चित्र में पाट (जूट) से बनी
कूचियाँ है, जिनसे घरों में पुताई होती है दीवाली से पहले। हमलोग पुताई को 'पोचारा' बोलते थे। हम इन कूचियों से बचपन से परिचित हैं। पहले चौलिया (हमारा
पैतृक गाँव- बरहरवा से 7 किमी दूर, जहाँ थोड़े खेत, दो-चार आम के पेड़ तथा साझे का
तालाब है हमारा। अब ये सब बस नाम के बचे हैं।) से भागीदार (बटाईदार) आते थे जूट
लेकर। खुद ही कूचियाँ बनाते थे, नाँद में चूना भिंगोकर रंग बनाते थे (नाँद इसलिए
कि कभी हमारे घर गाय भी रही थी- थोड़े समय के लिए ही सही) और दो-तीन दिनों तक घर की
पुताई चलती थी।
गाँव-मुहल्ले के प्रायः हर घर में यह
कार्यक्रम चलता था- घर का सारा सामान निकालो, पुताई करो, फिर सामान रखो- एक तरह का
आयोजन था यह। उत्साह के साथ यह आयोजन चलता था। चूने वाली पुताई के बाद
दरवाजों-खिड़कियों पर पेण्ट होता था। एक अलग तरह की खुशबू चारों ओर फैली रहती थी।
अब इस महँगाई डायन ने तो लोगों का दीवाला
ही निकाल रखा है। मुहल्ले में कहीं रंगाई-पुताई का कार्यक्रम नहीं चल रहा है। कहीं
उत्साह नहीं है दीवाली को लेकर।
आज सुबह-सुबह देखा, दो भागीदार (ये अगली
पीढ़ी के हैं) पहुँचे हुए हैं- थोड़ा-सा जूट लेकर। कूची बनाकर पुताई में लग गये हैं-
मगर न कहीं पुताई की खुशबू है, न किसी में उत्साह। पता नहीं, सब कहाँ खो गया है...
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चौलिया
गाँव का जिक्र पहले भी इस ब्लॉग में आया है- 2. चरक मेला और 5. टप्परगाड़ी में।
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