रजनीश
की एक किताब "उत्सव आमार जाति, आनन्द
आमार गोत्र" मेरी पसन्दीदा पुस्तकों में से एक है। उसमें एक स्थान पर वे कहते हैं कि कमरे
में अगर अन्धेरा भरा हो और हम 'अन्धेरा
दूर करने के लिए' बोरे
में भर-भर कर अन्धेरे को बाहर फेंकना चाहें, तो
हम अन्धेरे को दूर नहीं कर सकते।
इसके बजाय एक तीली ही जला लें, या
दीपक या मोमबत्ती, तो
अन्धेरे कमरे में 'प्रकाश
आ जाता है'। यानि अन्धेरे को दूर करने के बजाय हमें प्रकाश
को लाना है।
अन्धेरे का अपना कोई अस्तित्व नहीं है- "प्रकाश का न होना" ही अन्धेरा
है।
***
इसे
"नकारात्मक" और "सकारात्मक" सोच के रुप में भी समझा जा सकता
है। अगर
हम अन्धेरे को दूर करने की कोशिश करते हैं, तो
यह नकारात्मक सोच है; और
अगर हम प्रकाश को लाने की कोशिश करते हैं, तो
यह सकारात्मक सोच है।
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दशकों
बीत गये, हम आज भी गरीबी हटाने, बेरोजगारी हटाने, अशिक्षा
हटाने, कुपोषण हटाने की सोचते हैं, तो हम कहाँ से सफल होंगे? यह तो नकारात्मक सोच है- बोरे में भरकर कमरे के
अन्धेरे को दूर फेंकने की कोशिश!
क्यों
न हम समृद्धि, खुशहाली लाने; हर हाथ को काम देने; सबको सुसभ्य, सुशिक्षित, सुसंस्कृत बनाने; सबको जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें सुलभ कराने की
सोचें...
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कौन
जानता है- क्या पता, फर्क पड़ ही जाये........
शुभ
दीपावली....
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पुनश्च:
....पिछले
कई दशकों से हम एक और नकारात्मक सोच से ग्रस्त हैं। वह सोच है- बात-बात में 'धर्मनिरपेक्षता', 'साम्प्रदायिकता', 'अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक', 'सवर्ण-दलित'-जैसे
शब्दों का प्रयोग।
ये सारे शब्द "नकारात्मक" हैं। ऐसी सोच जब तक कायम रहेगी, न भारत राष्ट महान बन सकता है और न ही भारतीय
समाज उन्नति कर सकता है।
हमें
सकारात्मक ढंग से सोचना होगा- हम सब भारतीय हैं; ('मानवता' के बाद) 'भारतीयता' ही हमारा धर्म है; हम सब एक हैं, बराबर
हैं। साथ
ही, बिना किसी पक्षपात के हमें 'गलत को गलत' और
'सही को सही' कहना
सीखना होगा।
अपनी तथा अपनों की गलत बातों को सही ठहराने और दूसरों की सही बातों को नजरान्दाज
करने की प्रवृत्ति किसी भी राष्ट्र या समाज के लिए घातक है!
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सुंदर आलेख
जवाब देंहटाएंदीपोत्सव की शुभकामनायें !!