उनकी 20 कहानियों के अनुवाद का काम कल ही पूरा हुआ और कल रात ही सॉफ्ट कॉपी ईमेल से प्रकाशक को भेजा.
'प्राक्कथन' के रूप में जो मैंने लिखा है वहाँ, उसके अंश को यहाँ उद्धृत करते हुए मैं उनको नमन करता हूँ...
कुछ बातें ‘‘बनफूल’’ की...
सन् 1914 ईस्वी।
बिहार के एक छोटे-से
कस्बे ‘मनिहारी’ से एक किशोर गंगा पार
करके साहेबगंज आता है। उद्देश्य- यहाँ के रेलवे हाई स्कूल में आगे की पढ़ाई करना।
मनिहारी में किशोर ने जिले में अव्वल रहते हुए माइनर स्कूल की पढ़ाई पूरी की है और
उसे छात्रवृत्ति भी मिली हुई है। (साहेबगंज आज झारखण्ड में पड़ता है।)
यह किशोर लेखन में रुचि
रखता है। स्कूल में वह ‘‘विकास’’ (बिकाश) नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका निकालना शुरु करता है। उसकी
खुद की रचनायें भी उसमें रहती हैं।
अगले ही साल उसकी एक
कविता स्तरीय बँगला पत्रिका ‘‘मालञ्च’’ में छपती है।
संस्कृत के शिक्षक उसे
बुलाकर डाँटते हैं- तुम यहाँ पढ़ाई करने आये हो या साहित्य रचना करने?
प्रधानाध्यापक भी
साहित्यिक गतिविधियों को पढ़ाई-लिखाई में बाधक मानते हैं। वह किशोर लिखना छोड़ देता
है।
मगर स्कूल में एक दूसरे
शिक्षक भी हैं- बोटू दा, जो उस किशोर का हौसला बढ़ाते हैं। कहते हैं- अगर लिखना छोड़ दोगे, तो तुम्हारी प्रतिभा
नष्ट हो जायेगी। वे सलाह देते हैं- किसी छद्म नाम से क्यों नहीं लिखते?
मनिहारी में घर के नौकर
उस किशोर को ‘‘जंगली बाबू’’ कहकर बुलाते हैं, क्योंकि हाथ में छड़ी
लेकर जंगलों में घूमना और फूल-पत्तियों को निहारना उसे पसन्द है। यह बात जानने पर
बोटू दा कहते हैं- जब तुम्हें जंगल की फूल-पत्तियाँ पसन्द हैं, तो ‘‘बनफूल’’ नाम से ही लिखा करो!
इस प्रकार, पत्र-पत्रिकाओं में
कवितायें भेजने के लिए वह किशोर ‘‘बनफूल’’ का छद्म नाम अपनाता है। प्रसिद्ध ‘प्रवासी’ पत्रिका में भी 1918 में उसकी कविता छपती
है।
अगले 50 वर्षों में ‘‘बनफूल’’ के कलमी नाम से वह किशोर
न केवल हजारों कवितायें लिखता है, बल्कि 586 कहानियों, 60 उपन्यासों 5 नाटकों और कई एकांकियों की भी रचना वह करता है! वह एक आत्मकथा भी
लिखता है। उसके लेखों की संख्या तो अनगिनत है!
***
उस किशोर का, अर्थात् ‘‘बनफूल’’ का मूल नाम है-
बालायचाँद मुखोपाध्याय। उनकी माता मृणालिनी देवी तथा पिता सत्यचरण मुखोपाध्याय थे।
उनका जन्म 19 जुलाई 1899 को बिहार के मनिहारी
में हुआ था। छह भाईयों तथा दो बहनों में वे सबसे बड़े थे। (मनिहारी एक ‘गंगा-घाट’ के रुप में प्रसिद्ध है, जहाँ से स्टीमर में
बैठकर लोग-बाग दूसरी तरफ साहेबगंज घाट तक जाना-आना करते हैं। पहले घाट साहेबगंज से
कुछ दूर सकरीगली में हुआ करता था।)
***
1918 में साहेबगंज रेलवे हाई
स्कूल से मैट्रिक पास करने के बाद वे हजारीबाग के सन्त कोलम्बस कॉलेज से आई.
एस-सी. पास करते हैं और फिर कोलकाता मेडिकल कॉलेज में छह वर्षों तक मेडिकल की पढ़ाई
करते हैं। एक साल वे पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भी रहते हैं।
पढ़ाई के बाद पहली नौकरी
वे एक गैर-सरकारी प्रयोगशाला में करते हैं, उसके बाद आजिमगंज (मुर्शिदाबाद जिला, पश्चिम बँगाल) के सरकारी
अस्पताल में चिकित्सा अधिकरी बनते हैं, मगर जल्दी ही वे भागलपुर में आकर बस जाते हैं और अपना
खुद का पैथोलॉजी लैब चलाते हैं। यहाँ वे प्रायः 40 साल रहते हैं। इस दौरान वे अपने
छोटे भाई-बहनों की जिम्मेवारी भी उठाते हैं।
जीवन की सान्ध्य बेला
में, जब लिखने में भी वे
असमर्थ हो चले थे, भागलपुर छोड़कर वे कोलकाता (सॉल्ट लेक) में जाकर बस जाते हैं।
हजारों लोग,
जिनमें गरीब ज्यादा थे, उन्हें भाव-भीनी विदाई
देने भागलपुर स्टेशन पर आते हैं। यह साल था- 1968।
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‘‘बनफूल’’ के कुछ उपन्यासों के नाम
हैं- तृणखण्ड,
मानदण्ड, जंगम, स्थावर, उदय-अस्त, महारानी, मानसपुर, कन्यासू, भीमपलश्री (हास्य), द्वैरथ, मृगया, किछुक्षण, रात्रि, वैतरणी तीरे, से ओ आमि, अग्नि, नवदिगन्त, कोष्टिपाथोर, पंचपर्व, लोक्खिर आगमन, दाना इत्यादि। ‘स्थावर’ और ‘जंगम’ उपन्यासों को बँगला
साहित्य में आज ‘कालजयी’ कृति होने का सम्मान प्राप्त है। ‘हाटे-बाजारे’, ‘अग्निश्वर’, ‘भुवन सोम’ ‘छद्मवेषी’ पर फिल्में बन चुकी हैं।
उनके कहानी-संग्रह हैं-
बनफूलेर गल्प,
बनफूलेर आरो गल्प, बाहुल्य, विन्दु विसर्ग, आद्रिश्लोक, अनुगामिनी, नवमंजरी, उर्मिमाला, सप्तमी, बनफूलेर श्रेष्ठ गल्प, बनफूलेर गल्प संग्रह
(प्रथम शतक) और बनफूलेर गल्प संग्रह (द्वितीय शतक)।
‘‘बनफूल’’ अपनी सरस, चुटीली छोटी कहानियों के
लिए जाने जाते हैं, जो पेज भर लम्बी होती हैं। जैसे एक शेर अन्त में विस्मय के साथ
समाप्त होता है,
उनकी छोटी कहानियाँ भी
विस्मय के साथ समाप्त होती हैं। उनके चरित्र वास्तविक जीवन से चुने हुए होते हैं।
अँगेजी में इस प्रकार के शब्दचित्रों को ‘विनेट’ (vignet) कहते हैं।
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‘डाना’ (डैना- पंख) पुस्तक की
रचना के समय ‘‘बनफूल’’ बाकायदे दूरबीन लेकर
चिड़ियों पर शोध तथा चिड़ियों पर लिखी पुस्तकों का विस्तृत अध्यन करते हैं। इस
पुस्तक के बारे में एक अन्य बँगला लेखक ‘परशुराम’ का मानना है कि इसे अँग्रेजी में अनुदित कर नोबेल
पुरस्कार के लिए भेजा जाना चाहिए। मगर ‘‘बनफूल’’ का मानना है कि अच्छे पाठकों/दर्शकों की नजर में
रचनाकार को मिला पुरस्कार कोई मायने नहीं रखता और कला का मूल्यांकन काल करता है!
पश्चिम बँगाल के
राज्यपाल के मुख्य सचिव श्री बी.आर. गुप्त सॉल्टलेक में अगर ‘‘बनफूल’’ के पड़ोसी एवं मित्र नहीं
होते, तो शायद वे ‘पद्मभूषण’ के लिए राजी न होते।
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‘‘बनफूल’’ को 1951 में शरत स्मृति
पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। 1962 में उनके उपन्यास ‘हाटे-बाजारे’ पर रवीन्द्र पुरस्कार
मिलता है। राष्ट्रपति से उन्हें स्वर्णपदक मिला है तथा भारत सरकार ने उन्हें 1975 में पद्मभूषण से
सम्मानित किया है। 1977 में वे बँगला साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बनते हैं। उनकी
जन्मशतवार्षिकी (1999) पर भारत सरकार उनपर डाक टिकट जारी करती है तथा तपन सिन्हा उनके
जीवनवृत्त पर फिल्म बनाते हैं।
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‘‘बनफूल’’ की धर्मपत्नी लीलावती जी
के बारे में उल्लेखनीय है कि वे उस जमाने की स्नातक थीं। वे न केवल ‘‘बनफूल’’ की रचनाओं की पहली
पाठिका, बल्कि स्पष्टवादी
आलोचिका भी हुआ करती थीं। उनके देहावसान के बाद ‘‘बनफूल’’ अकेले पड़ जाते हैं और तब
वे उनसे जुड़े रहने के लिए प्रतिदिन उन्हें पत्र लिखते हैं। पत्र ‘डायरी’ के रूप में हैं, जिसमें देशकाल की
वर्तमान अवस्था पर उनकी टिप्पणियाँ, कवितायें, व्यंग्य इत्यादि हैं। इसी समय वे ‘‘ली’’ नाम का उपन्यास भी लिखते
हैं।
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सॉल्ट लेक, कोलकाता के जिस घर में 9 फरवरी 1979 के दिन ‘‘बनफूल’’ अन्तिम साँसें लेते हैं, उस घर के सामने वाली सड़क
का नाम आज ‘बनफूल पथ’ है।
बिहार के सीमांचल
क्षेत्र के सहरसा से कटिहार होते हुए कोलकाता जाने वाली एक ट्रेन को उनके एक
प्रसिद्ध उपन्यास के नाम पर ‘हाटे-बाजारे एक्सप्रेस’ नाम दिया गया है।
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प्रस्तुत कहानी-संग्रह
की अनुदित कहानियाँ ‘बनफूलेर गल्प संग्रह (प्रथम शतक)’ से चुनी गयीं हैं, जिसे ‘‘बनफूल’’ ने 20 जून 1955 के दिन अपनी सहधर्मिणी
श्रीमती लीलावती देवी के करकमलों में अर्पित किया है। इस संग्रह में उनकी 1936 से 1943 तक की कहानियाँ संकलित
हैं। प्रस्तावना के रुप में राजशेखर बसु (‘परशुराम’) के पत्र को ‘‘बनफूल’’ ने उद्धृत कर रखा है, जिसमें छोटी कहानियों पर चर्चा
है। उस पत्र के अन्तिम पारा को यहाँ भी उद्धृत किया जा रहा हैः-
‘‘विषयों के वैविध्य के मामले में
आप हमारे कहानीकारों के बीच अद्वितीय हैं। वास्तविक, काल्पनिक, असम्भव, रूपक, प्रतीकात्मक, सभी प्रकार की रचनाओं
में आप सिद्धहस्त हैं। आप जो लिखते हैं, वह छोटी कहानी है या बड़ी कहानी या उपन्यास यह विचार
करना निरर्थक है। गद्यपद्यमय चम्पूकाव्य ‘मृगया’, अलौकिक रूपक ‘वैतरणी तीरे’, विचित्र चरित्रचित्र जैसे ‘नाथुनिर मा’, ‘छोटो लोक’, ‘विज्ञान’, ‘देशी ओ विलाति’ सभी आपकी सार्थक रचनायें
हैं। अतिकाय प्राणियों के समान महाकाव्य भी आज लुप्त हो गये हैं। मेरा विश्वास है, महाउपन्यास भी क्रमशः
लुप्त होंगे,
छोटी रचनायें ही
सुधिजनों की आकांक्षाओं को तृप्त करेंगी। अतिभोजी पाठक-पाठिकाओं के लिए ‘जंगम’ लिखकर प्रचुर मात्रा में
कैलोरी की आपूर्ति कीजिये। मगर स्वल्पभोजी भी बहुत हैं, उनके लिए नाना प्रकार के
जीवनी रस भी थोड़ा-बहुत परोसते रहिए।’’
***
...और कुछ अपनी
हिन्दी में ‘‘बनफूल’’ की कहानियों का अनुवाद
बहुत कम हुआ है। कारण नहीं पता। सम्भवतः उनका शब्द-चयन तथा वाक्य-विन्यास अनुवाद
को कठिन बनाता है। मैंने अनुवाद करते समय कहानियों को ‘हिन्दी कहानी’ बनाने के साथ-साथ उनके
शब्द-चयन तथा वाक्य-विन्यास को कायम रखने की कोशिश की है। अब यह हिन्दी पाठकों को
पसन्द आये,
तो बात बने।
इस अनुवाद के प्रकाशित
होने पर मुझे ऐसा लगता है, मैं अपने पिताजी की एक (अनकही) इच्छा को पूरी कर रहा हूँ। वे ‘‘बनफूल’’ के भक्त रहे हैं और ‘प्रथम शतक’ वाली मूल पुस्तक
उन्होंने ही मुझे दी थी।
मेरे हस्तलिखित अनुवादों
को कम्प्यूटर पर टाईप करने में जहाँ मेरी पत्नी अंशु का योगदान रहा है, वहीं मुखपृष्ठ की डिजाइन
में मेरे चौदहवर्षीय बेटे अभिमन्यु का योगदान रहा है।
आवरण पर ‘‘बनफूल’’ का जो व्यक्तिचित्र (पोर्ट्रेट)
है, उसे मैंने एक बॅंगला
अखबार के रविवारीय परिशिष्ट (दिनांकः 11 जुलाई 1999) से स्कैन किया है। यह एक
तैलचित्र की तस्वीर है, जिसके चित्रकार ‘रिण्टु राय’ हैं।
आवरण की दूसरी तस्वीर
में लिलि प्रजाति का जो एक जोड़ा सफेद फूल दीख रहा है, वह हमारे घर के पिछवाड़े
में बरसात के दिनों में खिलता है। बहुत ही मादक सुगन्ध होती है इन फूलों की, जो सन्ध्या के समय फैलती
है। पिताजी याद करते हैं कि हमारे बिन्दुवासिनी पहाड़ पर रहने वाले सन्यासी ‘‘पहाड़ी बाबा’’ ने इस फूल का नाम ‘‘भूमिचम्पा’’ बताया था। मुझे लगा- इस
फूल को ‘जंगल के फूल’ का प्रतीक माना जा सकता
है।
पिछले आवरण पर मनिहारी
स्थित उस घर के दो छायाचित्र हैं (अलग-अलग कोणों से), जहॉं ‘‘बनफूल’’ का जन्म हुआ था। मनिहारी
में ही रह रहे ‘‘बनफूल’’ के सबसे छोटे भाई श्री
उज्जवल मुखोपाध्याय ने इस घर को एक स्मारक की तरह सहेज कर रखा है।
चूँकि हिन्दी के पाठकों
के बीच ‘‘बनफूल’’ आज भी एक अनजाना-सा नाम
है, और उनकी अपने ढंग की
अनूठी कहानियाँ हिन्दी साहित्य में लोकप्रिय नहीं हैं, इसलिए अनुवाद के इस
संग्रह का नाम ‘‘जंगल के फूल’’ रखा जा रहा है...
...और इन फूलों के गुलदस्ते
को पुस्तक के रुप में आपके हाथों तक पहुँचाने का बीड़ा उठाकर अरूण रॉय जी ने बेशक
एक सराहनीय कार्य किया है। मैं उनका आभारी हूँ।
आशा है, कहानी रूपी इन फूलों के
रस की मिठास हिन्दी के साहित्यरसिक रूपी भ्रमरों को तृप्त करेगी और इससे मुझे अगली
कुछ और कहानियों के अनुवाद प्रस्तुत करने के लिए भी प्रेरणा मिलेगी...
ईति।
19 जुलाई 2011 -जयदीप शेखर