धान-रोपनी
का काम पूरे जोरों पर है।
हमारे आस-पास
के खेतों पर कालोनियाँ बस चुकी हैं।
अल-सुबह हल के
घिसटने की आवाज अब नहीं सुनायी पड़ती- पहले जब किसान खेतों की ओर जाते थे, तब जोड़ा बैलों
की गर्दनों पर टँगा हल आवाज करते हुए घिसटता जाता था।
इधर-उधर जाने
पर दूर से ही धान-रोपनी देखने का मौका मिला।
मगर लगता है- कहीं
कुछ खो गया है...
बाँस के
छिलकों से बनी वह बड़ी-सी शानदार टोपी कहीं नहीं दीखी, जिसे किसान हल चलाते वक्त सर
पर पहनते थे और जो उन्हें धूप-वर्षा से बचाती थी।
बड़े-बड़े
पत्तों को कायदे से गूँथकर बनाया गया वह प्राकृतिक "रेनकोट" तो खैर,
बहुत पहले से विलुप्त हो गया है- इसका स्थान प्लास्टिक के रंग-बिरंगे रेनकोट ने ले
लिया था। मगर कहाँ- वह रंग-बिरंगा रेनकोट भी तो गायब है। पहले धानरोपनी के इस समय
पर प्रायः हर दर्जी इन रेनकोटों को सिलने में व्यस्त हो जाता था। अब शायद वर्षा ही
ढंग से नहीं होती है।
धान-रोपनी के
लोकगीतों की स्वरलहरियाँ भी कहीं से नहीं उभरीं। ठीक से याद नहीं, पर शायद सन्थाल
महिलायें ही धान रोपते वक्त गीत गुनगुनाती थीं।
अब शायद यह स्वरलहरी कभी किसी
खेत से नहीं उठेगी...
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