जगप्रभा

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रविवार, 29 नवंबर 2015

150. भारतीय इतिहास: कहानियों के माध्यम से


       हम भारतीय- आम तौर पर- अपने इतिहास के बारे में वही जानते हैं, जो यूरोपीय इतिहासकारों ने तथा उनके द्वारा खींची लकीरों पर चलने वाले भारतीय इतिहासकारों ने पाठ्य-पुस्तकों में लिख रखा है। इस इतिहास को पढ़कर हम भारतीयों के मन में हीन-भावना ही जन्मती है, क्योंकि इसमें सिर्फ हमारी पराजयों का जिक्र है। वैसे, इतिहासकारों का एक दूसरा वर्ग भी है, जो टेली-विजन, हवाई-जहाज से लेकर परमाणु बम तक हर आधुनिक चीज का संकेत वेद-पुराणों में खोज निकालता है। मैं व्यक्तिगत रुप से इन दोनों ही प्रकार के इतिहासकारों को अतिवादी मानता हूँ।
       बहुत साल पहले मैंने एक दक्षिण भारतीय इतिहासकार (नाम याद नहीं- शायद के.एम. पणिक्कर या नीलकान्त शास्त्री नाम था) द्वारा लिखी एक पुस्तक पढ़ी थी (तब मैं मद्रास में था और अन्नामलाई विश्वविद्यालय से पढ़ाई कर रहा था), जो मुझे अच्छी लगी थी। फिर भी, मुझे ऐसी ऐतिहासिक कथाओं की जरुरत थी, जो हममें गर्व बोध जगाये।
       मेरी खोज पूरी हुई, जब मैंने कर्नल अजीत दत्त का एक कथा संग्रह पढ़ा। इसे पढ़ने के बाद मैंने अपनी बड़ी डायरी में तीन पन्नों का एक आलेख भी लिखा, मगर अफसोस कि चार-पाँच साल बीत गये- कभी इस आलेख को टाईप नहीं कर सका।
पिछले दिनों टीपू सुल्तान को हमारे देश/समाज का "नायक" मानने/न मानने को लेकर जब बहस हुई, तब मेरा ध्यान उस आलेख की तरफ गया। अफसोस, कि उस वक्त भी मैं टाईप नहीं कर सका।
आज इस वक्त मैं अपने उसी आलेख के कुछ अंश को टाईप कर रहा हूँ- पूरे आलेख को टाईप करना अब भी नहीं हो पा रहा है।
पता नहीं, हमारे इन नायकों को इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों से बाहर क्यों रखा गया है... सन्देह होता है कि कहीं यह षड्यंत्र तो नहीं?
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चित्र यहाँ से साभार
यह सही है कि बचपन में 'अमर चित्र कथा' में पढ़ी बाजीराव पेशवा (द्वितीय) की कुछ बातें मुझे याद थीं, मगर इस संग्रह में उनकी कहानी "एक बाजी बाकी सब पाजी" पढ़कर मुझे पता चला कि बाजीराव पेशवा ने दो-दो बार लालकिले पर कब्जा किया था- 1719 और 1722 (सम्भवतः) में। वे चाहते, तो मुगल सल्तनत का खात्मा कर सकते थे!
दूसरी बार मुगल बादशाह फर्रुखसियार ने बाजीराव के सम्मान में दरबार आयोजित किया था पूछा भी था कि वे खुद (बाजीराव) दिल्ली के सुल्तान क्यों नहीं बन जाते? बाजीराव ने बताया कि उन्होंने साहूजी (शिवाजी के पोते) को वचन दे रखा है कि मुगल बादशाहों को नुक्सान नहीं पहुँचाना है। अब सवाल है कि साहूजी ने बाजीराव से ऐसा वचन क्यों ले रखा था?
तो जवाब है कि साहूजी का जन्म औरंगजेब की छावनी में हुआ था और बादशाह औरंगजेब साहूजी को पसन्द किया करते थे। 'साहू' शब्द का अर्थ होता है- साफ दिलवाला और यह नाम औरंगजेब का ही दिया हुआ था।
ऐसे शूरवीर की कहानी- जहाँ तक मुझे याद है- मैंने इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में नहीं पढ़ी। हाँ, जैसा कि मैंने बताया- "अमर चित्र कथा" में मैंने पेशवा बाजीराव (द्वितीय) की कहानी पढ़ी थी और उसके कुछ चित्र और संवाद मेरे जेहन में छपे हुए हैं- खासकर, बाजीराव के दो बहादूर अंगरक्षक शिन्दे और होलकर वाला प्रसंग। (बाद में होलकर को इन्दौर और शिन्दे को ग्वालियर स्टेट ईनाम में मिले थे। शिन्दे परिवार ही 'सिन्धिया' बना शायद।)
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चित्र यहाँ से साभार
एक कहानी है- "राजधर्म"। यह बप्पा रावल की कहानी है।
मैट्रिक तक हम सबने इतिहास पढ़ा है। मैं सबसे पूछता हूँ- बप्पा रावल के बारे में आप कितना जानते हैं? बहुतों को ऐसा लगेगा कि यह नाम वे पहली बार सुन रहे हैं।
8वीं सदी से ही गजनी के लुटेरे शासकों ने भारत में लूट-पाट मचाना शुरु कर दिया था। भारत में सोने-चाँदी का भण्डार था, मगर देश की रक्षा की जिम्मेवारी सिर्फ 20 प्रतिशत क्षत्रियों पर थी- कोई और हथियार उठाता ही नहीं था! गजनी के लुटेरों के लिए यह फायदे का सौदा था- बस क्षत्रियों को मार डालो- कोई दूसरा आगे नहीं आयेगा लड़ने के लिए... ।
बप्पा रावल के राजा बनने की कहानी किसी परिकथा या फिल्म के नायक के समान रोमांचक है। राजा बनने के बाद उसने दर्जनों उपजातियों में बँटे सभी क्षत्रियों को "राजपुत्र" (राजस्थान के पुत्र, बाद में ये 'राजपूत' कहलाये) के रुप में संगठित किया और गजनी पर आक्रमण किया। वहाँ का शासक सलीम भाग खड़ा हुआ। पूरे गजनी को तुर्कों एवं अरबों से खाली करा लिया गया था। कन्धार, ईरान, ईस्पहान, तूदान, खोरासन तक बप्पा रावल का एकलिंगी झण्डा लहराने लगा था।
आगे चलकर जब तक देशद्रोही राजा जयचन्द ने मोहम्मद गोरी को भारत आने का निमंत्रण नहीं दिया, तब तक- यानि करीब 200 वर्षों तक- गजनी के शासक बप्पा रावल की वीरता के ख्याल मात्र से भारत की ओर देखना भूल गये थे!
जयचन्द ने गोरी को निमंत्रण दिया था- पृथ्वीराज को हराने के लिए। गद्दार!
अब सोचिये कि क्या सोचकर बप्पा रावल की कथा को भारतीय इतिहास के पन्नों से गायब किया गया है?
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एक और शूरवीर की कहानी है- महामात्य आनन्द वाशेक की। ये गजब के सेनानायक थे! आनन्द वाशेक ने सुल्तानों की बड़ी से बड़ी फौज को अपनी बुद्धीमता एवं रण-कौशल से पानी पिला दिया था। यह तेरहवीं सदी की बात है। बाद के दिनों में जब तक आनन्द वाशेक जिन्दा रहे, दिल्ली के सुल्तानों ने चन्देल राजाओं को छेड़ने की हिम्मत नहीं की।
कभी किसी ने इतिहास की पाठ्य-पुस्तक में महामात्य आनन्द वाशेक नाम पढ़ा हो तो बताये।
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इस प्रकार, इस कथा संग्रह में 19 कहानियाँ हैं
"छह हाथों वाली मूर्ति" में विजयनगर साम्राज्य के पतन की दर्दनाक एवं मार्मिक कहानी है और "कालाचाँद"- कहानी है एक उच्च कुल के ब्राह्मण युवक के मुसलमान बनने की, जो आगे चलक पुरी के जगन्नाथ मन्दिर का ध्वंस करता है। ये कहानियाँ काफी कुछ सोचने को मजबूर करती हैं।
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मेरा डायरी वाला वह आलेख और भी लम्बा है, मगर मैं यहीं समाप्त करता हूँ। कर्नल अजीत दत्त की उस पुस्तक का नाम "कथा-कशिका' है। वे फारबिसगंज के रहने वाले हैं। मैं तब पास के शहर अररिया में रहता था, जब मुझे उनकी यह पुस्तक मिली थी।
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सुना है कि बाजीराव पर फिल्म बन रही है। शायद बप्पा रावल और आनन्द वाशेक पर भी कभी फिल्में बनें। शायद इस देश में कोई ऐसा नायक पैदा हो, जो "हम्पी के खण्डहरों" के स्थान पर फिर से "विजयनगर" नामक एक सुन्दर नगर बसाये। शायद कभी हमारी इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में ऐसी बातें शामिल की जायें, जिनमें हमारी जयगाथाओं का वर्णन हो। शायद चौथी कक्षा का कोई बच्चा कभी मराठी सेनानायक आंग्रेजी के बारे में पढ़े, जिसकी जलसेना ने फ्राँसीसी जलसेना को पराजित किया था...
शास्त्रीजी ऐसा बदलाव ला सकते थे, मगर एक युद्ध और कुछ गद्दारों ने उन्हें कुछ करने का समय ही नहीं दिया... अफसोस!
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पुनश्च: प्राचीन इतिहास पर भी मेरा एक आलेख है, जिसे आप मेरे दूसरे ब्लॉग पर यहाँ पढ़ सकते हैं।


मंगलवार, 17 नवंबर 2015

149. आल्पना- 3


       इस ब्लॉग में आल्पना पर पहले से मेरे दो आलेख हैं (क्रमांक- 89 और 91)। उनमें जिक्र है कि मेरी मँझली और छोटी फुआ (बुआ) इस कला में सिद्धहस्त हैं; दूसरी पीढ़ी में मेरी दोनों दीदी इस कला में पारंगत है और तीसरी पीढ़ी में छोटी दीदी की बेटी को तो इस कला में महारत हासिल है। इस बार यह भी बता दूँ कि मेरी भतीजी अभी यह कला सीख रही है- वह भी अच्छा आल्पना बनाती है।
       खैर।

मेरी मँझली फुआ घर आयी हुई है। घर में "छठ" उत्सव की तैयारियाँ चल रही हैं। फुआ ने इस अवसर पर जो आल्पना बनायी हैं, उनके चित्र यहाँ प्रस्तुत है- 




यह डिजाइन मुझे खास तौर पर पसन्द है- बचपन से ही.
जहाँ कहीं भी बेलबूटे की जरुरत पड़ती है- मैं यही डिजाइन बनाने की कोशिश करता हूँ.

सोमवार, 16 नवंबर 2015

148. कबाड़ में "टप्पर"


       25 नवम्बर 2010 का मेरा एक आलेख है- "टप्परगाड़ी" (आलेख क्रमांक- 5), जिसमें साल 1998 में हमारे "टप्परगाड़ी" में बैठने का जिक्र है। उस आलेख में मैंने ऐसा लिखा है कि एक बाढ़ में मिट्टी की दीवार के नीचे दबकर वह "टप्पर" नष्ट हो गया।
       यह जानकारी गलत है। चौलिया गाँव में तीन चार दिनों के लिए आयी उस बाढ़ में भी वह "टप्पर" बच गया था। बाद के वर्षों में कई बार मैंने उस "टप्पर" को अपने उस दादाजी (पिताजी के मामाजी) के आँगन में इधर से उधर पड़े देखा। मगर तस्वीर खींचने या अपनी भूल सुधारने की सुध नहीं आयी।
       बीते 14 नवम्बर को जब हमारा चौलिया गाँव जाना हुआ, तो इस बार मैंने दादी से पूछ ही लिया- वह "टप्पर" कहाँ गया?
       उन्होंने ईशारा किया- एक छप्पर की तरफ, जहाँ ज्यादातर बेकार चीजें पड़ी थीं। वहीं वह "टप्पर"- जो कभी आन-बान-शान का प्रतीक, बहू-बेटियों का पर्दा हुआ करता था- आँसू बहा रहा था।
       मैंने उसकी एक तस्वीर ले ली। उसे ही यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। उस आलेख को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक किया जा सकता है।

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बुधवार, 11 नवंबर 2015

147. दीवाली (2015)

       अररिया (नेपाल की सीमा पर, बिहार) में रहते वक्त जब दीवाली पर घर लौटता था, तब कटिहार से मनिहारी के बीच पड़ने वाले गाँवों में देखता था- हर घर के बाहर एक लम्बे बाँस से एक "कन्दील" लटक रही है। गंगा के इस पार आने के बाद यह दृश्य नहीं दीखता था। शहरों में तो बस ग्रिटिंग कार्ड़्स पर ही कन्दील नजर आती हैं। हालाँकि अररिया में दीवाली की सुबह कन्दील बिकते हुए देखा था और खरीद कर घर में टाँगा था।
खुद कन्दील बनाने की हिम्मत अब नहीं रही। बचपन में एक ही बार कन्दील बनाया था- अपने से। दरअसल, हमारे बरहरवा में कन्दील टाँगने की परम्परा नहीं के बराबर है। जो इक्के-दुक्के टाँगते भी हैं, वे "मेड इन चायना" वाली कन्दील टाँग लेते हैं, जिनमें बिजली का बल्ब जलता है- दीपक के स्थान पर। 
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       एक और परम्परा बरहरवा में नहीं है- "घरौंदा" बनाने की। इक्के-दुक्के लोग ही इसका पालन करते हैं। अब यह परम्परा नहीं है, तो "चीनी के खिलौने" भी यहाँ नहीं बिकते। हालाँकि पड़ोसी शहर राजमहल में इनकी परम्परा कायम है।
       प्रसंगवश, इस साल हमारी "छोटी" का घरौंदा सुन्दर बना है- चित्र देखिये। घरौंदे के लिए "खील" तो मिल गयी, (चीनी के) "खिलौने" नहीं मिले। उसके स्थान पर बताशे की व्यवस्था है।


       एक और बात याद आयी। बचपन में स्कूली पाठ्य-पुस्तक की जो दीवाली वाली कविता थी ("दीप जलाओ दीप जलाओ आज दीवाली रे"), उसमें "मैं तो लूँगा खील-खिलौने तुम भी लेना भाई" को हम ठीक से नहीं समझते थे। सोचते थे, यहाँ "खेल-खिलौने" होना चाहिए। अब घरौंदा बनाने और उसे खील-खिलौने से भरने की जब परम्परा ही नहीं थी, तो हम भला इसे समझते कैसे?  
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       हाँ, एक परम्परा बरहरवा में काफी पुरानी है- वह है, दीवाली की रात "काली पूजा" की। बंगाल में इसे "श्यामा पूजा" कहते हैं। यहाँ के "सार्वजनिक मन्दिर" में दशकों से दीवाली की रात "काली पूजा" होती आ रही है।






       काली पूजा पर एक दृश्य की याद आ रही है। पिछले साल दीवाली के बाद किसी एक दिन भागलपुर में था। उस रोज काली की प्रतिमाओं का विसर्जन होना था। ओह, ऐसा विसर्जन जुलूस मैंने कभी नहीं देखा था! भागलपुर की सारी प्रतिमायें एक साथ विसर्जन के लिए जा रही थीं। सम्भवतः एक सौ से ज्यादा प्रतिमायें होंगी! भारी भीड़। गाजे-बाजों की भरमार। इन सबके बीच पारम्परिक हथियारों की प्रदर्शनी! हर दो-एक प्रतिमा के बाद एक गाड़ी में खास ढंग से बना एक बड़ा-सा 'फ्रेम' था और उस फ्रेम में करीने से तलवार, भाले, कटार, बर्छी इत्यादि सजे हुए थे। माँ काली की प्रतिमायें तो देखने लायक थीं ही।


       भागलपुर से लौटते वक्त साहेबगंज में उतरा- रात ढल चुकी थी। यहाँ भी यही दृश्य- छोटे पैमाने पर। पता चला, शहर की सारी प्रतिमाओं का विसर्जन तो हो चुका है- आज "बम काली" का विसर्जन है। "बम काली" मैं ठीक से समझा नहीं- सम्भवतः शहर की सबसे विशाल और रौद्र रुप वाली काली प्रतिमा को "बम काली" कहा जाता होगा।
       खैर, अभी इतना ही, दीवाली की शुभकामनायें...
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रविवार, 8 नवंबर 2015

146. कल्याणचक का कायाकल्प

कल्याणचक स्टेशन की वह झोपड़ीनुमा चाय-दूकान... पता नहीं, अब यह है भी है या नहीं. 

       जब हरी दूब के स्थान पर कंक्रीट के फर्श बनने लगे, पेड़ों के स्थान पर टावर बनने लगे, पगडण्डियों के स्थान पर फ्लाइओवर या फुट ओवर ब्रिज बनने लगे, गुमटियों के स्थान पर मॉल बनने लगे, तो इसे "विकास" कहते हैं। मैं विकास का मजाक नहीं उड़ा रहा हूँ। विकास न होता, तो कम्प्यूटर पर यह ब्लॉग कैसे लिखता! बस, मैं अपने मनोभाव को व्यक्त कर रहा हूँ कि मुझे हरी दूब, पेड़ों के छाँव, कच्ची पगडण्डियाँ, गुमटी या झोपड़ीनुमा छोटी-छोटी दूकानें अच्छी लगती हैं। आडम्बर, बनावटीपन से दूर यहाँ अपनापन, सरलता का अहसास होता है। चकाचौंध, भागम-भाग और "फॉर्मलिटी" वाले माहौल में मुझे घुटन-सी महसूस होती है। इसमें मैं कुछ कर भी नहीं सकता, क्योंकि बनाने वाले ने मुझे स्वभाव ही ऐसा दिया है!
       ***
       ट्रेन से बरहरवा से साहेबगंज जाते समय एक छोटा-सा स्टेशन आता है- कल्याणचक। दो-ढाई साल पहले यहाँ प्लेटफार्म के नाम पर हरी दूब से ढकी पटरी से हाथ भर ऊँची जमीन हुआ करती थी। 2012 में इस रूट पर तिनसुकिया मेल दुर्घटनाग्रस्त हो गयी थी। तब अचानक रेलवे के मुख्यालयों में बैठे बड़े साहबों का ध्यान गया कि- अरे, यहाँ तो दस साल पहले पटरियों का "दोहरीकरण" हो जाना चाहिए था! इतनी देर कैसे हुई। (बता दूँ कि यह रेल-लाईन 1860 में बिछी थी और अभी तक "सिंगल" लाईन ही थी। सिर्फ बरहरवा से तीनपहाड़ तक दोहरीकरण हुआ था, उसके बाद काम रुक गया था।)
       खैर, युद्धस्तर पर "दोहरीकरण" का काम शुरु हुआ और मैं यह देखकर चकित रह गया कि सबसे ज्यादा कायाकल्प इस "कल्याणचक" स्टेशन का ही हो रहा था। कारण का मुझे अब तक पता नहीं। उन दिनों मैं "डेली-पैसेन्जरी" करता था- रोज सुबह ट्रेन से जाता था और रात को लौटता था। मेरी आँखों के सामने कल्याण्चक एक सीधे-सादे स्टेशन से लम्बा-चौड़ा स्टेशन बन गया!
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2013 में जिस जगह खड़े होकर मैंने बाँयी तरफ वाली तस्वीरें खींची थीं,
2015 में उसी जगह खड़े होकर उन्हीं कोणों से मैंने दाहिनी तरफ वाली तस्वीरें खींचने की कोशिश की है. 

       कल्याणचक का पुराना स्टेशन-भवन तो खैर, कायम रह गया- नयी पी.आई. बिल्डिंग बगल में बनी थी- काफी पहले। नयी पटरियाँ बिछाने के लिए विपरीत दिशा की जमीन ली गयी-दस-बारह झोपड़ियों वाली एक बस्ती को पीछे हटाकर, मगर सभी स्टेशनों का ऐसा सौभाग्य नहीं था। तालझारी, करणपुरातो, महाराजपुर, मिर्जाचौकी स्टेशनों के पुराने भवनों को तोड़ना पड़ा।  
       ये पुराने भवन सोचिये कि उन्नीसवीं सदी के बने हुए थे और इनकी एक खासियत यह भी होती थी कि हर स्टेशन के भवन की बनावट अलग-अलग थी। इलाके के अशिक्षित लोग रात के अन्धेरे में भी स्टेशन भवन की एक झलक देखकर समझ जाते थे कि ट्रेन किस स्टेशन पर है।
       अब जो रेलवे वाले "पी.आई. बिल्डिंग" बना रहे हैं, उनकी बनावट हर स्टेशन पर बिलकुल एक-जैसी होती है- खड़ूस किस्म की डिजाइन। "कला" और "रचना" से कोई वास्ता नहीं! उनकी अपनी कोई पहचान नहीं होती।  
       बचपन में मैं भी सोचता था कि स्टेशनों के भवन एक-जैसे क्यों नहीं होते, मगर बाद में समझा- इनका अलग-अलग होना बेहद जरूरी है। हर स्टेशन-भवन की अपनी एक पहचान होती है, जो उस शहर के साथ जुड़ जाती है।
       यहाँ तक ध्यान रखा जाता था कि उस शहर की संस्कृति की छाप स्टेशन भवन में झलके!
       लगता है रेलवे ने इस खूबसूरत नीति का परित्याग कर दिया है....
       अफसोस!

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145. जीवन के पाँच दशक...


शनिवार, 7 नवंबर 2015

144. 'चालीसा'



एक कहावत होती है- "चालीसा", यानि चालीस की उम्र के बाद आँखों की रोशनी कम होना 2006 में चालीस का होने के बाद अगले साल मैंने आँखों की जाँच करवायी थी- मेरठ में ये 6/6 थीं चार-पाँच साल के बाद महसूस होना शुरु हुआ कि कम रोशनी में छोटे अक्षर पढ़ने में परेशानी हो रही है इस सच्चाई को हजम करने में और एक-डेढ़ साल बीते अब एक चश्मा- मामूली-सा ही- ले ही लिया है- छोटे अक्षरों को पढ़ने के लिए- खासकर, जब प्राकृतिक रोशनी पर्याप्त न हो वैसे, इसका ज्यादातर इस्तेमाल अभी तक तो सिर्फ दफ्तर में ही हो रहा है
तरसों सुबह दफ्तर को निकलने से पहले वही चश्मा लगाये मैं...
(नोट- फोटो में थोड़ी कलाकारी की गयी है)