मेरे घर के नजदीक दो तालाबों में छठ पर्व मनाया जाता है। ऐसे, बरहरवा में और भी दर्जनों तालाबों में छठ का आयोजन
होता है, पर नजदीक यही दोनों है। एक जगह भरपूर सजावट के साथ यह आयोजन होता है,
दूसरी जगह बिलकुल सादगी के साथ। दोनों के बारे में मैंने इस ब्लॉग में पहले लिखा
है।
यहाँ मैं दोनों ही आयोजनों की कुछ तस्वीरें
प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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पहले जब हमारे घर में कोई छठ नहीं करता था,
तब मैं रंजीत के परिवार के साथ इस आयोजन में शामिल होता था। तब यह एक सरल त्यौहार
हुआ करता था। रेलवे के विशाल तालाब के किनारे छठ होता था। दुर्गापूजा के बाद ही छठ
करने वाले परिवारों के युवक और किशोर तालाब के किनारे खुद ही सफाई करते थे,
सीढ़ीनुमा घाट बनाते थे और सजावट करते थे। महिलायें खुद ही छठ के गीत गाती थीं।
अब समितियाँ बन गयी हैं। उन्हीं के तरफ से
घाट बनवाये जाते हैं। सजावट, प्रकाश–व्यवस्था तथा आतिशबाजी (कहीं-कहीं) पर हजारों-हजार रुपये खर्च किये
जाते हैं। चन्दा भी उगाहा जाता है। और छठ के गीत? यह तो यह व्यवसाय बन चुका है।
दर्जनों गायक-गायिकायें हर साल नये-नये अल्बम जारी करवाते हैं- वे गीत ही सब जगह
बजते रहते हैं। इनमें से कुछ धुनें सदाबहार बन जाती हैं। उन धुनों पर कई गीत बनते
हैं। उनके बोल समझ में आये, न आये, हर किसी को ये कर्णप्रिय और मधुर लगते हैं।
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आम तौर पर छठ को सूर्य की उपासना का व्रत
माना जाता है। मगर वास्तव में यह "षष्ठी देवी" का व्रत है, जो शिशु के
प्रसव के बाद छह दिनों तक शिशु के साथ ही रहती है। छठे दिन उस देवी की पूजा होती
है। यह देवी निराकार है। चूँकि इसकी पूजा सूर्य के वंशजों ने शुरु की इसलिए सूर्य
को अर्घ्य दिया जाता है।
यह बात मैं भी नहीं जानता था। ऊपर जिस
सादगी वाले आयोजन का जिक्र हुआ है, वहाँ पण्डित जी जब छठ की महिमा बता रहे थे, तब
मुझे पता चला।
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पिछले साल बड़ी दीदी (अररिया) का अन्तिम छठ
था; इस साल छोटी दीदी का अन्तिम छठ है, जो फरक्का से यहाँ आकर छठ करती है। अगले
साल शायद भाभी छठ शुरु करे।
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जहाँ पूरी सजावट के साथ पूजा होती है...
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