अन्ततः मेरे पैसे मेरे खाते में आ ही गये। अगर एक दिन और देर हो जाती, तो फिर पता नहीं, कितना लम्बा
चक्कर लग जाता।
बात यूँ है कि पिछले साल सितम्बर में मेरा
एक के.वी.पी. (किसान विकास पत्र) परिपक्व हुआ था। बड़े पापड़ बेलने के बाद 11 महीनों
बाद- इस साल अगस्त में- डाकघर से मुझे चेक मिला। चेक को बैंक में जमा कर मैंने चैन
की साँस ली कि अब कुछ दिनों में पैसे मेरे खाते में आ जायेंगे।
मगर नहीं। दो महीने से कुछ ज्यादा समय
बीतने के बाद- जब चेक की वैधता खत्म होने में सिर्फ चार दिन बाकी थे, तब यह चेक
लौट आया। पता चला कि यह गया तो सही शहर में था, मगर गलत शाखा में। यह गलती इसलिए
हुई कि चेक पर शाखा का 'कोड' न तो छपा था, न ही शाखा-कोड का मुहर लगा था। वैधता का
अन्तिम दिन छुट्टी का दिन था।
मैं खुद चेक लेकर उस शहर की सही शाखा में
गया, तब राशि मेरे खाते में आयी।
***
इस अनुभव के बाद मुझे "रविवार"
के एक लेख की याद आयी। लेख किसी विदेशी ने लिखा था। लेख में भारतीय डाकघर के साथ
हुए अपने व्यक्तिगत कटु अनुभव का जिक्र करते हुए लेखक ने भारतीय सरकारी दफ्तरों की
लापरवाह कार्यशैली का विशद वर्णन किया था। लेख का शीर्षक था- "ये लकीर के
फकीर, देश का क्या भला करेंगे?"
बता दूँ कि कोलकाता से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक
पत्रिका "रविवार" कभी बहुत ही लोकप्रिय पत्रिका हुआ करती थी। बाद में,
जब इसने केन्द्र सरकार का 'मुखपत्र' बनने की कोशिश की, तो इसका अस्तित्व ही समाप्त
हो गया! मैं जिस लेख का जिक्र कर रहा हूँ, वह तीस साल से भी पहले छपा होगा। (अनोखे
शीर्षक के कारण यह मेरे अवचेतन मस्तिष्क में दर्ज था।)
***
सोचता हूँ कि क्या पिछले तीन-चार दशकों में
हमारे देश में सरकारी विभागों के काम-काज की शैली में कोई बदलाव नहीं आया है...? दर्जनों
बार अनुनय-विनय करने के बाद मई माह में अगर मैंने डाकघर के अधिकारी को उपभोक्ता
अदालत जाने की धमकी न दी होती, तो क्या मेरा चेक मिलता? अगर मैं खुद चेक लेकर
दूसरे शहर के बैंक में न जाता, तो क्या बैंक इसकी वैधता का नवीणीकरण करवाता? मेरी
कहीं कोई गलती नहीं थी, फिर भी, मेरा पैसा मुझे चौदह महीनों के बाद मिला! वर्षों
पहले इस पैसे को जमा करने का उद्देश्य यह था कि जब बेटा मैट्रिक पास कर लेगा और आगे
की पढ़ाई के लिए कहीं बाहर जायेगा, तो ये पैसे काम आयेंगे। बेटे को मैंने बाहर नहीं
भेजा, यह अलग बात है; अगर भेजता, तो दिक्कत होनी ही थी!
उधर रिजर्व बैंक ने चेक की वैधता की अवधि
छह महीनों से घटाकर तीन महीने कर दी- मानो, सरकारी विभागों की कार्य क्षमता में
वृद्धि हो गयी हो!
जबकि सच्चाई, लगता है, वही है, जिसे
तीस-पैंतीस साल पहले एक विदेशी ने महसूस किया था-
"ये लकीर के फकीर, देश का क्या भला
करेंगे?"
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बहुत जगह आज भी स्थिति वही की वही है बल्कि बहुत जगह पर पहले से बदतर , मसलन लाइसेंस दफ़्तरों को ही लीजी पहले आटे में नमक डाला जाता था आजकल नमक में आटा डाला जाता है :)
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