रविवार, 6 अक्टूबर 2013

गाँधीजी के बहाने...


  


       बहुत दिनों पहले मैंने कहीं पढ़ा था कि एक अमेरिकी न्यायाधीश ने एक बिगड़ैल किशोर को सजा दी थी कि वह महात्मा गाँधी की "आत्मकथा" को पढ़े। बेशक, इस सजा का उद्देश्य था- उस किशोर को चरित्रवान, सत्यवान और अहिंसक बनाना मेरा बेटा बिगड़ैल तो नहीं है, मगर "किशोर" है। मैं चाहूँगा कि वह भी गाँधीजी की आत्मकथा को पढ़े। सिर्फ गाँधीजी ही क्यों, अन्यान्य महापुरुषों की आत्मकथा को भी पढ़े। मैंने खुद अपनी किशोरावस्था में इस पुस्तक को पढ़ा था- वह भी चाव से, मन मारकर नहीं। इस बार शायद फर्क पड़े और अभिमन्यु मन मारकर इसे पढ़े- देखता हूँ... ।
       बचपन में गत्ते की जिल्द वाली एक रंगीन चित्रकथा- शायद "गाँधीकथा" नाम था- भी हमारे घर में हुआ करती थी, जिसे पता नहीं कितनी बार मैंने पढ़ा होगा!
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       एक संयोग देखिये, 2008 में साक्षात्कार में मुझसे पूछा भी गया था कि क्या गाँधीजी ने कोई आत्मकथा लिखी है? चूँकि मैंने इसे पढ़ा था, इसलिए मेरा उत्तर था- जी हाँ। पूछे जाने पर मैंने नाम भी बता दिया- "सत्य के साथ मेरे प्रयोग"- "My Experiments with Truth" ('मेरे'/'My' पर मुझे सन्देह था, अब लग रहा है कि यह शब्द नहीं जुड़ेगा)। पूछे जाने पर मैंने यह भी बताया कि मैंने इसे पढ़ा है।
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       लगे हाथ एक और पुस्तक का जिक्र । "गिरमिटिया गाँधी" पढ़ने योग्य पुस्तक है। यह गाँधीजी की दक्षिण अफ्रिका प्रवास पर रोचक शैली में लिखी गयी रचना है। यह संक्षिप्त रुपान्तरण है; मूल वृहत् पुस्तक है- "पहला गिरमिटिया"; लेखक हैं- गिरिराज किशोर।  जिस प्रकार शोध करके उन्होंने इस पुस्तक को लिखा है, वैसी प्रवृति भारत में आम तौर पर नहीं पायी जाती।
मैंने "गिरमिटिया गाँधी" पढ़ी है- मगर अभी उसे 'गूगल' पर नहीं खोज पाया, सो "पहला गिरमिटिया" पुस्तक का लिंक दे रहा हूँ-
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       "हिन्द स्वराज" का जिक्र अक्सर सुनता हूँ, मगर कभी पढ़ने का मन नहीं किया। बीते दो अक्तूबर को गाँधीवादी विचारक राजीव वोरा का एक लेख 'प्रभात खबर' में पढ़ा- "आज के युग में हिन्द स्वराज क्यों", उसमें 'हिन्द स्वराज' की प्रशंसा की गयी थी। इस बार सोचा इसे पढ़ कर देख ही लिया जाय कि आखिर इसमें है क्या! कल रात भागलपुर से गुजरते वक्त स्टेशन पर इसे खरीदा। पढ़ना शुरु भी कर दिया है।
       एक दूसरी बात। राजीव वोरा जी के उक्त आलेख में पूँजीवाद व समाज/साम्यवाद की व्याख्या एक ही पंक्ति में इतने सुन्दर ढंग से की गयी है कि मुझे आश्चर्य हुआ। देखिये-  
"आधुनिक सभ्यता की एक संतान पूंजीवाद ने व्यक्ति की स्वाधीनता के नाम पर न्याय की हत्या की, तो दूसरे (यानि साम्य/समाजवाद) ने न्याय की स्थापना के नाम पर मनुष्य की स्वाधीनता को ही दमित कर दिया."   
        इससे पहले की पंक्ति है:
"एक ओर सरासर अनीति और कमजोर के शोषण पर आधारित भोगप्रधान जीवन दृष्टि देनेवाला पूंजीवादी विचार है, जो व्यक्ति-स्वातंत्र्य के सपने और वादे के जोर पर टिका हुआ है, तो उसी पूंजीवाद की ही माता की कोख से ही और उसी के विरोध में पैदा हुआ समाजवादी-साम्यवादी विचार है, जो जीवन में समता और न्याय के लिए खड़ा हुआ, किंतु न्याय-स्थापना द्वेष आधारित रही- साम्यवाद ने मनुष्य की स्वाधीनता का ही हरण कर लिया."
       इससे पहले वे लिखते हैं:
"जो केवल बुद्धिवाद से प्रेरित हैं, उनके लिए पूंजीवाद से लेकर साम्यवाद तक की बहुत सारी विचारधाराएं और जीवन दृष्टियां हैं, दूसरी ओर जो कोरी रूढ. आस्था और भावना से उन्माद में आकर चलते हैं उन्हें पकड.नेवाले विचारवाद और विभित्र प्रकार के आंदोलन भी हैं, लेकिन संपूर्ण जीवन अर्थात् जीवन के आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में न्याय और नैतिकता की स्थापना करने का न तो इनमें आंतरिक सार्मथ्य है, न सार्मथ्य का कोईप्रमाण.
...और इस प्रकार, वे 'हिन्द स्वराज' की उपयोगिता को आज के सन्दर्भ में स्थापित करते हैं।
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       प्रसंगवश, इसी अखबार में "किसी को भी सन्त क्यों कहें" शीर्षक से गाँधीजी के विचार भी ('बोधि वृक्ष' स्तम्भ के अन्तर्गत) प्रकाशित हैं, जिसकी अन्तिम दो पंक्तियाँ हैं: "मैं अपने देश या अपने धर्म तक के उद्धार के लिए सत्य और अहिंसा की बलि नहीं दूँगा। वैसे, इनकी बलि देकर देश या धर्म का उद्धार किया भी नहीं जा सकता।"
       इसके मुकाबले नेताजी का विचार था- "देश को आजाद कराने के लिए अगर शैतान से भी हाथ मिलाना पड़े, तो वे मिलायेंगे!" हालाँकि उसवक्त नेताजी की स्थिति ही ऐसी हो गयी थी कि "नात्सीवाद" और "फासीवाद" को नापसन्द करने के बावजूद उन्हें हिटलर-मुसोलिनी से हाथ मिलाना पड़ा। स्तालिन ने उन्हें सैन्य सहयोग देने में असमर्थता जाहिर कर दी थी और हिटलर से मदद लेने का सलाह दिया था। नेताजी कहीं और जा नहीं सकते थे क्योंकि अँग्रेज जासूस उनकी हत्या की ताक में लगे हुए थे।
स्पष्ट है कि गाँधीजी अपने सिद्धान्तों को देश और धर्म से ऊपर मानते थे और इस "हिंसा" के कारण ही उन्होंने असहयोग आन्दोलन (1922) को वापस लिया- जबकि अँग्रेज घुटने टेकने वाले थे; तथा नेताजी के युद्ध (1944) के दौरान जनता को आन्दोलित होने के लिए प्रेरित नहीं किया।
हालाँकि इनका नतीजा बहुत ही बुरा हुआ- अँग्रेजी राज ही कायम रह गया- सिर्फ चेहरे बदल गये!
दूसरी तरफ नेताजी के लिए देश ही उनका सबकुछ था।
नेताजी की भावनाओं से कुछ हद तक मैं वाकिफ हो गया हूँ, अब सोच रहा हूँ, गाँधीजी के भी मनोभावों को समझा जाय।
क्योंकि देश की खुशहाली मेरा "साध्य" है और इसे हासिल करने के लिए "साधन" क्या चुना जाय, इसपर मुझे मन्थन करना है! 
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अन्त में, एक हल्की-फुल्की बात: साढ़े चार सौ पेज वाली "आत्मकथा" (नवजीवन) का मूल्य सिर्फ 40/- रुपये और मात्र 80 पेज वाली "हिन्द स्वराज" (शिक्षा भारती) का मूल्य 60/- रुपये! यह तो ना-इन्साफी है!  
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