सोमवार, 13 मई 2024

278. मस्तमौला

 


बहुत कम ही लोग होते हैं, जो मस्तमौला किस्म के होते हैं।

हमारे यहाँ एक हैं। नाम एक बार पूछा था, याद नहीं रहा।

अक्सर सड़क पर भेंट हो जाती है। कभी कचरे की बोरी पीठ पर टाँगे हुए, तो कभी बीड़ी का कश (कभी सिगरेट पीते थे जनाब) लगाते हुए, कभी बैठकर थकान मिटाते हुए, तो कभी चलते-फिरते हुए। भेंट होते ही एक नमस्ते और उसके बाद हँसते हुए कुछ देर बातचीत।

हँसना इनके स्वभाव में है। बात खुशी की हो, तो हँसी और गम की हो, तो भी हँसी। जैसे, आज बहुत काम मिला, इतने रुपये की कमाई हो गयी, भगवान करे,  रोज इसी तरह काम मिले— यह बताते हुए भी ये हँसते हैं और आज बहुत खराब दिन रहा, कमाई-धमाई बहुत कम हुई— यह बताते हुए भी हँसते हैं।

बहुत पहले हम इनकी तरफ आकृष्ट हुए थे इनके सिगरेट पीने की स्टाइल देखकर। अनामिका और कनिष्ठा उँगलियों के बीच सिगरेट फँसाकर, मुट्ठी बाँधकर ऊपर से जोरदार कश खींचते थे और चुटकी बजाकर सिगरेट की राख झाड़ते थे। हमें यह स्टाइल वास्तव में पसन्द आयी थी, ऊपर से मस्त स्वभाव! तब इनसे मेरी बातचीत नहीं हुआ करते थी। तब इनकी ‘चलती’ भी बहुत हुआ करती थी। हमारा कस्बा तब नगर-पंचायत नहीं बना था, बाजार के ज्यादातर दुकानदार कचरा फेंकवांने के लिए इन्हीं पर निर्भर रहा करते थे। कचरा फेंकने कोई दूर भी नहीं जाना पड़ता था, रेलवे की या निजी परती जगह बहुत हुआ करती थी, जहाँ कचरा फेंका जा सकता था। उन दिनों कई बार तो ये जनाब सीधे मुँह बात भी नहीं किया करते थे। कहीं सड़क पर कुत्ता मर गया, तो फेंकने का अच्छा-खासा शुल्क वसूलते थे— इसे नाजायज नहीं कहा जा सकता। आम कस्बाई तो फेंकने से रहा।

वक्त बदला, कस्बा नगर पंचायत बना, कचरा उठाने के लिए लोग नियुक्त हुए, ट्रैक्टर गाड़ियों में कचरा उठाया जाने लगा और इनके परिणामस्वरूप इनकी पूछ कम हो गयी। फिर भी, काम तो इन्हें मिलते रहता है। परिवर्तन यह देख रहे हैं कि अब सिगरेट की जगह बीड़ी पीते हैं और अक्सर— बेशक हँसते हुए ही— बताते हैं कि नगर पंचायत के ट्रैक्टर वाले कभी-कभी इनकी मदद नहीं करते और कचरा फेंकने के लिए इनको बहुत दूर जाना पड़ता है।

मेरी इनसे बातचीत शुरू हुई तकरीबन चार-पाँच साल पहले। हुआ यूँ था कि एक लड़की का मोबाइल फोन कॉलेज से आते समय कहीं गिर गया था और उसने हमारे घर आकर बहुत परेशान होकर यह बात बतायी। श्रीमतीजी ने खोये फोन के नम्बर पर कॉल किया, उठाया इन जनाब ने। बताया कि इनका घर कॉलेज के गेट के पास ही है। जिसका फोन है, वह आकर ले ले। श्रीमतीजी उस लड़की के साथ इनके घर गयीं और फोन ले आयीं। बेशक, इन्हें कुछ ईनाम भी दिया गया था।

इसके बाद एक बार हम श्रीमतीजी के साथ उस इलाके से गुजर रहे थे, तो ये जनाब जोर-जोर से “दीदी-दीदी” कहते हुए श्रीमतीजी से बातें करने लगे। बाद में हमने पूछा कि तुम इसको कब से जानने लगी? तब उन्होंने मोबाइल खोने वाला वाकया सुनाया।

उसके बाद से हमसे से इनकी बातचीत होने लगी।

अभी दो-तीन दिनों पहले हम लोग शाम के समय बाजार से लौट रहे थे। ये जनाब अचानक प्रकट हुए और “दीदी-दीदी” करते हुए बातचीत करने लगे, मोबाइल वाली घटना का जिक्र करना नहीं भूले।

खैर, भेंट होने पर हम दो-चार मिनट इनसे बात करना कभी नहीं भूलते, क्योंकि इसी बहाने मेरे चेहरे पर भी हँसी और मुस्कान तैर जाती है— वर्ना जमाना ऐसा है कि बिना हँसे-मुस्कुराये अक्सर घण्टों बीत जाते हैं।

तो कुल-मिलाकर— बहुत कम ही लोग होते हैं, जो मस्तमौला स्वभाव के होते हैं, मौका मिलने पर उनसे बातचीत जरूर करनी चाहिए। स्टेटस? भाड़ में जाये। निश्छल हँसी और मुस्कान के सामने सब फालतू के चोंचले हैं!

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3 टिप्‍पणियां:

  1. रोचक व्यक्ति हैं...सही कहा मस्तमौला व्यक्ति कम ही दिखते हैं...

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  2. मस्तमौला दो किस्म के होते हैं - एक जो 'आग लगे बस्ती में, मस्तराम मस्ती में' किस्म के और दूसरे इन जैसे ' हर हाल में ख़ुश रहने वाले'. असली मस्तमौला ऐसे ही लोग हैं. इनसे राब्ता बनाए रखें.

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