जगप्रभा

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रविवार, 21 जुलाई 2013

59. दो दीयों के तले का अन्धेरा




            "दीया तले अन्धेरा"- यह कहावत तो सबने सुनी है। मैं आज उदाहरण देने जा रहा हूँ एक ऐसे क्षेत्र का, जिसके दो तरफ दो बड़े-बड़े दीये जलते हैं, फलस्वरुप उस क्षेत्र का अन्धेरा और भी गहरा, और भी विस्तृत हो जाता है।
       वह क्षेत्र है- देश के सबसे बदनसीन राज्य झारखण्ड का सबसे बदनसीब जिला- साहेबगंज! जब बिहार था, तब साहेबगंज वालों को झारखण्डी माना जाता था और अब झारखण्ड के जमाने इस जिले वालों को बिहारी माना जाता है। बेशक, इसके पड़ोसी जिलों- पाकुड़ और गोड्डा भी बराबर के बदनसीब हैं।
       चित्र देखिये- इस जिले के दो तरफ दो NTPC हैं- एक फरक्का में, जो पश्चिम बंगाल राज्य में आता है, तो दूसरा कहलगाँव में, जो कि बिहार राज्य में आता है। इन स्थानों में बिजली नहीं जाती- रातभर ये स्थान जगमगाते रहते हैं। किसके दम पर? अरे, साहेबगंज, पाकुड़ और गोड्डा जिलों में पड़ने वाले कोयला खदानों से कोयले की निर्बाध आपूर्ति जो होती है इन थर्मल पावर स्टेशनों को!
बदले में इन तीनों जिलों को क्या मिलता है- धुप्प अन्धेरा! दिनभर में जो दो-एक घण्टे बिजली आ भी जाती है, वह इन पावर स्टेशनों से नहीं, बल्कि झारखण्ड के पतरातू-जैसे स्टेशनों से आती है, जिनकी उम्र इतनी हो गयी है कि ये बिजली पैदा कर रहे हैं- यही आश्चर्य है और जो इस इलाके से बहुत दूर हैं!
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पहले सरकार कहती थी- सन्थाल परगना में रेल लाईन नहीं बिछायी जा सकती- पहाड़ी जमीन है। इधर फरक्का का ताप बिजलीघर चालू हुआ, उधर ललमटिया में कोयले खदान बना और रातों-रात विशेष रेललाईन बिछ गयी- उसी झारखण्ड की पहाड़ी जमीन पर- फरक्का को कोयले की निर्बाध आपूर्ती देने के लिए। उस पटरी पर कोई और ट्रेन नहीं चलती। अब शायद सरकार को शर्म आयी है, तो सुना जा रहा है कि दुमका को रेललाईन से जोड़ा जा रहा है। ...आजादी के करीबन सत्तर साल के बाद!
इसी प्रकार, पहले सरकार कहती थी- बरहरवा से जमालपुर तक रेललाईन का दोहरीकरण नहीं हो सकता- जमालपुर की गुफा बाधा है। जब कहलगाँव ताप बिजलीघर को निर्बाध कोयले की आपूर्ति की जरुरत पड़ी, तो देखिये- लाईन के दोहरीकरण का काम दनादन चालू हो गया! इस रेल लाईन के बनने के 120 साल बाद!
पंजाब की एक निजी कम्पनी इस इलाके से कोयला खोदकर पंजाब ले जाती है- इसी रूट से। क्या पता, उसी के दवाब से 'दोहरीकरण' को हरी झण्डी मिली हो! रोज पता नहीं उसके 10 रेक निकलती है या 20, मगर एक-एक रेक करीब एक किलोमीटर लम्बी होती है- लगभग 100 डब्बे मालगाड़ी के! इस झारखण्ड के कोयले से पंजाब के लोगों को करीब चौबीसों घण्टे बिजली मिलती है... और झारखण्ड की दुर्दशा देखिये- अलग राज्य बने 13 साल हो गये, आज तक एक भी ताप बिजलीघर यहाँ नहीं लगा! जबकि इस बीच बिहार में 3 या 4 बिजलीघर बनकर चालू भी हो गये।
झारखण्डी राजनेताओं को म्यूजिकल चेयर खेलने से फुर्सत मिले तब न। 13 वर्षों में 13 निजाम बदल चुके हैं यहाँ। 9-10 मुख्यमंत्री बदल चुके हैं और 2-3 बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है। खरीद-फरोख्त के लिए यहाँ के नेता देशभर में बदनाम हो चुके हैं। अब तो लगता है कि "झारखण्डी राजनीति" एक मुहावरा ही बन जायेगा, जिसका प्रयोग घटिया स्तर की राजनीति के लिए किया जायेगा।
देश के 40 प्रतिशत खनिज-सम्पदा से समृद्ध इस बदनसीब क्षेत्र को पहले दिल्ली लूटती थी, पहले पटना लूटता था और अब इसी की मिट्टी के देशी लोग- मंत्री से सन्तरी तक और अफसर से ठीकेदार तक इसे लूट रहे हैं... ऐसी खुली लूट शायद ही दुनिया के किसी हिस्से में देखने को मिले!
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अन्त में- बचपन में हम बिजली की रोशनी में ही पढ़ते थे- कभी-कभार बिजली जाती थी। कहते हैं कि सिनेमा हॉल तक बिना जेनरेटर के चल जाते थे- 5-7 या 10-15 मिनट के लिए बिजली गुल होती थी। आज इतने समय के लिए बिजली आती है!
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किलोमीटर भर लम्बी सैकड़ों मालगाड़ियाँ प्रतिदिन झारखण्ड से कोयला लेकर निकलती हैं,
जिसके दम पर सारा देश जगमगाता है...
मगर झारखण्ड खुद अन्धेरे में डूबा रहता है! 


2 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे नेताओं की नीयत में ही खोट है । वादे तो जनता के लिये काम करने के करते हैं पर सिर्फ अपनी तुमडी भरते हैं ।

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