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करीब
महीने भर पहले हमने गत्ते के दो डिब्बों (Carton), अल्युमिनियम फ़ॉयल (जो खाद्य-सामग्री पैक करने
के काम आता है- इसका रोल मिलता है) और एक काँच लेकर एक "सौर चूल्हा"
बनाया था।
पहले
दिन हमने इसमें एक अण्डा उबलने के लिए रखा, वह नहीं उबला। अगले दिन चूल्हे की
बनावट में थोड़ा-सा संशोधन किया और इस बार चावल रखा इसमें- भात बनाने के लिए। सुबह
ही रख दिया था। चार घण्टे बाद डिब्बा निकाला- चावल पक गया था। जिसे कहते हैं "खिला-खिला"
चावल, वैसा ही बना था। खाते समय तो हम चकित रह गये- इतने स्वादिष्ट चावल (भात)
हमने अब तक नहीं खाये थे!
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अब
हमने सौर-चूल्हा खरीदने का प्रयास शुरू किया। पता चला, हमारे यहाँ तक 'डिलिवरी'
नहीं थी। दरअसल, वास्तविक सौर-चूल्हा भारी होता है और उसमें भारी काँच का इस्तेमाल
होता है, इसलिए शायद इसकी डिलिवरी सभी स्थानों पर सम्भव नहीं है।
हमने अभिमन्यु से कहा, उसने कोलकाता में इसे
मँगवाया और अभी कुछ दिनों पहले घर आते समय उसे ले आया। दिवाली का मौका था, इस
चूल्हे की पूजा भी हो गयी।
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परसों इसमें दाल और चावल दोनों पकने के लिए रखे
गये, नहीं पके। एक तो जाड़ा शुरू हो रहा है, इसलिए धूप कमजोर हो रही है और दूसरे
बादल के एक बहुत बड़े टुकड़े ने सूरज को घण्टों के लिए ढाँप लिया था। हालाँकि डिब्बे
काफी गर्म हो गये थे और गैस-चूल्हे पर कम समय में दोनों पक गये। खाते समय चावल में
वही स्वाद आया, जो पहली बार सौर-चूल्हे में पके चावल में आया था।
एक बार यह सोचा गया कि इस सौर-चूल्हे का
इस्तेमाल गर्मियों में किया जायेगा, तब तक के लिए इस रख दिया जाय, लेकिन बाद में
एक बार और आजमाने का फैसला किया गया।
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कल चावल-दाल को सुबह भिंगो दिया गया, उसके बाद
साढ़े नौ बजे करीब सौर-चूल्हे में रख दिया गया। आज बादलों ने सूरज को नहीं ढाँपा।
चार घण्टे बाद डिब्बों को निकाला गया- चावल थोड़ा ज्यादा पक गया था। इस बार दाल वाले
डिब्बे में आलू तथा तीसरे डिब्बे में टमाटर आदि भी रख दिये गये थे। वे भी पक गये
थे, उनका 'चोखा' बना लिया गया। दाल में छौंक लगायी गयी- बेशक, गैस चूल्हे की मदद
से। कल खाने में चावल के साथ-साथ दाल में भी अनोखा स्वाद पाया गया।
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आज थोड़े सुधार के साथ फिर सौर-चूल्हे का उपयोग
हुआ। इस बार सिर्फ दाल को सुबह भिंगोया गया, चावल को नहीं। इस बार चावल को काँच के
ढक्कन से ढँका गया, ताकि बाहर से नजर आ जाय कि चावल पक गये हैं या नहीं (पानी का
खत्म हो जाना)। आज चावल दो घण्टे में ही पक गये- उसे निकाल लिया गया। टमाटर, आलू,
प्यांज, मिर्च भी निकाल लिये गये- वे भी पक गये थे। सिर्फ दाल को रहने दिया गया।
दाल को खाना खाने का समय होने पर डेढ़ बजे निकाला गया- यानि चार घण्टों बाद। अब दाल
भी पक गयी थे, बस रसोई में ले जाकर उसमें छौंक लगायी गयी।
कुल-मिलाकर प्रयोग और उपयोग सफल रहे। "गैस
की बचत" अपनी जगह है- हम इसे तीसरे स्थान पर रखना चाहेंगे। पहले स्थान पर हम
"स्वाद" को रखेंगे- सौर-चूल्हे में पके खानों का स्वाद लाजवाब लग रहा है
हमें; दूसरे स्थान पर हम "पौष्टिकता" को रखेंगे- सौर-चूल्हे में पके
अनाजों की पौष्टिकता शत-प्रतिशत बरकरार रहती होगी- ऐसा हमें लगता है।
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यह पोस्ट बस मेरा अनुभव है- हम किसी को सलाह
नहीं देना चाहेंगे कि वे इसे आजमायें। सबका अनुभव एक-जैसा नहीं होता। फिर भी, अगर
कोई सौर-चूल्हे को आजमाना चाहें, तो हम यहाँ कुछ लिंक दे रहे हैं- यहाँ जाकर आप
सौर-चूल्हे से सम्बन्धित सारी बातें समझ सकते हैं-
पहला लिंक: नाम
मात्र के खर्च पर खुद सौर-चूल्हा बनाने का तरीका (हमने "काले" कागज के
स्थान पर कार्टन के अन्दर अल्युमिनियम फॉयल का इस्तेमाल किया था)। यह लिंक wikihow का है, जहाँ दी गयी जानकारियाँ प्रामाणिक होती
हैं।
दूसरा
लिंक: अगर आप "तकनीकी" योग्यता रखते हैं और अधिक खर्च करने के लिए
राजी हैं, तो थोड़ी मेहनत से अपने लिए लाजवाब डिजाइन का सौर-चूल्हा बना सकते हैं।
यह विडियो हमें युट्युब पर मिला।
तीसरा
लिंक: राजस्थान की एक श्रीमती अनुपमा शर्मा युट्युब पर "Solar Life"
नाम से एक चैनल चलाती
हैं, जिसमें वे सोलर-कूकर पर जानकारी दे रही हैं।
साथ ही, सौर चूल्हे में विभिन्न प्रकार के भोजन
पकाने के तरीकों के बारे में भी विस्तार से बता रही हैं। उनके चैनल का लिंक यहाँ है।
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अब बात दो सावधानियों की।
एक- कुछ घण्टों में सौर-चूल्हे में रखे डिब्बे
बहुत गर्म हो जाते हैं, सौर-चूल्हे का शीशा भी गर्म हो जाता है। बेहतर होगा कि
डिब्बों को निकालते समय मोटे, ऊनी दस्ताने पहन लिये जायं। वैसे, श्रीमती शर्मा ने
एक खास प्रकार का दस्ताना ईजाद कर रखा है, उनके विडियो में इसे देखा जा सकता है।
दो- डिब्बों को ढकने के लिए अगर काँच का ढक्कन इस्तेमाल करने जा रहे हैं
और उसमें प्लास्टिक का "नॉब" (पकड़ कर उठाने के लिए) लगा है, तो यह
प्लास्टिक करीब-करीब पिघल जायेगा।
(एक फोटो में देख सकते हैं- हमने काँच वाले
ढक्कन में नट-बोल्ट का नॉब लगा रखा है- महीने भर पहले, पहले प्रयास के दौरान ही
प्लास्टिक का नॉब पिघल-सा गया था।)
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