जगप्रभा

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रविवार, 19 जुलाई 2015

139. हास्य


       जो लोग जीवन में हास्य को महत्व देते हैं, उन्हें अफसोस होता होगा कि टीवी पर अब स्तरीय हास्य धारावाहिक नहीं आते। एक समय "ये जो है जिन्दगी" काफी पसन्द की जाती थी। फिर "देख भाई देख" और "मिसेज माधुरी दीक्षित" को पसन्द किया गया। सोनी टीवी जब शुरु हुआ, तो "बीविच्ड", "हू इज द बॉस", "डिफरेण्ट स्ट्रोक्स" और "सिल्वर स्पून" (इसका नाम शायद कुछ और था) जैसे उम्दा हास्य धारावाहिकों को हिन्दी में प्रस्तुत करने का सराहनीय काम किया था उसने।  
उसके बाद जिसे "स्तरीय" हास्य कहते हैं, उसकी कमी आ गयी। हाल के दिनों में "कॉमेडी सर्कस" ने काफी भरपाई की थी। कभी शेखर सुमन ने "मूवर्स एण्ड शेकर्स" में लोगों को हँसाया था, आज कपिल शर्मा इस काम में सफल हैं।
अपना तो टीवी देखना दो-चार-दस मिनट समाचार (कभी-कभी कार्टून) देखने तक सिमट गया है। धारावाहिक ज्यादातर स्तरहीन ही नजर आते हैं। हास्य के नाम पर जो भी आता है, उसमें "स्तर" नजर नहीं आता।
(अभी तो सबसे बड़ी बात यह है कि हम सन्थाल-परगना के वासी हैं, जहाँ दिन में दो-एक घण्टे की विद्युत-आपूर्ती को पर्याप्त माना जाता है- तो यहाँ टीवी देखेंगे भी कितना? अब सुनने में आ रहा है कि सन्थाल-परगना में "भी" बिजली की आपूर्ती सामान्य होने वाली है!)
       ऐसे में, बीते मई में- जब हमलोग चुँचुड़ा में थे, अपनी चचेरी बहन के घर- तब श्रीमतीजी को "&TV" पर आने वाले एक हास्य धाराविक "भाभीजी घर पर हैं" का पता चला। यह धारावाहिक आता तो रोज है, मगर जैसा कि मैंने कहा- बिजली न रहने के कारण हम देख नहीं पाते थे। बाद में पाया गया- रविवार के दिन हफ्तेभर की कड़ियों को एकसाथ दिखाया जाता है। कई रविवारों को हमने देखा... और मेरी यह शिकायत दूर हो गयी कि टीवी पर अब स्तरीय हास्य धारावाहिक नहीं बनते!
       ***
       हास्य की बात चली है, तो यह बता दूँ कि हास्य फिल्में मुझे बहुत पसन्द है। हालाँकि अपनी युवावस्था में पता नहीं क्यों, मैं गम्भीर, समानान्तर और सार्थक फिल्मों को पसन्द करने लगा था। "गाईड", "प्यासा", "दो बीघा जमीन", "दो आँखें बारह हाथ", "पथेर पाँचाली"- जैसी फिल्में मुझे बहुत पसन्द आने लगी थीं।
       अब गम्भीर फिल्में देखने का मन नहीं करता। या तो "हैरी पॉटर"-जैसी फन्तासी फिल्म हो, या "इवोल्यूशन", "जुरासिक पार्क" और "गॉडजिला"-जैसी साई-फाई, या फिर "गोल माल", "हेरा फेरी"-जैसी हास्य फिल्में- यही पसन्द है। बचपन में "पड़ोसन" मेरी पसन्दीदा हास्य फिल्म थी, आज- यानि अब तक, "हंगामा" मेरी पसन्दीदा हास्य फिल्म है।
       आम तौर पर हमलोग ज्यादातर समय गम्भीर रहते हैं, या फिर तनाव में। ऐसे में, ये हास्य धारावाहिक और हास्य फिल्में ही हैं, जो मन-मस्तिष्क-स्नायुओं को आराम पहुँचाती है। शायद हँसने से चेहरे पर रक्त का प्रवाह भी बढ़ जाता है- यह भी जरुरी है।
       वैसे, लजाने-शर्माने से भी चेहरे पर रक्त का प्रवाह बढ़ता है। पहले के बच्चे- खासकर लड़कियाँ- लजाती-शर्माती ज्यादा थीं- इस कारण उनके चेहरे को रक्त का पोषण भरपूर मिलता था और उनके चेहरे की स्वाभाविक या प्राकृतिक चमक बरकरार रहती थी। अब ऐसा नहीं है- खासकर, नगरीय इलाकों में तो बिलकुल नहीं है!
       खैर, ये मेरे अपने विचार हैं।

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