एक जमाने में ‘सकरीगली’ एक प्रसिद्ध ‘जहाज घाट’
हुआ करता था। यहाँ ‘जहाज’ कहा जा रहा है स्टीमर को।
दूर-दराज से यात्रीगण रेल द्वारा सकरीगली स्टेशन तक आते थे,
‘घाट गाड़ी’
(स्टेशन और गंगाघाट के
बीच चलने वाली ट्रेन) से घाट तक जाते थे और फिर यहाँ से स्टीमर में बैठकर या तो
बहाव के साथ चलते हुए कोलकाता की ओर; या फिर, धारा के विरुद्ध चलते हुए
मनिहारी घाट की की ओर यात्रा किया करते थे- मनिहारी से पूर्णिया-कटिहार की ओर जाया
जाता था। तब रेलवे ‘ईस्ट
इण्डिया कम्पनी’ की हुआ करती थी और स्टीमर भी रेलवे के ही चलते थे।
प्रस्तुत कहानी 1950 के दशक की है, तो जाहिर है कि उस समय तक
सकरीगली और कोलकाता के बीच स्टीमरों का परिचालन जारी था और सकरीगली का जलवा बरकरार
था।
(हालाँकि कहानी में स्पष्ट तौर पर ‘सकरीगली’ का जिक्र नहीं है और सखीचाँद के
सवाल के उत्तर में अनिल बता रहे हैं कि
भुवन सोम ‘साहेबगंज’
से आ रहे हैं;
मगर मुझे लगता है कि
कहीं कुछ गलती हो गयी है। मेरे अनुसार, कहानी सकरीगली घाट से ही शुरु हो
रही है और भुवन सोम कोलकाता से आ रहे हैं- तभी तो अनिल स्टीमर का संकेत देखने के
लिए पूरब की ओर देखते हैं।)
बाद के दिनों में रेलवे के स्थान
पर ‘बच्चा बाबू’
के स्टीमर चलने लगे और
सकरीगली के स्थान पर साहेबगंज से स्टीमरों का परिचालन होने लगा। आज सकरीगली एक
छोटा-सा स्टेशन है- वीरान-सा। अब शायद ही कोई यकीन करे कि इस स्टेशन पर कभी काफी
चहल-पहल रहा करती थी!
साहेबगंज और मनिहारी के बीच
स्टीमरों का परिचालन आज भी जारी है। स्थानीय बोल-चाल में इन स्टीमरों को ‘लॉन्च’ भी कहते हैं। मनिहारी घाट पर
उतरकर यात्रीगण कटिहार, पूर्णिया,
अररिया,
फारबिसगंज इत्यादि शहरों
की ओर चल पड़ते हैं। प्रसंगवश, बता दूँ कि फारबिसगंज ही ‘रेणु’ की भूमि है,
यानि कि ‘मैला आँचल’!
दोनों घाटों के बीच गंगा में
छोटे-बड़े बहुत-से रेतीले टीले हैं, जिन्हें स्थानीय बोलचाल में ‘दियारा’ कहा जाता है- बँगला में ‘चर’। इन रेतीले टीलों का भौगालिक
आकार-प्रकार बदलते रहता है, मगर इनका उपजाऊपन बना रहता है और
इसी कारण बहुत सारी मुश्किलों के बावजूद इनपर बस्तियाँ बसते रहती हैं। कुछ दियारा
तो बहुत ही विशाल हैं।
”बनफूल“
का जन्मस्थान एवं पैतृक
आवास मनिहारी में था और वे स्वयं भागलपुर में बस गये थे। जाहिर है कि वे भागलपुर
से ट्रेन से सकरीगली आते थे और सकरीगली से स्टीमर में बैठकर मनिहारी तक जाना-आना
करते थे।
दूसरी बात,
‘डाना’
(‘डाना’
यानि ‘डैना’ यानि पंख- यह वृहत् रचना तीन
खण्डों में है, जिन्हें उन्होंने 1948, 1950 तथा 1955 में पूरा किया
था।) उपन्यास की रचना के समय उन्होंने बाकायदे दूरबीन लेकर पक्षियों का अध्ययन
किया था, तो जाहिर है कि इसके लिए इन दियारों का भी उन्होंने काफी भ्रमण
किया होगा। ऐसे में, दियारा की पृष्ठभूमि पर उनके द्वारा एक लघु उपन्यास की रचना करना
एक स्वाभाविक बात है। यह ‘भुवन सोम’
वही उपन्यास है- जिसे
उन्होंने 1955-56 में प्रकाशित किया। उपन्यास में साहेबगंज के साथ-साथ पाकुड़,
बरहरवा,
राजमहल,
जमालपुर,
कटिहार,
रामपुरहाट का भी जिक्र आ
गया है। मैं चूँकि स्वयं बरहरवा का वासी हूँ, इसलिए मेरे द्वारा अनुवाद के लिए
”बनफूल“
के 60 उपन्यासों में से
सबसे पहले इसे चुनना स्वाभाविक बात है।
हालाँकि इस उपन्यास के प्रति
मेरे मन में रूचि श्री मानवेन्द्र जी के कारण पैदा हुई। सोशल मीडिया ‘फेसबुक’ पर उन्होंने मुझे सूचित किया था
कि वे हिन्दी समानान्तर सिनेमा तथा साहित्य के बीच सम्बन्धों पर शोध कर रहे हैं और
इस क्रम में उन्हें ‘भुवन
सोम’ का भी जिक्र करना है,
मगर इसका हिन्दी अनुवाद
उन्हें कहीं मिल नहीं रहा है। मैंने भी नेट पर खोजा, पर सफलता नहीं मिली। तो मैंने
मूल बँगला पुस्तक मँगवा ली कि (उपन्यासों के) अनुवाद की शुरूआत इसी से सही!
यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि
मृणाल सेन ने 1969 में इस उपन्यास पर जो हिन्दी फिल्म (‘भुवन सोम’
नाम से ही) बनायी थी,
उसे समानान्तर सिनेमा की
दुनिया में मील का एक पत्थर माना जाता है। फिल्म में मुख्य भूमिका- यानि भुवन सोम
का किरदार- उत्पल दत्त ने निभायी थी, स्त्री चरित्र (दियारा की
चुलबुली लड़की- गौरी) की भूमिका निभायी थी सुहासिनी मूले ने और सूत्रधार की भूमिका
में थे अमिताभ बच्चन। (फिल्म की कहानी की भूमिका बाँधने तथा उपसंहार करने के लिए
अमिताभ बच्चन की ‘आवाज’
का इस्तेमाल हुआ है।)
फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक (मृणाल
सेन) तथा सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (उत्पल दत्त) के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले थे।
लगे हाथ, इस फिल्म पर भी दो शब्द कह दिया
जाय। फिल्म को राजस्थान के रेतीले टीलों की पृष्ठभूमि में तथा राजस्थानी गाँवों की
संस्कृति के रंग में फिल्माया गया है। मृणाल सेन साहब ने यह बदलाव क्यों किया,
पता नहीं। क्या साहेबगंज
की गंगा के रेतीले ‘दियारों’
के बीच दियारा-बस्तियों
की संस्कृति के रंग में फिल्मांकन करना असम्भव था?
खैर। ”बनफूल“ की दर्जनों कहानियों का मैंने
अनुवाद कर रखा है, मगर उपन्यास के अनुवाद का यह मेरा पहला प्रयास है। आशा है,
आपको अच्छा लगेगा।
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एक और बात,
जिसे बताने से मैं स्वयं
को रोक नहीं पा रहा हूँ, वह यह है कि आवरण पर जिस छाायाचित्र
का प्रयोग हुआ है, वह वाकई सकरीगली के पास गंगा की धार की है। धार में एक छोटी नाव
दिखायी दे रही है, जो कुछ लोगों को उस पार ‘दियारा’ तक ले जा रही है। मैंने यह
तस्वीर स्टीमर से ही ली है। मैं मनिहारी से साहेबगंज आ रहा था,
गंगा में पानी कम होने
के कारण स्टीमर सीधे साहेबगंज न आकर दियारा का चक्कर लगाकर सकरीगली होते हुए
साहेबगंज आ रहा था।
तस्वीर में उड़ते पंछियों को भी
दिखाया गया है- इसे एक दूसरी तस्वीर से काटकर लिया गया है। उड़ते पंछियों वाली
दूसरी तस्वीर मैंने तालझारी स्टेशन के पास खींची थी, ट्रेन से।
-जयदीप शेखर, 10 जुलाई 2017,
बरहरवा.
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मेरी वेबसाइट
"जगप्रभा" पर इसका लिंक- http://jagprabha.in/product/bhuwan-som/
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