यहाँ
जो तस्वीरें प्रस्तुत की जा रही हैं, वे ठीक 7 साल पहले की हैं- यानि 20 मई 2006
की।
उस दिन मेरी माँ-पिताजी के विवाह की 51वीं वर्षगाँठ थी।
यूँ तो 50वीं सालगिरह को लोग
"स्वर्ण जयन्ती" या "गोल्डेन जुबली" के रुप में मनाते हैं,
मगर 2005 में हम भूल गये थे और दूसरी बात, तब मैं वायु सेना में था। (31 मई 2005
को मैं रिटायर हुआ- 20 वर्षों की सेवा के बाद- और तब 2006 में हमने इस वर्षगाँठ को
मनाने का फैसला लिया।)
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हमने "गायत्री
परिवार" वालों से घर में सिर्फ एक हवन कराने का अनुरोध किया था। उन्होंने
कारण पूछा, तो हमने वर्षगाँठ वाली बात बता दी। फिर क्या था, नियत तिथि को वे पूरी
ताम-झाम के साथ और बहुत सारे भक्तों-भक्तिनों के साथ हमारे घर पहुँच गये। बताया
गया- विवाह की सारी रस्मों को फिर से दुहराया जायेगा! यह तो हमने सोचा भी नहीं था-
हाँ, सुना जरूर था। हमारे बरहरवा में ऐसी कोई परम्परा भी नहीं थी।
खैर, अनुष्ठान के दौरान पिताजी
ने तो सामान्य होकर उन रिवाजों को दुहराया, मगर मेरी माँ का बुरा हाल था- लज्जा के
मारे! बार-बार वह अपने तकिया कलाम "धत्त" का प्रयोग कर रहीं थीं। वहाँ
उपस्थित अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं, पिताजी के परिचितों तथा हमलोगों के चेहरों पर तैर
रही थी- नैसर्गिक हँसी और मुस्कान।
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गायत्री परिवार की जो महिला
सदस्यायें थीं, वे राजमहल से आयी थीं। तीनपहाड़ स्टेशन पर ट्रेन बदलनी पड़ती है-
बरहरवा के लिए। वहाँ खाली समय में उनलोगों ने जानना चाहा कि बरहरवा में किसके घर
में आयोजन है? जैसे ही उन्होंने नाम सुना- डॉक्टर जे.सी. दास के घर में- वे चकित
रह गयीं! क्योंकि मेरी माँ राजमहल की ही हैं और बहुत-सी महिलायें अपनी
"प्रभा-दी" (मेरी माँ का नाम- प्रभावती) को जानती थीं। मुख्य पण्डित जी
स्थानीय नहीं थे (वे किसी सरकारी नौकरी में थे), इसलिए वे यह सब नहीं जानते थे।
हमने भी सिर्फ बरहरवा के गायत्री परिवार वालों से सम्पर्क किया था- हमें नहीं पता
था कि राजमहल से काफी लोग आयेंगे।
अब घर आकर उन महिलाओं ने अपनी
"प्रभा-दी" से खूब ठिठोली की। यह भी ताना कसा कि मायके को ही खबर नहीं
दी? अब हमें अपनी गलती का अहसास हुआ। हमने जल्दी से वीणा मौसी और शेखर मामा जी को
फोन किया। मौसी तो नहीं आ सकीं, मामाजी आये- भले थोड़ी देर से।
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हमारी छोटी दीदी चूँकि फरक्का
में रहती हैं, इसलिए उन्हें तो बुला लिया गया था, मगर अररिया में बड़ी दीदी को खबर
नहीं दी गयी थी। इसी प्रकार, बुआओं को भी खबर नहीं थी। इसका अफसोस तो हमें हुआ,
मगर क्या करें- हमें भी नहीं पता था कि यह अनुष्ठान इतना विशेष हो जायेगा।
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उनदिनों मेरे चाचाजी बीमार चल
रहे थे। विवाह वाले अनुष्ठान सम्पन्न होने के बाद आँगन में सामूहिक हवन हुआ,
जिसमें मेरे चाचाजी के स्वास्थ्य की कामना के साथ भी आहुतियाँ डाली गयीं।
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अंशु (मेरी पत्नी) ने घर में
ही छोले-भटूरे, रायता और गुलाबजामुन का इन्तजाम कर रखा था। भाभी, आस-पास की कई
महिलाओं एवं युवतियों ने हाथ बँटाया और अनुष्ठान के बाद सबने तृप्त होकर भोजन किया।
आज हम सोचते हैं, तो आश्चर्य होता है कि उस दिन खाने का सामान घटा क्यों नहीं था?
इतने सारे लोगों का भोजन कैसे हो गया था?
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भोजन होने के बाद जब ज्यादातर
लोग विदा हो गये, घर तथा पड़ोस के सदस्य रह गये, तब दिगम्बर जेठू ने हमसबको आँगन
में बैठाया और कहा- माँ को बुलाओ। माँ सकुचाती हुई आकर एक कोने में बैठ गयीं। उसके
बाद जेठू बोले- जानते हो, तुम्हारे बाबा (बँगला में पिताजी) के साथ तुम्हारी माँ
को देखने कौन गया था? हम निरुत्तर थे।
(पिताजी के बाल्यकाल के बन्धु
थे- दिलीप काकू (काकू, बँगला में चाचा)। उन्हीं के बड़े भाई को हमलोग दिगम्बर जेठू
(जेठू, यानि ताऊ, बँगला में) कहते हैं।)
वे बोले- मैं ही गया था।
इसके बाद आधी सदी पहले के
सारे घटनाक्रमों का उन्होंने इतना पुंखानुपुंख और रोचक वर्णन किया कि हमारे तो बस
मुँह ही खुले रह गये थे। माँ के नैसर्गिक सौन्दर्य को देख उनका अभिभूत हो जाना...,
पिताजी का सिर झुकाकर बैठना..., एकबार भी नजर उठाकर माँ को न देखना..., न 'हाँ'
बोलना, न 'ना'..., सारे कच्चे चिट्ठे उन्होंने खोलकर रख दिये... और इस फ्लैशबैक
कहानी के दौरन माँ की अवस्था.... !
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1954 या 55
में जब पिताजी दिगम्बर जेठू के साथ माँ को देखने गये होंगे, तब माँ ऐसी दीखती थी-
पुनश्च:
10 साल बाद "हीरक जयन्ती" मनायी गयी थी, उसके पोस्ट का लिंक यहाँ है।
जिस साल (मई, 2016) हीरक जयन्ती मनी, उसी साल (छह महीने बाद) दिसम्बर में पिताजी का स्वर्गवास हुआ। उसपर भी मैंने कुछ लिखा था- यहाँ।