शरतकाल में जलाशयों के किनारे "कास" के सफेद फूल तो
खिलते ही हैं (कहीं सचित्र जिक्र किया है मैंने), जलाशयों में कमल प्रजाति के भी
एक फूल खिलते हैं, जिसे यहाँ "भेट" कहते हैं। इसके बीज से एक किस्म की "लाई" (लाड़ू- लड्डू)
बनती है यहाँ, जिसे "कुन्ती" की लाई कहते हैं।
ट्रेन से आते-जाते हुए कई स्थानों पर ये
फूल दीखे, मगर छायाकारी का अवसर नहीं था। आज सुबह साइकिल लेकर निकला। मगर अफसोस कि
जिस जगह मैं पहुँचा, वहाँ सारे फूल तोड़ लिये गये थे। दुर्गा माँ को इन्हें चढ़ाया
जाता है। सिर्फ एक जोड़ा फूल नजर आया। उसी का फोटो लिया।
फोटो खींचने के लिए मुझे कीचड़ तथा घुटनेभर
पानी में घुसना पड़ा।
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लौटकर जब मुन्शी पोखर के किनारे चाय दूकान
पर बैठा था, तब पता चला कि रतनपुर के तरफ कोई बड़गामा बस्ती है (जिसका नाम ही मैंने
नहीं सुना था) वहाँ तालाब में कमल फूल मिलेंगे। इसके अलावे चण्डीपुर के तरफ कोई
'दुधिया' पोखर है, वहाँ भी मिलेंगे। इस तालाब का भी नाम मैंने नहीं सुना था। तालाब
के जिक्र पर पता चला कि लब्दा के पास कोई "राजा दीघी" पोखर है, जिसकी
गहराई का अब तक अनुमान नहीं लगाया जा सका है- यह एक रहस्यमयी तालाब है। हाँ, इसका
जिक्र पहले भी एकबार मैंने सुना था, मगर अब तक देखने नहीं गया हूँ।
...सोच रहा हूँ अपने ही बरहरवा के आस-पास के
बारे में मैं कितना कम जानता हूँ!
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