1984 में मैट्रिक पास करके मैं अगले ही साल
(इण्टर की पढ़ाई अधूरी छोड़) एक भारतीय सशस्त्र सेना में शामिल हो गया था- एक मामूली सैनिक के
रुप में। ज्यादा पैसा कमाने, ऊँचा ओहदा पाने
की चाह कभी मुझ पर हावी नहीं हो सकी। मैं अपने काम के प्रति ईमानदार रहा, निजी
जीवन में मस्त रहा, सिर उठाकर चला, अपनी मर्जी से मैंने जीवन को जीया...
मेरा एक सहपाठी-
जिसकी गिनती तेज विद्यार्थी के रुप में होती थी- रेलवे में क्लर्क बना। उसकी
पोस्टिंग मालदा में हुई, जो हमारे बरहरवा से ज्यादा दूर नहीं है। फिर वह देश के
फ्लैगशिप बैंक में पी.ओ. बना।
पिताजी के एक पत्र से
मुझे यह खुशखबरी मिली। उन्होंने यह भी लिखा कि मुझे भी कुछ इसी तरह कोशिश करनी
चाहिए, जीवन में ऊँचा मुकाम हासिल करने के लिए। मैं उस वक्त आवडी में था। साथियों
से पूछा कि यह पी.ओ. क्या बला है, जो मेरे पिताजी भी मुझे इसकी सलाह दे रहे हैं?
साथियों ने बताया-
ज्यादा दिमाग लगाने की जरुरत नहीं है, संक्षेप में यही समझो कि बैंकों में पी.ओ.
वह होता है, जो सुबह आठ बजे बैंक में घुसता है और रात आठ बजे दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द
करके ताला लगाकर घर लौटता है।
उन दिनों सेना में
हमारा वर्किंग आवर सुबह साढ़े सात बजे से दोपहर डेढ़ बजे तक का हुआ करता था। डेढ़ बजे
दफ्तर से आकर हमलोग मेस में खाना खाते थे और खिड़कियों पर पर्दे तान कर सो जाया
करते थे। शाम हम स्वतंत्र होते थे- खेलने, फिल्म देखने, बाजार घूमने या किसी भी
अन्यान्य गतिविधि के लिए। हफ्ते में दो दिन शाम को पी.टी. होती थी।
मैंने पिताजी को पत्रोत्तर देते समय यही लिखा कि
सबको उसकी ऊँची सैलरी दिखायी देगी, मगर किसी को भी उसका सुबह आठ से रात आठ बजे तक
का काम नहीं दिखायी देगा। ...मैं ऐसा जीवन नहीं जी सकता।
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समय गुजरता रहा। सेना
में बीस साल बिताकर मैं घर लौट आया। दो-तीन साल कम्प्यूटर वगैरह लेकर डी.टी.पी. का
काम किया। 2008 में उसी बड़े बैंक में बड़ी बहाली हुई और मैं उस संस्था में शामिल हो
गया- बतौर मामूली क्लर्क।
(प्रसंगवश, दो बातों का जिक्र कर दूँ- एक, उस संस्था की कमान उस
वक्त एक ऐसे नायक के हाथों में थी, जिनके प्रति मेरे मन में गहरा सम्मान है,
उन्होंने लड़खड़ाती हुई उस संस्था को फिर से मजबूत बनाया; दो, मैं आभारी हूँ उस
सशस्त्र सेना का, जो 20 वर्षों की सैन्य सेवा के बाद अवकाश लेने वाले सैनिकों को
"स्नातक" की डिग्री प्रदान करती है, इसी डिग्री की बदौलत मैं नयी नौकरी
में शामिल हो सका। (इग्नू से मैंने ग्रेजुएशन किया जरुर, मगर एक तो "जयदीप
शेखर" के नाम से, जो मेरा "कलमी" नाम है, और दूसरे वहाँ से मुझे
सर्टीफिकेट नहीं मिल पाया- ऐन मौके पर पता बदलने के कारण।)
***
खैर, तब तक मेरा वह
पी.ओ. मित्र ऊँचे ओहदे पर पहुँच चुका था। वह काफी मेहनती था, मगर उसे और किसी चीज
का कोई खास शौक नहीं था। कभी-कभी वह बरहरवा आता था, उससे बातचीत भी होती थी।
फिर पता चला कि काम
के दवाब के चलते उसका "शुगर लेवल" खरतनाक स्तर तक पहुँच गया है!
मैं फोन से उससे
सम्पर्क नहीं कर पाया- नम्बर बदल गया था, नया नम्बर उसने दिया नहीं। उनके भाई साहब
से दो बार उसका हाल-चाल लिया- पता चला, कुछ दिनों तक ठीक रहता है, फिर तबियत बिगड़
जाती है।
बेशक, काम के दवाब के
कारण ही उसकी यह हालत हुई होगी। लगता तो नहीं है कि ज्यादा पैसे कमाने और ज्यादा
ऊँचा ओहदा पाने का उसे कोई शौक था। बस वह बगावत करना नहीं जानता था- नाक तक पानी आ
जाने पर भी...
...पानी वाकई नाक तक
पहुँचा और आज यह मनहूस खबर मिली कि वह नहीं रहा... बीती रात वह चल बसा है...
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किसको जिम्मेदार
ठहराऊँ मैं? खुद उसे ही, जो परिवार-समाज से कटकर, स्वास्थ्य-शौक को त्यागकर सिर्फ
काम करता था? या उस संस्था को, जो "per employee" ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए अपने कर्मियों की जान
तक की परवाह नहीं करती?
किसने छीना मेरे एक
दोस्त को? आज की जीवन-शैली ने, जिसमें आदमी कुत्ते की तरह जीभ निकाले बस दौड़ता
रहता है? आज के संस्कारों को, जिसमें आदमी वक्त और जरुरत पड़ने पर भी बगावत नहीं
करता?
कहाँ हैं वे युनियन
वाले, जो पहली मई को सन्देश भेजते हैं: On the May day, let us all pledge to
fight against exploitation of intellectual and physical labour!, मगर इस दिशा
में करते कुछ नहीं।
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मैं तो मामूली क्लर्क
हूँ, मगर मुझसे भी एकबार उम्मीद की गयी थी कि मैं देर रात तक काम करूँ। मैंने मना
करके इस्तीफा सौंप दिया। कहा गया, इस्तीफा मंजूर होने में दो-तीन महीने लगते हैं।
मैं तीन महीने दफ्तर गया ही नहीं था! यह और बात है कि इस्तीफा मंजूर नहीं हुआ और
इसके बदले मेरा स्थानान्तरण ही मेरे गृहनगर में कर दिया गया।
यहाँ भी मुझसे उम्मीद
की गयी कि मैं देर शाम तक दफ्तर में काम करूँ। मेरा जवाब था- मैं काम के प्रति
ईमानदार हूँ, काम के बाद मैं परिवार, समाज, स्वास्थ्य, शौक के लिए समय बिताना
पसन्द करता हूँ। काम और परिस्थिति को देखते हुए मैं अपनी मर्जी से भले कुछ ज्यादा
समय तक रुक जाऊँ, मगर नियमित रुप से देर शाम/रात तक दफ्तर में बैठना मुझसे नहीं हो
पायेगा! मैंने अपनी बात लिखकर भी दे दी है...
एक और बात मौखिक रुप
से मैंने बतायी- इस संस्था ने मेरे "पुनर्वास" के लिए मुझे नौकरी पर रखा
है- क्योंकि मैंने अपनी युवावस्था के बेशकीमती बीस साल देश की सेना को दिये हैं...
जिस दिन संस्था को लगे कि मैं अपने हिस्से का काम नहीं कर रहा हूँ, या जिस दिन इस
संस्था को यह पुनर्वास बोझ लगने लगे, उस दिन वह बेशक मुझे निकाल बाहर कर सकती है!
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जिन्दगी को जीने के
मेरे अपने कुछ उसूल हैं... किसी को पसन्द आये, तो ठीक, न आये तो ठीक... मगर मैं
जीभ निकाल कर हाँफते हुए जिन्दगी बिताने के लिए तैयार नहीं हूँ... न ही मधुमेह,
रक्तचाप, तनाव का मरीज बनकर दवाईयों पर जीने के लिए!
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