"संवदिया" एक साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका है, जो
बिहार के अररिया नगर से प्रकाशित होती है। उद्घोषवाक्य है- "सर्जनात्मक साहित्यिक त्रैमासिकी"।
(शब्द "उद्घघोषवाक्य" मैंने खुद खोजा अभी-अभी- अँग्रेजी के
"टैगलाईन" के बदले) सम्पादक हैं- भोला पण्डित "प्रणयी"।
आप शायद जान रहे हों- अभी मई तक मैं अररिया
में ही था। "संवदिया" के लगातार दो-दो "कविता विशेषांक" देखने
के बाद मुझसे रहा नहीं गया। मैं "बनफूल" की कहानियों का अनुवाद लेकर
पहुँच गया सम्पादक महोदय के पास। बोला- एक "कहानी विशेषांक" भी निकालिये-
वह भी "बनफूल" की कहानियों का, क्योंकि उनका जन्म आपही के
"सीमांचल" क्षेत्र के "मनिहारी" में हुआ था। सॉफ्ट कॉपी भी
मैंने ईमेल कर दिया। बेशक, जयचाँद ने जो चित्र बनाये थे कहानियों के लिए, उन्हें
भी ईमेल कर दिया।
***
चूँकि "बनफूल" का जन्मदिन जुलाई
में पड़ता है, इसलिए "संवदिया" के जुलाई-सितम्बर अंक को "बनफूल"
विशेषांक के रुप में प्रकाशित किया गया है।
दो हफ्ते पहले मुझे "प्रणयी" जी का
फोन आया था कि यह विशेषांक प्रकाशित हुआ है। मेरा पहला सवाल था- साथ में चित्र हैं
या नहीं, जयचाँद के नाम के जिक्र के साथ? उत्तर नकारात्मक था। मेरी खुशी आधी हो
गयी।
खैर, आज "संवदिया" की कुछ
प्रतियाँ डाक द्वारा मिलीं।
हाँ, इस बीच फारबिसगंज कॉलेज के अँग्रेजी विभाग
के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. नित्यानन्द लाल दास ने
फोन करके मेरे अनुवाद कार्य की तारीफ की। मुझी स्वाभाविक रुप से काफी खुशी हुई।
पता चला, वे मैथिली में कई पुस्तकें लिख चुके हैं, उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला हुआ है।
***
"संवदिया" एक कहानी का नाम है-
फणीश्वर नाथ रेणु की। रेणु जी का जन्म अररिया के निकट ही हुआ था। उस भाग्यशाली
गाँव का नाम है- औराही-हिंगना। अररिया से कोई 20 किलोमीटर दूर- फारबिसगंज की तरफ-
सिमराहा नामक एक गाँव है। यह रेलवे स्टेशन भी है। सिमराहा से 5-7 किलोमीटर दूर है
औराही-हिंगना। यह बिलकुल देहात है।
पिछले साल जून में मेरे (बरहरवा के)
मुहल्ले के दोस्त के भाई की शादी थी सिमराहा में। मैं अररिया से पहुँचा था वहाँ।
अगली सुबह मैं औराही-हिंगना पहुँच गया था। उस कुटिया का
दर्शन करके मैंने खुद को धन्य माना, जहाँ रेणु जी का जन्म हुआ था।
***
रेणु जी की कालजयी कृति "मैला
आँचल" मैंने काफी पहले पढ़ा था। उनकी कुछ और रचनायें पढ़ने का भी सौभाग्य मिला।
उनकी "रिपोर्ताज" शैली का मैं प्रशंसक बन गया। "नाज़-ए-हिन्द
सुभाष" लिखते समय कई स्थानों पर मैंने रिपोर्ताज-जैसी शैली का प्रयोग किया।
कईयों ने इसकी तारीफ की है।
***** पुनश्च:
मैं जो चाहता था कि "बनफूल" के नाम से हिन्दी साहित्य-रसिक परिचित हों और भागलपुर, साहेबगंज, सीमांचल के लोगों को भी याद आये कि इतना प्रतिभाशाली लेखक उन्हीं के यहाँ का है, उसका एक अंश शायद पूरा हुआ.
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