मेरे परिचितों में से कुछ इस बात से परिचित हैं कि पिछले करीब चालीस वर्षों से (मैट्रिक के दिनों से) हमने काले रंग के अलावे किसी और रंग की पैण्ट नहीं पहनी है। ऐसा नहीं है कि हमने बदलने की कोशिश नहीं की। शुरुआती दिनों में तीन-चार बार दूसरे रंग की पैण्ट पहने की कोशिश की, पर जल्दी ही समझ में आ गया कि काले का कोई मुकाबला न नहीं हो सकता- फिर हमने कोशिश ही छोड़ दी।
जवानी के दिनों में दो जीन्स भी ली थीं- वे भी काली ही थीं। अच्छी थीं, बहुत पहने। अधेड़ावस्था में आने के बाद जीन्स छोड़ दी- ऐसा लगा कि यह नौजवानों की चीज है। बाद में लेना चाहा भी, तो पता चला- उसे नाभी से चार अँगुल नीचे बाँधना पड़ेगा- यानि मॉडल बदल चुका था। यह मेरे लिए अजीबोगरीब बात थी।
पिछले दिनों मेरे साले साहब और मेरी साली साहिबा ने श्रीमतीजी के लिए कुछ पकड़े भेजवाये। उन्हीं के साथ साली साहिबा ने मेरे लिए एक हजार रुपये भेजवाये थे- कपड़ों के लिए। हमने फोन पर पूछा- क्या लें? बातचीत में तय हुआ, काली जीन्स और आसमानी टी-शर्ट लेनी है। हमने कहा- अगर थोड़ी ऊँची बाँधने वाली जीन्स मिल जाय, तो ले लेंगे। मित्र (मनोज घोष) की दुकान पर गये। ऐसी जीन्स दो-एक थीं, जिन्हें कमर पर थोड़ा ऊपर (नाभी पर) बाँधा जा सकता था। मनोज ने दाम भी कम किये- जीन्स और आसमानी टी-शर्ट का। फिर भी पचास रुपये ज्यादा लग गये। हमने साली साहिबा को बता दिया है कि पचास रुपये ज्यादा लग गये हैं, उधार रहा, जब मुलाकात होगी, हम ले लेंगे।
इति।
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