रविवार, 5 जनवरी 2014

99. "तन्वी"





       छायाचित्र में मेरी यह साइकिल पुरानी ही है- करीब 17 साल पुरानी। 'हीरो-एस.एल.आर.' है। वायुसेना स्थल, हलवारा में रहते हुए इसे खरीदा था। साइकिल खरीदी लुधियाना में और नयी साइकिल को चलाकर ही 30 या 40 किमी दूर हलवारा आ गया था। (दरअसल 'पोस्टिंग रन' का सिविलियन एम.टी.डी. साइकिल को गाड़ी में रखने के अनुरोध पर भाव खा रहा था, जो मुझे पसन्द नहीं आया था।)
       पिछले साल इसे रंग करवाया था- अररिया में। अभी पिछले हफ्ते इसका कायाकल्प करवाया। ('कायाकल्प' बोले तो 'ओवरहॉलिंग'। साइकिल-मैकेनिकों की बोली में- 'वॉयलिंग'।) अब इसकी चाल मस्त हो गयी है। पिछले करीब दो महीनों से रोज 20 किमी साइकिल चला रहा हूँ- 10 किमी सुबह, 10 शाम।*
इस साइकिल को कोई नाम मैंने नहीं दिया है; अगर दिया होता, तो वह बेशक, "तन्वी-2" होता। ...
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       ...क्योंकि "तन्वी" मेरी पहली साइकिल का नाम था। यह 1987 की बात है- तब मैं वायुसेना स्थल, आवडी में था- पहली पोस्टिंग पर। वहीं सी.एस.डी. कैण्टीन से इस 'बी.एस.ए.-एस.एल.आर.' साइकिल को खरीदा था। बेचारी परित्यक्ता की तरह पड़ी थी- कोई इसे खरीदने वाला नहीं था- क्योंकि इसका रंग सिल्वर था। एक तो मुझे यह साइकिल पसन्द आयी, दूसरी बात, कैण्टीन में उस वक्त कोई और साइकिल थी भी नहीं। सो, मैंने इसे लिया और इसका नाम रखा- "तन्वी"। पूरे परिसर में यह अकेली सिल्वर रंग की साइकिल थी और ज्यादातर लोग जान गये थे कि इसका नाम "तन्वी" है- जो इसके चैन-कवर पर मैंने लिख रखा था!
मैं कभी-कभी शाम को साइकिल चलाकर 7 किमी दूर आवडी जाया करता था और वहाँ 'उडुपी श्रीनिवासन' में एक चाय पीकर लौट आता था। स्टील की कटोरी में स्टील का गिलास होता था और गिलास में चाय। इसे कटोरी में डालकर पहले थोड़ा मिलाना होता था- चीनी को घोलने के लिए। कईबार दोसा खाया करता था वहाँ- बाल्टियों में साँबर और चटनी रखी होती थी- जितना भी माँग लो!
कोई पूछता कि चाय पीने के लिए 7 किलोमीटर-?, तो मेरा जवाब होता- मकसद या मंजिल 'चाय' नहीं, बल्कि 7-7 किमी का 'सफर' है।   
       "तन्वी" मेरे साथ-साथ पूना, ग्वालियर, इलाहाबाद, तेजपुर और हलवारा में भी रही। पूना और इलाहाबाद में मैं तैराकी के शिविरों में जाता था और साइकिल भी बुक करवा लेता था। ग्वालियर, तेजपुर और हलवारा में मैं पोस्टेड रहा।
ग्वालियर में मैं शाम को साइकिल चलाकर मोरार जाया करता था- चाय पीने। ठीक से याद नहीं, पर यह भी 7 किमी ही दूर है शायद वायुसेना स्थल (महाराजपुर) से। कुछ महीनों तक मैं 14 किमी दूर ठाटीपुर भी गया- वायलिन सीखने के लिए।
ग्वालियर में ही मैंने तन्वी को दुबारा रँगवा लिया था- लाल रंग में। (बताया गया कि साइकिल में दूसरी बार दो ही रंग हो सकते हैं- काला या लाल।) इसी साइकिल से मैंने 8 दिनों की साइकिल यात्रा भी की थी- ग्वालियर से खजुराहो तक की- इसकी पूरी डायरी मैंने लिख रखी है: http://ek-cycle-yatra.webnode.com/
तेजपुर (आसाम) से हलवारा (पंजाब) मेरा घरेलू सामान देर से पहुँचा था, सो गृहस्थी के दूसरे सामान के साथ नयी साइकिल भी लेनी पड़ी थी। इस प्रकार, हलवारा में मेरे पास दो साइकिल हो गयी। अक्सर मैं और अंशु एक-एक साइकिल लेकर निकल पड़ते थे।
       बाद में मैं "तन्वी" को घर ले आया था। यहाँ ठीक से उसकी कद्र नहीं हो पायी और फिलहाल एक कबाड़ के रुप में वह स्टोर के टाँड पर उल्टी पड़ी हुई है।
       लगे हाथ, "तन्वी" की भी एक तस्वीर साझा कर ही दूँ। इस तस्वीर में मुझे खाकी वर्दी में देखकर कोई चौंक सकता है, सो, बता दूँ कि पहले भारतीय वायु सेना की वर्दी खाकी ही हुआ करती थी।

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बात निकलती है, तो...
*      सही है कि साइकिल चलाना मेरा शौक है; 'फ्री हैण्ड एक्सरसाइज' करना भी मेरा शौक है, जो जाड़ों में बन्द हो जाता है। ऐसे में, जाड़े में अगर मुझे 20 किमी रोज साइकिल चलाना पड़े, तो मेरे लिए यह एक्सरसाइज ही हुआ। मगर यहाँ मैं सिर्फ शौक या वर्जिश के लिए साइकिल नहीं चला रहा हूँ।
संक्षेप में बता दूँ कि वायुसेना से रिटायर होने के बाद मैं एक अर्द्धसरकारी संस्था में हूँ। 5 साल मैंने बिहार के अररिया शहर में बिताया। अब 'घर की पोस्टिंग' के नाम पर मेरा तबादला बरहरवा से 80 किमी दूर एक स्थान में हुआ है। सुबह 7 बजे रवाना होता हूँ और रात 8 बजे के बाद घर लौटता हूँ- यानि सोने के लिए घर आता हूँ! 70 किमी की दूरी ट्रेन से तय करता हूँ। जाहिर है, सुबह 7 बजे से पहले मैं तैयार हो जाता हूँ ट्रेन का यह सफर 'राजमहल की पहाड़ियों' के किनारे-किनारे से गुजरता है। चूँकि बचपन से मुझे शौक था ट्रेन की खिड़की से इन पहाड़ियों को निहारने का, शायद इसीलिए मेरी संस्था ने मुझे ऐसी जगह पोस्टिंग दी- कि लो बेटे, जी भर के निहारो, अपनी पहाड़ियों को! खैर, बाकी 10 किमी सड़क का सफर है, जिसमें से 4 किमी सड़क के किनारे पत्थर के खदानों तथा 'क्रशरों' की भरमार है। रोज सैकड़ों 'ओवरलोडेड' ट्रक पत्थर लेकर यहाँ से रवाना होते हैं। सैकड़ों ट्रैक्टर भी इधर-उधर भागते रहते हैं। व्यवसाय का ज्यादातर हिस्सा अवैध है- 'हफ्ते' के बल पर चलता है- इसलिए 24 में 12 घण्टे इस जगह 'जाम' लगा ही रहता है। जाम की समस्या बीते नवम्बर से विकराल हुई, जब एक अतिरिक्त रास्ते को उधर के गाँववालों ने बन्द कर दिया। एक महिला की मृत्यु ट्रक के टक्कर से हो गयी थी। जाम में एक दिन फँसते ही अगले दिन मैं अपनी साइकिल को यहाँ (ट्रेन में बुक करके) ले आया था। कई बार साइकिल के कारण ही मैं जाम से सकुशल निकल पाया हूँ। दुःख तो तब होता है, जब देखता हूँ कि स्थानीय लोग इस जाम से प्रसन्न होते हैं कि हाँ, धन्धा अच्छा चल रहा है। जाम न लगे, तो लोग दुःखी हो जाते हैं कि मन्दी चल रही है- जैसा कि बरसात में हुआ था!
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