जगप्रभा

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रविवार, 17 दिसंबर 2023

275. इतु लक्ष्मी पूजा

एक लम्बे अन्तराल के बाद आज अपने गाँव चौलिया जाना हुआ। जाकर देखा कि चाचीजी घर में किसी पूजा की तैयारी कर रही है। पूछने पर पता चला आज संक्रान्ति है।

 





बाद में जानकारी हासिल की कि सूरज आज वृश्चिक से निकलकर धनु राशि में प्रवेश करेगा। सूर्य के दक्षिणायण की यह अन्तिम संक्रान्ति है, अगली संक्रान्ति (मकर संक्रान्ति) से सूर्य का उत्तरायण शुरू हो जायेगा। सौर कैलेंडर (बंगाब्द और शकाब्द) के हिसाब से आज अग्रहायण या मार्गशीर्ष मास समाप्त हो रहा है और कल से पौष मास शुरू होगा।

गांव में आज जो पूजा होती है, जिसे “इतु लक्ष्मी पूजा” कहते हैं।

इस पूजा में जो कथा सुनाई जाती है, उसमें यह संदेश होता है कि बेटियां घर की लक्ष्मी होती हैं। पूजा में बेटियों के नाम से कलश बैठाए जाते हैं।

मन तो है कि उस कथा (दो बहनों की कहानी) को यहाँ लिखा जाय, लेकिन संक्षेप में लिखने के बावजूद वह कहानी लम्बी हो जायेगी।

विडियो में आप देख सकते हैं कि जो नए धान कटकर खेत से आए हैं, उसकी एक "अंटिया" को बाकायदे देवता या देवी के रूप में स्थापित किया गया है।

यानि यह एक पूजा नई उपज को तथा बेटियों को - दोनों को सम्मान देने के लिए है।

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बुधवार, 29 नवंबर 2023

274. यू.एस. दास

 


करीब दो महीने पहले मेरा चचेरा भाई उमा शंकर दास (Uma Das) हमारे घर आया हुआ था।

मेरे सिर पर बाल कुछ ज्यादा घने हैं। आम तौर पर 55 की उम्र के बाद ऐसे घने बाल सबके सिर पर नहीं रहते। तो भाभीजी ने मजाक में कहा - मोनू दा के सिर पर तो बहुत बाल हैं, थोड़ा सा आप ले क्यों नहीं लेते?

आज हम अपने सिर के सारे बाल उसी भाई को अर्पित कर आए। दस दिनों पहले उसका दुखद देहान्त हो गया था। फेफड़े में किसी तरह का बैक्ट्रियल इन्फेक्शन हो गया था, जिस पर किसी एंटीबायोटिक ने काम नहीं किया।

मेरा वह भाई मेरा दोस्त था, मेरा हमउम्र। उसका पुकार नाम बबलू था। असल में हम तीन कजन की तिकड़ी थी। तीसरा मेरा फुफेरा भाई है संजय राउत, पुकार नाम बापी, अभी हजारीबाग में है।

बबलू (डॉ. यू.एस. दास) पेशे से तो फिजियोथेरेपिस्ट था, लेकिन वह ऐलोपैथ, होम्योपैथ, आयुर्वेद, एक्युप्रेशर/एक्युपंक्चर, प्राकृतिक चिकित्सा, योग-चिकित्सा का भी ज्ञान रखता था। ऊँचा कद, गोरा रंग, मृदुभाषी एवं मितभाषी और सदा मुस्कुराने वाला। उसका साथ हमें बहुत पसन्द था। उसके मुकाबले बापी बहुत ही अलमस्त स्वभाव का है— बात-बात पर ठहाके लगाने वाला।

बबलू मेरा चचेरा भाई इस रिश्ते से था कि उसके दादाजी और मेरे दादाजी सगे भाई थे। हमारे पैतृक गाँव चौलिया से निकलकर जहाँ मेरे दादाजी बरहरवा में बसे, वहीं उसके दादाजी बरहरवा से 15 किमी दूर कोटालपोखर में बसे थे।चौलिया गाँव की स्थिति इन दोनों कस्बों के ठीक बीच में है।

ऊपर की तस्वीर में दिवंगत बबलू— सम्भवतः मई’2023 की तस्वीर है, उसी की फेसबुक वाल से ले रहे हैं।

नीचे की तस्वीर में बबलू का बेटा है, नाम उत्कर्ष, आज की तस्वीर।


 

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मंगलवार, 15 नवंबर 2022

273. “हरे पत्ते के दोने” में नाश्ता

 



                हमारे इलाके में मुरमुरे का इस्तेमाल नाश्ते में होता है- इसे मूढ़ी कहते हैं। हो सकता है, “मसाला मूढ़ी” का नाम आपने सुना हो। बिहार, झारखंड और बंगाल में ट्रेनों में मसाला मूढ़ी खूब बिकती है। घरों में भी अक्सर मूढ़ी रखी जाती है और हल्की-फुल्की भूख मिटाने के काम आती है। शाम की चाय से पहले मूढ़ी में सरसों तेल, कटे प्यांज, चनाचूर इत्यादि मिलाकर मसाला मूढ़ी-जैसा तुरत-फुरत खाद्य (फास्ट फूड) तैयार कर लिया जाता है।

                अब मूढ़ी “मिल” में बनने लगी है, जिसे पुराने लोग पसन्द नहीं करते। पुराने लोग अब भी रेत पर हाथों से बनी मूढ़ी ही पसन्द करते हैं। इसकी खासियत है कि इसमें आलू-दम या चना-घूघनी डालने के बाद भी जल्दी से इसका कुरकुरापन खत्म नहीं होता।

                खैर।

                पिछले दिनों हम लिट्टीपाड़ा कस्बे से गुजर रहे थे। कुन्दन मोटर साइकिल चला रहा था, हम पीछे बैठे थे। दोपहर का समय था। हमने कहा- होटल में खाना खाना है? उसने मुस्कुराते हुए कहा- खाना तो घर में ही खायेंगे, यहाँ मूढ़ी-घुघनी, चॉप-प्यांजी का नाश्ता करेंगे।

                सड़क के किनारे मूढ़ी-घुघनी की कई दुकानें थीं। कुन्दन सबके सामने से गुजरता रहा, दुकानों की ओर देखता रहा, लेकिन घुसा किसी में नहीं। हमने कहा- इतनी सारी तो दुकानें हैं, चलते क्यों नहीं?

                वह फिर मुस्कुराते हुए बोला- सबके पास “सूखे साल-पत्ते” का दोना है। हमें “हरे पत्ते” के दोने में नाश्ता करना है।

                बता दें कि मूढ़ी-घुघनी-आलू दम वगैरह का जो नाश्ता होता है, उसे हमारे इलाके में सूखे हुए “साल” के पत्तों के दोने में परोसा जाता है, लेकिन जो आदिवासी-बहुल इलाका है, वहाँ कहीं-कहीं “हरे एवं ताजे” पत्तों के दोने में यह नाश्ता परोसा जाता है। कुन्दन वही खोज रहा था।

                अन्त में एक दुकान में वैसा दोना नजर आया। हम वहीं जा बैठे। हरे पत्तों के दोनों में मूढ़ी डाली गयी, उसमें चने की घुघनी और आलू-दम डाला गया। ऊपर से बैंगनी, प्यांजी और आलू-काट डाला गया। आलू-चॉप गर्मा-गर्म बन रहा था, वह बाद में मिला। कमी हरी धनिया की चटनी की थी- शायद वह खत्म हो गयी हो (नाश्ते का समय दरअसल बीत चुका था)। हरी मिर्च देकर कमी पूरी की गयी।

                डटकर नाश्ता करने के बाद मुस्कुराते हुए कुन्दन ने फिर कहा- आज कोई बारह साल के बाद “हरे पत्ते” के दोने में मूढ़ी खाये। याद कीजिए- पहले चूड़ा-दही भी इन्हीं दोनों में मिलता था।

                हमें याद आया- उस जमाने में- जब सड़्कें हाईवे-जैसी नहीं बनी थीं, तब लिट्टीपाड़ा से गुजरने वाली बसें इन्हीं दुकानों के सामने काफी देर तक रूकती थीं और यात्री बड़े चाव यहाँ हरे पत्तों के दोनों में चूड़ा-दही या घुघनी-मूढ़ी का नाश्ता किया करते थे।

                अब माहौल वैसा नहीं है। सड़कें चौड़ी हो गयी हैं, बहुत-सी दुकाने उजड़ गयी हैं। जिनकी उम्र तीस-चालीस या इससे ज्यादा है, उनसे बस एक बार लिट्टीपाड़ा के दही-चूड़ा का जिक्र करने की देर है, वे बहुत-सी यादों को ताजा करने लगेंगे।

                हमारी अपनी टिप्पणी यही होगी कि हमने उन दुकानों को तीस-चलीस वर्षों में भी बदलते नहीं देखा था। बचपन में जैसा देखा था, तीस वर्षों के बाद भी दुकानें वैसी ही थीं- वही बेंच, वही टेबल, वही रवैया, वही रंग-ढंग, वही नाश्ता, वही स्वाद! सड़कें जब चौड़ी हुईं, दुकानें उजड़ीं, तभी सब कुछ बदला। अब वह मजा नहीं रहा...