शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

129. "चन्द्रगौड़ा"

  
    चन्द्रगौड़ा एक छोटी-सी सन्थाली बस्ती का नाम है, मगर आजकल हमारे बरहरवा तथा आस-पास के क्षेत्रों में यह प्रसिद्ध हो गया है। कारण है- यहाँ इसाई मिशनरियों द्वारा संचालित एक अस्पताल, जो 2007 में यहाँ स्थापित हुआ था और अभी यह और भी बड़ा बनेगा।
बाकी बीमारियों के ईलाज के बारे में पता नहीं, मगर प्रसव के लिए जरुरी सारी सुविधायें यहाँ उपलब्ध हैं। डॉक्टर एवं नर्सों की संख्या भी पर्याप्त है। पूर्वोत्तर एवं दक्षिण भारत की नर्सों को यहाँ देखकर थोड़ा आश्चर्य भी हुआ- दूर-दराज के एक छोटे-से अस्पताल में रहते और काम करते हुए पता नहीं वे कैसा महसूस करती होंगी। देखने में तो सब खुश नजर आ रही थीं। जरुर इनके मन में बेबसों की "सेवा की भावना" भी होगी- सिर्फ "नौकरी" के लिए शहर/बाजार का कोई बासिन्दा शायद ऐसे पिछड़े स्थानों में रहना न चाहे।
बरहरवा से बरहेट जाते वक्त पहले "राजमहल की पहाड़ियों" की दो श्रेणियों को पार करना पड़ता है- दोनों आपस में जुड़ी हुई हैं। एक साँप-जैसी सड़क इन पहाड़ियों पर चढ़ती-उतरती है। उतरने के बाद यह सड़क चार-पाँच और भी श्रेणियों को पार करती हैं- मगर अगल-बगल से- पहाड़ियों पर बिना चढ़े। बीच में रांगा नामक एक कस्बा आता है, उसके बाद एक छोटी-सी बस्ती (नाम अभी ध्यान नहीं) के बाद एक अलग सड़क अस्पताल के लिए घूम जाती है- पहाड़ी की तलहटी से होती हुई।
पिछले दिनों कई बार वहाँ जाना हुआ। रास्ते में बहुत तस्वीरें खींची जा सकती थी, मगर मुझे लगा, इसके लिए बरसात का मौसम सही रहेगा। फिर भी, चन्द्रगौड़ा बस्ती के आस-पास में दो-चार तस्वीरें उतार ली थीं- वे ही यहाँ प्रस्तुत हैं। तस्वीर में "झोपड़ियों" की स्थिति को देखकर आप सहज ही अनुमान लगा सकेंगे हमारे देश के अन्दर दूर-दराज के इलाकों में लोग कैसा जीवन बिताते हैं... देश आजाद होने के प्रायः सात दशक बाद भी...
प्रसंगवश दो बातों का जिक्र जरुरी है।
पहली, बरहरवा भले छोटा-मोटा शहर है, मगर यहाँ चिकित्सा की कोई खास सुविधा उपलब्ध नहीं है- न सरकारी, न निजी। लोग आम तौर पर बंगाल के शहरों (मालदा, रामपुरहाट, बर्द्धमान इत्यादि) या बिहार के भागलपुर का रुख करते हैं- ईलाज के लिए। कहने को दो लेडी डॉक्टर हैं यहाँ, मगर उनकी 'ख्याति' के सामने 'सु' शब्द लगाने से लोग हिचकेंगे... । समझता हूँ, देश के ज्यादातर कस्बों-छोटे शहरों की यही कहानी होगी।

दूसरी, अक्सर सोचता हूँ, हमारे जो बड़े-बड़े तीर्थ हैं- तिरुपति, जगन्नाथपुरी, वैष्णों देवी, इत्यादि, जिनके पास अरबों-खरबों रुपये की फिक्स्ड डिपॉजिट पड़ी-पड़ी सड़ रही हैं, वे आखिर कब इस देश में इसाई-मिशनरियों को टक्कर देते हुए शिक्षण-संस्थानों एवं अस्पतालों की शृँखला कायम करेंगे? कभी करेंगे भी या नहीं? (ध्यान रहे- मैं दो-चार संस्थानों की बात नहीं कर रहा हूँ, एक शृँखला कायम करने की बात कर रहा हूँ।)
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पुनश्च:
मुझे अपने स्कूटर के प्रति यहाँ आभार व्यक्त करना चाहिए- वह 'निर्जीव' है तो क्या?
यह बजाज का 4स्ट्रोक स्कूटर है- "लीजेण्ड"। नम्बर- PB56-8499पंजाब के रायकोट में रजिस्टर्ड। 1999 का स्कूटर है। उन दिनों मैं लुधियाना-रायकोट के बीच 'हलवारा' में था। (इसका नम्बर मैंने बताया न- 8499, इसे तारीख में बदलने पर बनेगा- 8-4-99 और इसे मैंने खरीदा था 5-4-1999 के दिन!) खैर। मैं इसे चलाता नहीं हूँ- पहले भी कम ही चलाता था। मगर चन्द्रगौड़ा जाते वक्त इसने आराम से पहाड़ियों को पार किया। जब मैं पीछे श्रीमतीजी और सामने अपनी भतीजी को लेकर गया था, तब भी इसने पहाड़ियों को आराम से पार किया। भले यह तेज न चलता हो, मगर वक्त पर इसने मेरा बहुत साथ निभाया। इसलिए यहाँ मैं उसके प्रति आभार व्यक्त करता हूँ... 







128. बसन्त: आस-पास




       मेरे घर के आस-पास तीन चीजें बहुत दिनों से "बसन्त" के आगमन की घोषणा कर रही थीं, मैं उन्हें देख रहा था, महसूस कर रहा रहा था, मगर कुछ कारणों से लिख नहीं पा रहा था। वे चीजें हैं- आम के मंजर, सहजन के फूल और शीशम के पत्ते।
       इस साल मंजर ज्यादा आये हैं। कहते हैं कि हर दूसरे साल ऐसा होता है। कुछ बड़े पेड़ों पर मैंने इतने मंजर देखे कि लगा पत्तियों से ज्यादा मंजर ही हैं! अभी तक दो-तीन बार बूँदा-बांदी जरुर हुई है, मगर आँधियाँ नहीं चली हैं, सो मंजर भी सारे टिके हुए हैं। अब देखा जाय, आम की पैदावार कैसी होती है।
       शाम के वक्त आम के पेड़ों के नीचे से गुजरते समर मंजर की खुशबू जब नथुनों में घुसती है, तब मैं अक्सर एक बात सोचता हूँ- कितने भाग्यशाली होंगे, जिनके नथुनों में यह खुशबू घुसती होगी? कितने ऐसे होंगे, जो घुसती हुई इस खुशबू को महसूस भी करते होंगे?
       अभी जबकि मैं यह लिख रहा हूँ, मंजरों का कैशोर्य एवं यौवन ढलान पर है, और वे परिपक्व हो रहे हैं- फल बनने के लिए...
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       बहुत-से लोग शायद 'सहजन' से परिचित न हों। अँग्रेजी में जिस सब्जी का नाम Drumstick है, वही सहजन कहलाता है। अभी कुछ दिनों पहले तक सहजन के पेड़ सफेद फूलों से लदे हुए थे, अब वे भी कम हो रहे हैं- वहाँ भी फूल से फल बनने का सिलसिला शुरु हो गया है।
       एक नीम्बू का पेड़ भी है, हमारे घर के पिछवाड़े में- उसके फूल तो सारे झड़ हैं अब नन्हें-नन्हें फल दिख रहे हैं- ध्यान से देखने पर।
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       शीशम के पेड़ों पर नये पत्ते आ रहे हैं.. पुराने झड़ रहे हैं...  
       इन सबके अलावे, कोयल की कूक और पपीहा की पीऊ-कहाँ भी सुनायी पड़ने लगी है... 

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

127. 'धूपची मेला'


       मेरे इस ब्लॉग में "टप्परगाड़ी" नाम का एक आलेख है, जिसमें कि "भूईंपाड़ा" मेले का जिक्र है- कि हम अपने बचपन में टप्परगाड़ी में बैठकर मेला जाया करते थे। असल में, उस गाँव का नाम भीमपाड़ा है और उस मेले का नाम "धूपची" मेला है। मेला लगता है माघ महीने के पहले रविवार को। यह सूर्य भगवान को समर्पित मेला है।
मेरा अनुमान कहता है कि माघ महीने के पहले रविवार से धूप में तेजी आती है और इस दिन के बाद से ही किसान धान को धूप दिखाना शुरु करते हैं। धूप में दो-चार दिन रखने के बाद उस धान से चावल बढ़िया बनता है- दाने टूटते नहीं हैं। तो इसलिए यह दिन सूर्य को अर्घ्य देने का एक पर्व बन गया। पर्व को मेला बनते देर नहीं लगा होगा, क्योंकि धान की फसल कटने के बाद किसानों के हाथ में थोड़े पैसे आ जाते हैं। यहाँ मेले में वे अपनी जरुरत की बहुत सारी चीजें खरीद सकते हैं।   
       इस साल 18 जनवरी को यह मेला लगा था। संयोगवश, मैं और जयचाँद वहाँ पहुँच गये। हम असल में चौलिया गाँव गये थे- लौटते वक्त मेला भी घूम लिये।
       आप भी कल्पना कीजिये एक सीधे-सादे ग्रामीण मेले में घूमने का।

       जो एक तस्वीर नहीं ले पाये, वह थी मिट्टी के अनगढ़ खिलौनों की। मैंने जयचाँद को बताया भी, पर उसने कहा कि लौटते वक्त लेंगे, फिर वह रह ही गयी। 

ये बन रहे हैं पत्थर के "सिल", जिनपर मसाला पीसा जाता है. 

मेले का केन्द्रीय हिस्सा. 

जहाँ पीपल के पेड़ पर शोले का एक मुकुट टाँगकर फलों का अर्घ्य चढ़ाया जाता है- भगवान सूर्य को. 



लकड़ी के घरेलू सामान. 

लोहे के सामान- खासकर कृषि औजार.

तफरी के लिए- चावल की शराब या ताड़ी- चखने के साथ. 

जुआ. 

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

126. बचपन




       आज का बचपन मोबाइल की भेंट चढ़ गया है। ऐसे में, जब घर के सामने कुछ बच्चे आकर खेलते और शोर मचाते हैं, तो बहुत अच्छा लगता है- कम-से-कम मुझे।
       हमारे बचपन में खेलने-कूदने का स्थान बहुत ज्यादा होता था। कभी-कभी तो चोर-सिपाही खेलने के लिए एकाध किलोमीटर खेत-खलिहान-बगान की जरुरत पड़ जाती थी। जाड़े में धान कटने के बाद खुद कुदाल उठाकर "गद्दी" के लिए मैदान बनाना हमलोगों का हर साल का काम होता था। (गद्दी चुस्ती-फुर्ती और दम-खम का जबर्दस्त खेल हुआ करता था- टीम वाला।)
       हमलोग एक तरफ क्रिकेट, वॉलीबॉल, बैडमिण्टन खेलते थे, तो दूसरी तरफ डेंगा-पानी, सतमी ताली, लुका-छिपी, बुढ़िया-कबड्डी-जैसे देशी खेल भी बहुत खेलते थे। इसके अलावे, कभी पतंग का दौर चलता था, तो कभी लट्टू का। तब न टीवी हुआ करता था, न कम्प्यूटर न मोबाइल। सो, शाम को- और छुट्टी के दिन दिन में भी- घ्रर से बाहर निकल कर खेलने के अलावे और कोई उपाय ही नहीं था समय बिताने का। हाँ, पत्र-पत्रिकायें और पुस्तकें बहुत मिला करती थीं हमें पढ़ने के लिए- नन्दन, चम्पक, बालक, बाल-भारती, पराग, मेला, चन्दामामा, गुड़िया, कुटकुट, लोटपोट, मधु मुस्कान, अमर चित्र कथायें, इन्द्रजाल कॉमिक्स, राजन-इकबाल के कारनामे वगैरह-वगैरह...
       खैर। ज्यादातर देशी खेल तो खो गये हैं। उनके बारे में लिखना भी चाहूँ, तो शायद न लिख पाऊँ। जैसे कि "ओक्का-बोक्का" ही पूरा याद नहीं आ रहा- 'ओक्का-बोक्का तीन-तिरोक्का, लोहा-लाठी चन्दन काठी, बाग में बगवन डोले, सावन में करैला फूटे..... " बाकी याद ही नहीं रहा...
       देखता हूँ कि कुछ नये खेल बच्चे खेलते हैं। यानि अगर पुराने खेल अगर खत्म हो रहे हैं, तो कुछ नये खेलों का जन्म भी हो रहा है...

       ... यानि दुनिया अभी कायम रहेगी, क्यों? जब तक इस पृथ्वी पर बच्चे खेलते-कूदते, हँसते-चहकते रहेंगे, तब तक भला कौन दुनिया को मिटा सकता है-?