (कच्ची मिट्टी या आटे से)। प्लेट में एक छेद होती है, जिससे पानी की भाप निकलती
रहती है। घड़ा आग पर रखा रहता है। चावल के मोटे पीसे आटे को एक कटोरी में भरकर एक
सूती कपड़े के टुकड़े की मदद से उस छेद पर पलट कर रख दिया जाता है- कटोरी हटा ली
जाती है तथा आटे को उसी कपड़े से ढक दिया जाता है। आटे में हल्का नमक तथा गुड़ के
कुछ टुकड़े मिले होते हैं। मिनट भर भर में ही चावल का वह आटा भाप में पककर खाने
लायक हो जाता है। इस भाप निकलते गर्मागर्म "भक्का" को बच्चे बड़े चाव से
खाते हैं- मगर मेरा बेटा इसे नहीं खाता। इसलिए मैं अक्सर खुद ही इसे खाते हुए घर
लौटता हूँ।
याद है कि
बचपन में मेरी दोनों दीदीयों ने इसे चुनौती के रुप में लिया था- कि इसे घर में
क्यों नहीं बनाया जा सकता! ...और कहने की आवश्यकता नहीं, वे घर में ही
"भक्का" या "धुक्की" बनाने में सफल रहीं थीं।
सोचता हूँ,
यहाँ किसी दिन बड़ी दीदी को इस बात की याद दिलाऊँ...
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बूढ़ी काकी "भक्का" बनाते हुए
***
पुनश्च:
"भक्का" वाली बात जोड़ते हुए सम्पादन: 15 जनवरी' 2012
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