"खोंयचा" शब्द से शायद आप सभी परिचित न हों। मैं जहाँ तक समझा हूँ, यह एक तरह की सौगात है, जो घर की
बड़ी-बुजुर्ग महिलायें विवाहिता बेटियों को विदाई के समय हाथों में देती हैं। शायद
देश के अलग-अलग हिस्सों में इसे कुछ और कहते हों।
बचपन में हम सरस्वती पूजा रंजीत के घर के
सामने खाली जगह में करते थे। तब देखते थे- विसर्जन वाले दिन रंजीत की माँ एक लाल
कपड़े में चावल तथा सुहाग की चीजें- चूड़ियाँ, सिन्दुर इत्यादि- भरकर उसे प्रतिमा के
कमर से बाँध देती थीं। पूछने पर बताया- बेटी हमारे घर से विदा हो रही है न, तो
हमें ही खोंयचा भरना है।
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मेरी मेरठवासिनी श्रीमतीजी इस शब्द से पहले
अपरिचित थी- यहीं आकर इससे परिचित हुई।
आज पता चला- उसे भी दुर्गा माई का खोंयचा
भरना है- आज दुर्गा माँ विदा हो रही है...
विन्दुवासिनी पहाड़ के नीचे पिछले दो-तीन
वर्षों से दुर्गा पूजा हो रही है। वहीं जाकर वह चावल तथा सुहाग की चीजों की पोटली
माँ को चढ़ा आयी।
साथ ही, विन्दुवासिनी मन्दिर से भी हम हो
आये।
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कैसी "जीवन्त" परम्परायें
हैं.... क्यों?
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