सोमवार, 13 नवंबर 2017

190. 'भुवन सोम' के अनुवाद की भूमिका





एक जमाने में सकरीगलीएक प्रसिद्ध जहाज घाटहुआ करता था। यहाँ जहाजकहा जा रहा है स्टीमर को। दूर-दराज से यात्रीगण रेल द्वारा सकरीगली स्टेशन तक आते थे, ‘घाट गाड़ी’ (स्टेशन और गंगाघाट के बीच चलने वाली ट्रेन) से घाट तक जाते थे और फिर यहाँ से स्टीमर में बैठकर या तो बहाव के साथ चलते हुए कोलकाता की ओर; या फिर, धारा के विरुद्ध चलते हुए मनिहारी घाट की की ओर यात्रा किया करते थे- मनिहारी से पूर्णिया-कटिहार की ओर जाया जाता था। तब रेलवे ईस्ट इण्डिया कम्पनीकी हुआ करती थी और स्टीमर भी रेलवे के ही चलते थे।
       प्रस्तुत कहानी 1950 के दशक की है, तो जाहिर है कि उस समय तक सकरीगली और कोलकाता के बीच स्टीमरों का परिचालन जारी था और सकरीगली का जलवा बरकरार था।
       (हालाँकि कहानी में स्पष्ट तौर पर सकरीगलीका जिक्र नहीं है और सखीचाँद के सवाल के उत्तर में  अनिल बता रहे हैं कि भुवन सोम साहेबगंजसे आ रहे हैं; मगर मुझे लगता है कि कहीं कुछ गलती हो गयी है। मेरे अनुसार, कहानी सकरीगली घाट से ही शुरु हो रही है और भुवन सोम कोलकाता से आ रहे हैं- तभी तो अनिल स्टीमर का संकेत देखने के लिए पूरब की ओर देखते हैं।)
बाद के दिनों में रेलवे के स्थान पर बच्चा बाबूके स्टीमर चलने लगे और सकरीगली के स्थान पर साहेबगंज से स्टीमरों का परिचालन होने लगा। आज सकरीगली एक छोटा-सा स्टेशन है- वीरान-सा। अब शायद ही कोई यकीन करे कि इस स्टेशन पर कभी काफी चहल-पहल रहा करती थी!
साहेबगंज और मनिहारी के बीच स्टीमरों का परिचालन आज भी जारी है। स्थानीय बोल-चाल में इन स्टीमरों को लॉन्चभी कहते हैं। मनिहारी घाट पर उतरकर यात्रीगण कटिहार, पूर्णिया, अररिया, फारबिसगंज इत्यादि शहरों की ओर चल पड़ते हैं। प्रसंगवश, बता दूँ कि फारबिसगंज ही रेणुकी भूमि है, यानि कि मैला आँचल’!  
दोनों घाटों के बीच गंगा में छोटे-बड़े बहुत-से रेतीले टीले हैं, जिन्हें स्थानीय बोलचाल में दियाराकहा जाता है- बँगला में चर। इन रेतीले टीलों का भौगालिक आकार-प्रकार बदलते रहता है, मगर इनका उपजाऊपन बना रहता है और इसी कारण बहुत सारी मुश्किलों के बावजूद इनपर बस्तियाँ बसते रहती हैं। कुछ दियारा तो बहुत ही विशाल हैं।
       बनफूलका जन्मस्थान एवं पैतृक आवास मनिहारी में था और वे स्वयं भागलपुर में बस गये थे। जाहिर है कि वे भागलपुर से ट्रेन से सकरीगली आते थे और सकरीगली से स्टीमर में बैठकर मनिहारी तक जाना-आना करते थे।
दूसरी बात, ‘डाना’ (‘डानायानि डैनायानि पंख- यह वृहत् रचना तीन खण्डों में है, जिन्हें उन्होंने 1948, 1950 तथा 1955 में पूरा किया था।) उपन्यास की रचना के समय उन्होंने बाकायदे दूरबीन लेकर पक्षियों का अध्ययन किया था, तो जाहिर है कि इसके लिए इन दियारों का भी उन्होंने काफी भ्रमण किया होगा। ऐसे में, दियारा की पृष्ठभूमि पर उनके द्वारा एक लघु उपन्यास की रचना करना एक स्वाभाविक बात है। यह भुवन सोमवही उपन्यास है- जिसे उन्होंने 1955-56 में प्रकाशित किया। उपन्यास में साहेबगंज के साथ-साथ पाकुड़, बरहरवा, राजमहल, जमालपुर, कटिहार, रामपुरहाट का भी जिक्र आ गया है। मैं चूँकि स्वयं बरहरवा का वासी हूँ, इसलिए मेरे द्वारा अनुवाद के लिए बनफूलके 60 उपन्यासों में से सबसे पहले इसे चुनना स्वाभाविक बात है।
हालाँकि इस उपन्यास के प्रति मेरे मन में रूचि श्री मानवेन्द्र जी के कारण पैदा हुई। सोशल मीडिया फेसबुकपर उन्होंने मुझे सूचित किया था कि वे हिन्दी समानान्तर सिनेमा तथा साहित्य के बीच सम्बन्धों पर शोध कर रहे हैं और इस क्रम में उन्हें भुवन सोमका भी जिक्र करना है, मगर इसका हिन्दी अनुवाद उन्हें कहीं मिल नहीं रहा है। मैंने भी नेट पर खोजा, पर सफलता नहीं मिली। तो मैंने मूल बँगला पुस्तक मँगवा ली कि (उपन्यासों के) अनुवाद की शुरूआत इसी से सही!
यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि मृणाल सेन ने 1969 में इस उपन्यास पर जो हिन्दी फिल्म (भुवन सोमनाम से ही) बनायी थी, उसे समानान्तर सिनेमा की दुनिया में मील का एक पत्थर माना जाता है। फिल्म में मुख्य भूमिका- यानि भुवन सोम का किरदार- उत्पल दत्त ने निभायी थी, स्त्री चरित्र (दियारा की चुलबुली लड़की- गौरी) की भूमिका निभायी थी सुहासिनी मूले ने और सूत्रधार की भूमिका में थे अमिताभ बच्चन। (फिल्म की कहानी की भूमिका बाँधने तथा उपसंहार करने के लिए अमिताभ बच्चन की आवाजका इस्तेमाल हुआ है।) फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक (मृणाल सेन) तथा सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (उत्पल दत्त) के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले थे।
लगे हाथ, इस फिल्म पर भी दो शब्द कह दिया जाय। फिल्म को राजस्थान के रेतीले टीलों की पृष्ठभूमि में तथा राजस्थानी गाँवों की संस्कृति के रंग में फिल्माया गया है। मृणाल सेन साहब ने यह बदलाव क्यों किया, पता नहीं। क्या साहेबगंज की गंगा के रेतीले दियारोंके बीच दियारा-बस्तियों की संस्कृति के रंग में फिल्मांकन करना असम्भव था?
खैर। बनफूलकी दर्जनों कहानियों का मैंने अनुवाद कर रखा है, मगर उपन्यास के अनुवाद का यह मेरा पहला प्रयास है। आशा है, आपको अच्छा लगेगा।
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एक और बात, जिसे बताने से मैं स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूँ, वह यह है कि आवरण पर जिस छाायाचित्र का प्रयोग हुआ है, वह वाकई सकरीगली के पास गंगा की धार की है। धार में एक छोटी नाव दिखायी दे रही है, जो कुछ लोगों को उस पार दियारातक ले जा रही है। मैंने यह तस्वीर स्टीमर से ही ली है। मैं मनिहारी से साहेबगंज आ रहा था, गंगा में पानी कम होने के कारण स्टीमर सीधे साहेबगंज न आकर दियारा का चक्कर लगाकर सकरीगली होते हुए साहेबगंज आ रहा था।
तस्वीर में उड़ते पंछियों को भी दिखाया गया है- इसे एक दूसरी तस्वीर से काटकर लिया गया है। उड़ते पंछियों वाली दूसरी तस्वीर मैंने तालझारी स्टेशन के पास खींची थी, ट्रेन से।
-जयदीप शेखर, 10 जुलाई 2017, बरहरवा.
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मेरी वेबसाइट "जगप्रभा" पर इसका लिंक- http://jagprabha.in/product/bhuwan-som/


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रविवार, 12 नवंबर 2017

189. 'कोकी बूढ़ी'





       तस्वीर में जो वृद्ध महिला दिख रही हैं, उसे हमारे परिवार तथा आस-पास की रिश्तेदारी में "कोकी बूढ़ी" कहते हैं। इनका असली नाम हम नहीं जानते हैं।
बरहरवा जंक्श्न से जो रेल लाईन फरक्का की ओर जाती है, उधर ही कहीं 'करला' (बँगला उच्चारण- कोरला) नामक छोटा-सा गाँव है, वहीं की रहने वाली है।
       बीच-बीच में हमारे घर आती है, कभी-कभी दो-एक दिन ठहर भी जाती है। अनुमान है कि प्रखण्ड कार्यालय में जब वृद्धा पेन्शन सम्बन्धित कोई काम रहता होगा, तभी उसका यहाँ आना होता होगा। बीच-बीच में कोटालपोखर में जाती है, जहाँ मेरे चचेरे भाईयों का निवास है- दरअसल, यहाँ मेरे दादाजी के भाई बसे थे।
       यह वृद्धा गरीब है, इसमें कोई शक नहीं है, मगर हमेशा साफ-सुथरे कपड़े पहनती है, जो यह दर्शाता है कि यह एक सुसंस्कृत परिवार से है।
       अब तो खैर जमाना बदल गया है। एक जमाना था, जब ये कभी खाली हाथ हमारे घर नहीं आती थीं- बिस्कुट का पैकेट लेकर ही आती थीं। तब हम भी बच्चे ही हुआ करते थे।
       इनकी त्रासदी यह है कि इनके बेटे-बहू इन्हें परेशान करते हैं। इतने भले, इतने निश्छ्ल लोगों के साथ ऐसा क्यों होता है, यह आज तक हम समझ नहीं पाये हैं।
       इतना तो हम सब जानते थे कि इनका हमारे परिवार से रिश्ता है, मगर क्या रिश्ता है, इसे बचपन में हमने जानने की कोशिश नहीं की थी। बड़े होने के बाद पिताजी से इस बारे में पूछा था। पिताजी ने हँसते हुए बताया था कि ये उनकी (पिताजी की) फुफेरी बहन लगती हैं। और भी बहुत कुछ बताया था, जिन्हें हम फिर भूल गये हैं।
       कई साल पहले हमने इनकी तस्वीर खींची थी, कि कभी अपने ब्लॉग में इनका जिक्र करेंगे, पर कभी ऐसा नहीं हो पाया। आज अभी देखा- वे आयी हुई हैं। आज बिना टाल-मटोल किये उनपर लिख ही दिया।
       अन्त में, सबसे महत्वपूर्ण बात, जिसके लिए हम उन पर लिखना चाहते थे- इनको सबसे बातचीत करने का बहुत शौक है, मगर ऊपरवाले ने इन्हें आवाज नहीं दी है! ये गूँगी हैं। इनकी ज्यादातर बातों (आवाज) और ईशारों को कोई नहीं समझता, मगर उसकी परवाह किये बिना ये हमेशा सबके साथ कुछ बोलते रहती हैं। सुनने वाला भी मुस्कुराते हुए हाँ-हूँ करते रहता है। थोड़ी बहुत इनकी बातचीत मेरी माँ और मेरी चाचीजी समझ जाती हैं। कोटालपोखर वाली बड़ी माँ भी काफी कुछ समझती होंगी।
       ऐसे निश्छल लोगों को देख कर मन भर आता है, मगर साथ ही, ऊपर वाले के "निराले" खेल के बारे में भी सोचना पड़ता है कि जिसे बातें करने बहुत शौक दिया है उसने, उसे "आवाज' देना वह कैसे भूल गया?
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