हमारे इलाके में मुरमुरे का इस्तेमाल नाश्ते में होता है- इसे मूढ़ी कहते हैं। हो सकता है, “मसाला मूढ़ी” का नाम आपने सुना हो। बिहार, झारखंड और बंगाल में ट्रेनों में मसाला मूढ़ी खूब बिकती है। घरों में भी अक्सर मूढ़ी रखी जाती है और हल्की-फुल्की भूख मिटाने के काम आती है। शाम की चाय से पहले मूढ़ी में सरसों तेल, कटे प्यांज, चनाचूर इत्यादि मिलाकर मसाला मूढ़ी-जैसा तुरत-फुरत खाद्य (फास्ट फूड) तैयार कर लिया जाता है।
अब मूढ़ी “मिल” में बनने लगी है, जिसे पुराने लोग पसन्द नहीं करते। पुराने लोग अब भी रेत पर हाथों से बनी मूढ़ी ही पसन्द करते हैं। इसकी खासियत है कि इसमें आलू-दम या चना-घूघनी डालने के बाद भी जल्दी से इसका कुरकुरापन खत्म नहीं होता।
खैर।
पिछले दिनों हम लिट्टीपाड़ा कस्बे से गुजर रहे थे। कुन्दन मोटर साइकिल चला रहा था, हम पीछे बैठे थे। दोपहर का समय था। हमने कहा- होटल में खाना खाना है? उसने मुस्कुराते हुए कहा- खाना तो घर में ही खायेंगे, यहाँ मूढ़ी-घुघनी, चॉप-प्यांजी का नाश्ता करेंगे।
सड़क के किनारे मूढ़ी-घुघनी की कई दुकानें थीं। कुन्दन सबके सामने से गुजरता रहा, दुकानों की ओर देखता रहा, लेकिन घुसा किसी में नहीं। हमने कहा- इतनी सारी तो दुकानें हैं, चलते क्यों नहीं?
वह फिर मुस्कुराते हुए बोला- सबके पास “सूखे साल-पत्ते” का दोना है। हमें “हरे पत्ते” के दोने में नाश्ता करना है।
बता दें कि मूढ़ी-घुघनी-आलू दम वगैरह का जो नाश्ता होता है, उसे हमारे इलाके में सूखे हुए “साल” के पत्तों के दोने में परोसा जाता है, लेकिन जो आदिवासी-बहुल इलाका है, वहाँ कहीं-कहीं “हरे एवं ताजे” पत्तों के दोने में यह नाश्ता परोसा जाता है। कुन्दन वही खोज रहा था।
अन्त में एक दुकान में वैसा दोना नजर आया। हम वहीं जा बैठे। हरे पत्तों के दोनों में मूढ़ी डाली गयी, उसमें चने की घुघनी और आलू-दम डाला गया। ऊपर से बैंगनी, प्यांजी और आलू-काट डाला गया। आलू-चॉप गर्मा-गर्म बन रहा था, वह बाद में मिला। कमी हरी धनिया की चटनी की थी- शायद वह खत्म हो गयी हो (नाश्ते का समय दरअसल बीत चुका था)। हरी मिर्च देकर कमी पूरी की गयी।
डटकर नाश्ता करने के बाद मुस्कुराते हुए कुन्दन ने फिर कहा- आज कोई बारह साल के बाद “हरे पत्ते” के दोने में मूढ़ी खाये। याद कीजिए- पहले चूड़ा-दही भी इन्हीं दोनों में मिलता था।
हमें याद आया- उस जमाने में- जब सड़्कें हाईवे-जैसी नहीं बनी थीं, तब लिट्टीपाड़ा से गुजरने वाली बसें इन्हीं दुकानों के सामने काफी देर तक रूकती थीं और यात्री बड़े चाव यहाँ हरे पत्तों के दोनों में चूड़ा-दही या घुघनी-मूढ़ी का नाश्ता किया करते थे।
अब माहौल वैसा नहीं है। सड़कें चौड़ी हो गयी हैं, बहुत-सी दुकाने उजड़ गयी हैं। जिनकी उम्र तीस-चालीस या इससे ज्यादा है, उनसे बस एक बार लिट्टीपाड़ा के दही-चूड़ा का जिक्र करने की देर है, वे बहुत-सी यादों को ताजा करने लगेंगे।
हमारी अपनी टिप्पणी यही होगी कि हमने उन दुकानों को तीस-चलीस वर्षों में भी बदलते नहीं देखा था। बचपन में जैसा देखा था, तीस वर्षों के बाद भी दुकानें वैसी ही थीं- वही बेंच, वही टेबल, वही रवैया, वही रंग-ढंग, वही नाश्ता, वही स्वाद! सड़कें जब चौड़ी हुईं, दुकानें उजड़ीं, तभी सब कुछ बदला। अब वह मजा नहीं रहा...
रोचक संस्मरण। आजकल का विकास सुविधा तो लेकर आता है लेकिन कई खूबसूरत चीजें हमसे छीन भी लेता है। अच्छा एक प्रश्न था, मूढ़ी को सूखे पत्तों के दोनों में खाने और हरे पत्तों के दोनों में खाने में कोई फर्क होता है। मसलन स्वाद का या ऐसा कुछ?? या ये बस पुराने अनुभवों को दोबारा जीने के लिए ही किया गया था। इसलिए पूछा क्योंकि मैंने व्यक्तिगत तौर पर देखा है कि पत्तल (पत्तों से बने दौने और प्लेट) में खाना खाओ तो उसका स्वाद अक्सर प्लास्टिक की प्लेटों या स्टील की प्लेटों में खाने से बेहतर लगता हैं पत्तों का अपना स्वाद खाने से मिश्रित हो जाता है।
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