जगप्रभा

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रविवार, 18 मई 2014

111. उफ्फ, यह गर्मी!


       हो सकता है, मेरी याददाश्त ठीक न हो, मगर मुझे ध्यान है कि पहले हमारे इलाके में गर्मियों में अधिकतम तापमान 40 से ऊपर नहीं जाता था- नीचे ही रहता था। हमलोग समाचारों में ही पढ़ते थे कि राजस्थान में पारा 44 या 45 पर पहुँच गया है। पर अब इस इलाके में भी 44-45 डिग्री अधिकतम तापमान होना आम बात हो गयी है। शायद कार-कंक्रीट-कारखानों की अनियंत्रित वृद्धि- यानि "विकास"- का असर देशभर में हो गया है!
       बता दूँ कि मैं देश के सबसे गये-गुजरे राजनेताओं द्वारा संचालित सबसे पिछड़े राज्य झारखण्ड के सबसे पिछड़े क्षेत्र सन्थाल-परगना का निवासी हूँ। इस परगना के तीन जिलों- दुमका, देवघर, गोड्डा- को तो फिर भी राँची झारखण्ड का हिस्सा मानती है, मगर साहेबगंज और पाकुड़ जिलों को अपना सौतेला हिस्सा मानती है। कारण- यहाँ हिन्दी, बँगला, भोजपुरी का प्रचलन ज्यादा है। एकीकृत बिहार के जमाने में पटना इन्हें झारखण्ड का हिस्सा मानकर नजरअन्दाज करता था। कोलकाता से तो खैर, कोई उम्मीद नहीं रखी जा सकती। इस प्रकार, ये दोनों जिले न राँची के अपने हैं, न पटना के और न ही कोलकाता के- और ये बसे हैं इन तीनों राजधानियों के ठीक बीचों-बीच!
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       यहाँ चौबीस में 4-6 घण्टों की बिजली को अहोभाग्य माना जाता है। यहाँ के कोयले से भले अन्यान्य राज्यों में 12-14 या 18-20 घण्टे बिजली रहती हो, मगर यहाँ के नेताओं का कहना है कि झारखण्ड राज्य की स्थापना जिन तीन उद्देश्यों के लिए हुई थी, वह काम अभी तक खत्म नहीं हुआ है, इसलिए हमलोग दूसरे कामों की तरफ ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। आप शायद उन तीन महान उद्देश्यों के बारे में पहले से ही जानते हों- 1. लूट, 2. लूट और 3. लूट! 14 वर्षों में 14 मुख्यमंत्री बदल गये, पता नहीं कितनी बार राष्ट्रपति शासन लगा, मगर संसाधन इतने हैं इस राज्य में कि कमबख्त लूट का काम अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। कई वर्ष हो गये, अभी तक मधु कोड़ा का कीर्तिमान नहीं टूटा है!
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       खैर, बात गर्मी की हो रही थी, मगर दिमाग गर्म होने के कारण मुद्दे से भटक गया था।
       हमारे पास एक कूलर था, जो बिजली की अनुपब्धता के कारण पड़ा रहता था। इस बार उसके पंखे और मोटर को खोलकर बाहर निकाला। पंखे के जगह बैटरी से चलने वाला डीसी पंखा लगा दिया। मोटर के स्थान पर टाँड पर एक पुराना फिल्टर रखकर उसकी टोंटी से पाईप जोड़कर कूलर के पर्दों को भिंगोने का देशी इन्तजाम किया। बहुत सफल तो नहीं रहा प्रयोग, पर दोपहर में जान बच जाती है।
       यह तो खैर, मामूली प्रयोग था, मगर मैं दो महँगे प्रयोगों के बारे में सोच रहा हूँ गर्मी से बचाव के लिए-  
       एक: अगर छत पर ईंटों की पंक्तियाँ बिछाकर उनपर एसबेस्टस की चादरें बिछा दी जायं और उस चादर पर आधा फूट मोटी मिट्टी की परत बिछा दी जाय, तो कैसा रहेगा?
      दो: अगर कोई मकान की बाहरी दीवार बनवाते वक्त दोहरी दीवार बनवाये- बाहरी दीवार 5 ईंच की तथा भीतरी दीवार ढाई ईंच की और इन दोनों दीवारों के बीच ढाई ईंच का ही अन्तर रखते हुए उस अन्तर को मिट्टी से भरवा दे, तो कैसा रहेगा?
       जो सज्जन इंजीनियरिंग, आर्किटेक्चर इत्यादि से जुड़े हों, या जो मकान बनवाने का पर्याप्त अनुभव रखते हों, वे अगर सहमति दें, तो उन्हें आजमाया जा सकता है।
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