जगप्रभा

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रविवार, 8 सितंबर 2013

71. "मोती झरना" का एक पुराना दृश्य



मैं बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कि "कजंगल" नाम से एक ब्लॉग या/और फेसबुक पेज की शुरुआत करूँ- यह हमारे इलाके का प्राचीन नाम है, मगर दिमाग अब तक ठीक से "पटकथा" नहीं बना पाया है कि यह क्या होगा, कैसा होगा, इत्यादि.
*** 
इधर-उधर 'सर्फ' करते हुए एक पुरानी पेण्टिंग दिखी- "मोती झरना" की. मोती-झरना की यात्रा की चित्रकथा को मैंने पिछले महीने ही प्रस्तुत किया था. चित्र का पीछा करते हुए मैं "कजंगला" नाम के ब्लॉग तक पहुँचा, जिसके रचयिता हैं- संजय पाण्डेय. उन्होंने 'राजमहल की पहाड़ियों' पर कविता भी लिखी है. कविता इस प्रकार है: 

राजमहल की पहाड़ी:भूगोल से इतिहास के पन्नो पर !

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कल इतिहास के पन्ने पलटते पलटते
किसी चिर-परिचित चेहरे पे नज़र ठिठकी,
कुछ देर निःस्तब्ध हम दोनों
एक दुसरे को देखते रहे लगाये टकटकी;
और फिर संकोच की सीमा लांघकर
उस धर-विहीन सर ने पूछ ही डाला 
'क्यों पहचाना नहीं क्या,
मैं वही हूँ राजमहल की पहाड़ी 
जिसका तुमलोगों ने गला घोंट डाला' 
मैं उत्कंठा में पूछ बैठा: पर
तुम तो भूगोल के किताबों में मिलती थी,
तुम्हे इतिहास की बेजान पड़े पन्नो में किया किसने दफ़न?
कभी उसके सर से निस्सृत झरना,
उसके आँखों से झरने लगा 
मुगलकाल से उसके गोद पे बैठे तेलियागढ़ी के किले ने 
अपने टूटे हांथों में तौलीया ले सुबकती सहेली का टेसू पोछा 
 और मुझपर बरस पड़ा: 'तुम उत्श्रींखल मानवों ने देखो कैसे इस 
विशाल पर्वत श्रंखला को सपरिवार इहलोक से परलोक पंहुचाया,
पहले पहाड़ की रानी की हरित केशराशियाँ 
तुमने कुछ स्वर्ण राशियों के लालच में मुढवाये,
और फिर पर्वत सुंदरी के संतानों से ही 
उसके सिने पे सावल, गड़ासी चलवाए,
संतति के हाथों जननी के प्राण लिवाये,
फिर भी जब न भरा तुम्हारा जी,
तो अधमरी, सरकटी प्रकृति प्रहरी पर 
तुमने अनवरत बम वर्षण करवाए 
अब तो उसकी संतति, हड़प्पा संस्कृति के आखरी स्मृति,
पहाड़िया प्रजाति भी काल के गाल में जाती नज़र आती है,
और देखो तुम्हारी वेह्शियत खुद पे कैसे इतराती है 
शुक्र है तुमसा नाशुक्रा प्रजाति शंकर ने एक ही बनाया 
पले-बढे खेल के जिस छाती पर,
उसपे मुंग डालते हिचके न  छटाक भर,
खनन खुमारी मे जने कब् तुमने
काट दी मेरी चोटी, कब् रेत दी मेरी नलेटी,
अभी भी वक़्त शेष है, उठो जागो ए पाषाण-हृदयी इंसानों
पर्वत और जीवन के चिरकालिक प्रणय को पहचानो,
सभ्यता हमेशा मेरी उँगलियाँ पकड़ 
समय की पगडंडियों पे चलती रही है,
पर तुम्हारी ये पीढ़ी सफलता की सीढ़ी
चढ़ने की होड मे विनाश के राह चल पडी है
बस करो! बन्द करो अब प्रकृति कर चिरहरन,
भागवन के वस्ते रहने दो  बाकी है
जितन भी ज़िस्म पे हरित वसन


http://kajangala.blogspot.in/2011/11/blog-post.html 
*** 
बता दूँ कि ब्लॉग लेखक ने बाकायदे जिक्र कर रखा है कि इस चित्र का स्रोत कोलम्बिया विश्वविद्यालय है. 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 24 अक्टूबर 2015 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 24 अक्टूबर 2015 को लिंक की जाएगी ....
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    पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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