होली मनाने
अपने गाँव बरहरवा गया था।
'सम्मत' (होलिका-दहन) से एक रोज पहले मैं घर पहुँचा। दोस्तों से मिला। जयचाँद ने
कहा- चाँदनी रात है, कहीं चलेंगे; भाभीजी से कह दीजिये, रात करीब नौ बजे लौटेंगे।
(दरअसल, जयचाँद को पता है कि हमलोग रात का खाना साढ़े आठ बजे के लगभग खाते हैं और
इस मामले में अंशु सख्त है।) मैंने
पूछा- कहाँ चलना है? उसने कहा- "बरहरवा का स्वर्ग!" मैं समझा नहीं, और
मैंने समझना चाहा भी नहीं।
रात करीब आठ बजे जयचाँद का फोन आ गया कि
बाहर निकलिये- हम भी बाजार पहुँच रहे हैं। बाजार में मुझे मोटरसाइकिल पर बिठाकर वह
मेन रोड पर चल पड़ा। कस्बे से बाहर जहाँ सड़क पहाड़ी पर चढ़ती है, उसके कुछ पहले
दाहिनी ओर एक चर्च है, उसी के बगल से निकलकर हमने एक छोटे-मोटे जंगल में प्रवेश
किया। (कभी इस चर्च के बगल में विशाल "मिशन ग्राउण्ड" हुआ करता था- अब
उस पर कालोनी बस गयी है।) चाँदनी रोशनी में नहाया यह विरल जंगल वास्तव में सुन्दर
लग रहा था। फिर हम एक सन्थाली बस्ती से गुजरे और फिर अधबने नहर को हमने पार किया।
(करीब 40 साल पहले गुमानी नदी को गंगाजी से जोड़ने के लिए इस नहर का निर्माण शुरु
हुआ था, मगर तब से अबतक यह अधबना ही है!)
अब हम "राजमहल की पहाड़ियों" की
तलहटी में थे। कच्ची सड़क पर कुछ दूर चलने के बाद जयचाँद ने बाँयीं ओर एक टीले पर
मोटर साइकिल को चढ़ा दिया। टीले पर हम मोटरसाइकिल से उतरे। जयचाँद बोला- अब चारों
तरफ देखिये। प्रायः चारों तरफ पहाड़ियों से हम घिरे थे- सिर्फ एक कोना खाली था।
आस-पास छोटे-बड़े जंगल बिखरे पड़े थे और सबसे अद्भुत थी- इस निस्तब्ध चाँदनी रात में
चिड़ियों की अलग-अलग आवाजें! यही जयचाँद के शब्दों में "बरहरवा का
स्वर्ग" था। उसने कहा- कभी बरसात में यहाँ आईये, फिर देखिये जमीन पर हरियाली व
आकाश में काले बादलों का नजारा!
राजमहल की इन पहाड़ियों में मैं भटका तो हूँ,
मगर इस इलाके में पहली बार आया था और "चाँदनी रात" में पहाड़ी पर आने का
सपना भी बहुत दिनों बाद पूरा हुआ था!
ऐसा नहीं है कि हम बिलकुल
"प्राकृतिक" या "नैसर्गिक" वातावरण में थे। पश्चिम की पहाड़ियों
में जगह-जगह बिजली के बल्बों के समूह नजर आ रहे थे। कोई समझेगा, कालोनियाँ बसी हैं।
मगर हम जानते हैं कि वे पत्थर के खदान हैं, वहाँ भारी-भरकम "क्रैशर"
चलते हैं- रात और दिन! यहाँ से निकले "बोल्डर" और "चिप्स"
(कंक्रीट) दूर-दूर तक जाते हैं। ("पाकुड़ स्टोन" या "ब्लैक
स्टोन" का नाम शायद आपने भी सुना हो।) जयचाँद ने बताया कि अब तो सैकड़ों के.वी.
के जेनरेटर तथा विशालकाय जे.सी.बी. यहाँ चलते हैं। वास्तव में जेनरेटरों के मद्धम
आवाज हमें भी सुनायी पड़ रही थी। (वैसे, बिजली विभाग वालों की भी पर्याप्त मेहरबानी
इनपर रहती है!) पर चूँकि पंछियों का कलरव हमारे निकट था, इसलिए हम खुद को स्वर्ग
में ही महसूस कर रहे थे।
करीब आधा-पौन घण्टा हुआ होगा हमें गपशप करते
हुए कि स्वर्ग का नैसर्गिक वातावरण मशीन की गड़गड़ाहट से भंग हो गया। देखा- जिस सड़क
से हम आये थे, उसपर एक जे.सी.बी. कछुए की रफ्तार से चलता हुआ आ रहा है। यह
जे.सी.बी. उस किस्म का था, जिसके पहिए टैंक के पहियों-जैसे होते हैं। यह मिट्टी
खोदने के लिए पहाड़ की खड़ी चोटियों पर भी चढ़ जाता है। उसके पीछे दूसरा जे.सी.बी. भी
था। दोनों पहाड़ी की ओर बढ़ रहे थे।
लगता है, यहाँ के पंछियों को इन मशीनी
आवाजों की आदत पड़ चुकी है- वे पहले की तरह ही चहचहाने में व्यस्त रहे। करीब साढ़े
नौ बजे हम भी उठ खड़े हुए- स्वर्गलोक से मृत्युलोक में लौटने के लिए।
***
होली के बाद अररिया लौटने पर एक समाचार मिला
कि मध्य प्रदेश के मुरैना इलाके में खनन माफियायों ने एक पुलिस एस.पी. को ही ट्रैक्टर
से कुचलकर मार डाला! हमारे झारख़ण्ड के साहेबगंज और पाकुड़ जिलों में भी पत्थरों का
खनन होता है और वह भी खासे बड़े पैमाने पर। जंगलों की कटाई भी बेतहाशा हुई है। मगर "माफिया"
शब्द का इस्तेमाल यहाँ नहीं होता, या ऐसी कोई वारदात यहाँ नहीं हुई। शायद यहाँ खनन
कायदे से होता हो, या फिर, पुलिस-प्रशासन ने पत्थर-व्यवसायियों से हाथ मिला रखा हो।
एक और बात- सारे झारखण्ड में बस यही दो जिले बचे हैं, जो "नक्सलवाद" से
अछूते हैं।
मगर मैं सोचता हूँ, जिस रफ्तार से यह खनन व्यवसाय
फल-फूल रहा है, उसे देखते हुए "माफिया" या "नक्सलवाद" शब्द और
कितनी दूर रह गये होंगे हमसे....?
पुनश्च: बहुत बाद में पता चला कि जिस मशीन को हमने उस रात देखा था, उसे जे.सी.बी. नहीं, बल्कि 'पोकलेन' कहते हैं!
पुनश्च: बहुत बाद में पता चला कि जिस मशीन को हमने उस रात देखा था, उसे जे.सी.बी. नहीं, बल्कि 'पोकलेन' कहते हैं!
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - मेरा सामान मुझे लौटा दो - ब्लॉग बुलेटिन
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