एक अँधेरे कमरे से हम
अँधेरे को दूर नहीं कर सकते- अब अँधेरे को बोरे में भर-भर के तो बाहर ले जाकर नहीं
फेंक सकते न! हाँ, अँधेरे कमरे में हम प्रकाश को जरूर ला सकते हैं- तीली जलाकर,
तीली से दीपक जलाकर, या खिड़की-दरवाजे खोलकर, या फिर बिजली का बल्ब जलाकर।
"अँधेरे को दूर
करना" तथा "प्रकाश को लाना"- दोनों है तो एक ही बात, मगर
"सोच" या "प्रवृत्ति" बदल जाती है।
यह उदाहरण रजनीश का दिया
हुआ है।
***
जब से देश आजाद हुआ है,
तमाम योजनायें "नकारात्मक" प्रवृत्ति या सोच के साथ बनती आयी है- गरीबी
दूर करनी है, कुपोषण दूर करना है, अशिक्षा दूर करनी है, बेरोजगारी दूर करनी है, और
आजकल- भ्रष्टाचार दूर करना है! इसलिए शायद हमें सफलता नहीं के बराबर मिली है।
इन्हीं योजनाओं को अगर
"सकारात्मक" प्रवृत्ति या सोच के साथ लागू किया जाय- कि देश में खुशहाली
लानी है, लोगों को स्वस्थ बनाना है, हर किसी को शिक्षित बनान है, हर हाथ को रोजगार
देना है और देश में सदाचार लाना है... तो शायद परिणाम कुछ और ही दीखे।
कहने का तात्पर्य, पिछले
60-65 वर्षों से हम बोरे में भर-भर कर अँधेरे को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं,
अब हमें रोशनी जलाने का इन्तजाम करना होगा! इसकी शुरुआत 2012 में ही होनी चाहिए...
***
तो आईये, 2012 के नये साल
में हम सब मिलकर इस बार अपने महान देश भारतवर्ष, हिन्दुस्तान-ए-आज़म,
इण्डिया-दि-ग्रेट, के लिए शुभकामना व्यक्त करें- कि इसके पुनरूत्थान की शुरुआत इसी
साल हो...
आमीन! एवमस्तु!!
(ध्यान रहे- जब बहुत से लोग
अच्छा सोचते हैं, तभी कुछ अच्छा घटित होता है...)
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