रविकान्त और शशीकान्त दोनों भाई हैं। रविकान्त बरहरवा में ही रहकर अपना व्यवसाय करता है, जबकि शशीकान्त बैंक ऑव इण्डिया में है।
जब हम अरविन्द पाठशाला में पढ़ते थे, तब बिहार सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में किये गये कुछ “नवीण” प्रयोगों तथा उन्हें वापस लिये जाने के कारण दो कक्षायें मिलकर एक हो गयीं थीं, जिसके कारण रविकान्त और शशीकान्त एक ही कक्षा में आ गये और दोनों हमारे दोस्त बन गये।
2005 से 08 के बीच जब मैं बरहरवा में आजाद पंछी की तरह रह रहा था (वायु सेना से अवकाश लेने तथा स्टेट बैंक में शामिल होने के बीच का समय), तब मुन्शी पोखर की नुक्कड़ पर राजेश की चाय-दूकान और बिहारी की पान-दूकान के बीच जो बेंच पड़ी रहती है, वहाँ मैं सुबह-शाम कुछ देर के लिए जरूर पाया जाता था। वहीं रविकान्त (दोस्तों की जुबान में बोले तो- ‘रबिया’) से अक्सर मुलाकात होती थी।
आपबीती सुनाने का उसका अन्दाज इतना दिलचस्प है कि सुननेवाला घण्टों मंत्रमुग्ध होकर सुनता रह जाय। कई किस्से मैंने उसके मुँह से सुने। एक किस्से को मैंने लिख डाला। मैंने ‘उत्तम पुरूष’ में लिखा था- खुद को रविकान्त मानते हुए। उसे पढ़ाया। उसने सहमति दी और मैंने उसे “मन मयूर” के एक अंक में उसी के नाम से छाप दिया।
(उन दिनों डी.टी.पी. मेरा पेशा और त्रैमासिक पत्रिका (मन मयूर) निकालना मेरा नेशा (नशा का बँगला उच्चारण) हुआ करता था।)
तो उसी रचना को आज मैं आप के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ:-
बात कोई डेढ़ साल पहले की है। सोते समय मैं
अपना मोबाइल दो तकियों के बीच में रखता था। ‘ऑफ’ नहीं
करता था- कि क्या पता कब किसका इमर्जेंसी फोन आ जाय। ‘की-पैड’ भी
मैं लॉक नहीं रखता था- इस तरफ मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया था।
उस रात कोई
डेढ़-दो बजे किसी प्रकार से मेरे मोबाइल का एक नम्बर बटन दब गया और इस नम्बर बटन ने
‘फास्ट
डायलिंग’
के तहत मेरे छोटे भाई शशीकान्त के फोन में
घण्टी बजा दी। मेरा भाई भागलपुर में रहता है। डेढ़-दो बजे रात मोबाइल की घण्टी से
उसकी आँखें खुलीं। फोन उठाकर देखा तो पाया- घर से भैया (यानि मेरा) का फोन आ रहा
है। इतनी रात गये घर से फोन आने का मतलब है जरुर कोई गम्भीर बात है- सोचकर उसने
फोन रिसीव किया। वह ‘‘हैलो भैया, हैलो-हैलो-’’ करता
रहा। इधर मैं तो गहरी नीन्द में था। मैं कहाँ से जवाब देता!
उधर फोन पर कोई
जवाब न पाकर शशी चिन्तित हो गया। एक तो भैया फोन काट नहीं रहा है, ऊपर
से जवाब नहीं दे रहा है- बात क्या है? इसी बीच फोन पर उसे
कुछ ऐसी आवाज सुनाई पड़ी कि मानों कोई किसी का गला दबा रहा हो। दरअसल सोते समय मेरी
थोड़ी नाक बजती है। तो नाक बजने की और साँस चलने की आवाजों को मेरे मोबाइल ने तकिये
के नीचे से कुछ इस प्रकार ग्रहण किया कि मेरे भाई को मेरे दम घुटने का आभास हो
गया।
शशी के दिमाग
ने तुरन्त अनुमान लगाया- हो-न-हो, जरुर किसी बदमाश ने घर
में घुसकर भैया का गला दबा रखा है और भैया ने मुझे खतरे की सूचना देने के लिए बस
किसी तरह ‘फास्ट-डायलिंग’ से
फोन कर दिया है! हो सकता है- कई बदमाश हों। घर में लूट-पाट चल रही हो। भैया ने
विरोध किया होगा तो एक उनका गला दबाकर सीने पर बैठ गया होगा! ...ऐसे मौकों पर इस
तरह के ख्याल आते ही हैं।
शशी ने अपनी
पत्नी को जगाया। अपने अनुमानित खतरे के बारे में उसे बताकर उसने दूसरे फोन से घर
के बेसिक टेलीफोन पर फोन करने के लिए कहा। खुद उसने मोबाइल नहीं छोड़ा- क्या पता
भैया कब कुछ बोले!
उसकी पत्नी ने
हमारे घर के बेसिक टेलीफोन पर फोन किया। डेढ़-दो बजे रात में फोन की घण्टी बजे तो
कभी-कभी फोन उठाने में आलस होता ही है। मेरी मम्मी ने भी एक-दो बार फोन नहीं
उठाया। इससे मेरे भाई की चिन्ता और बढ़ गयी कि नीचे भी घर में कोई फोन क्यों नहीं
उठा रहा है?
खैर, वे
लोग फोन करते रहे और अन्त में मेरी मम्मी ने फोन उठाया। शशी ने तुरन्त उनसे पूछा, ‘‘ऊपर
कमरे में क्या चल रहा है?’’
‘‘क्यों
क्या हुआ?’’ मम्मी ने पूछा।
‘‘भैया
ने यहाँ मेरे मोबाइल पर फोन किया है, मगर कुछ बोल नहीं रहे
हैं। सिर्फ गला घोंटने की-सी आवाज आ रही है। फोन काट भी नहीं रहे हैं। एक बार जाकर
देखो- ऊपर सब ठीक तो है?’’ शशी ने बताया।
ऐसी परिस्थिति
का वर्णन सुनकर किसी को भी डर लग सकता है। मेरी मम्मी ने नीचे से ही मुझे आवाज
देना शुरु किया। मेरी नीन्द है गहरी। वो तो मेरी पत्नी ने मुझे जगाया कि नीचे से
मेरी मम्मी आवाज दे रही है। मैंने बिस्तर से ही पूछा, ‘‘क्या
बात है मम्मी?’’
‘‘एकबार
नीचे आओ तुम।’’ मम्मी का कहना था।
‘‘मैं
इस वक्त नीचे नहीं आ सकता।’’ मैंने
नीन्द की खुमारी में ही जवाब दिया।
मेरे इस जवाब
का कुछ और ही असर हुआ। सबने समझ लिया कि जरुर कुछ गड़बड़ है। मम्मी घबराहट में आवाज
देकर बार-बार यह कहने लगी कि बस एक बार नीचे आओ।
आखिर मैं नीचे
आया।
‘‘क्या
बात है- इतनी रात गये-?’’ मैंने पूछा।
जवाब में मेरी
मम्मी ने मुझे मेरे भाई का फोन मुझे पकड़ा दिया।
‘‘सब
ठीक तो है- इतनी रात में फोन कर रहे हो?’’ मैंने
भाई से पूछा।
‘‘फोन
तो तुमने मुझे कर रखा है।’’ कहकर मेरे भाई ने सारी बात
बताई। ऊपर से अपना मोबाइल लाकर मैंने देखा, सचमुच
मेरे मोबाइल का मीटर ऑन था।
अब मैंने
समझाया कि भाई गलती से कोई बटन दब गया होगा, जिससे
तुम्हें फोन लग गया। रही-सही कसर मेरी नाक बजने की आवाज ने पूरी कर दी होगी।
ऐसी-वैसी कोई बात नहीं है।
सबको समझा-बुझा
कर कि सब ठीक है- मैं फिर सोने आ गया। भोर का उजाला होते ही भाई का फिर फोन आया।
उसका कहना था, ‘‘रात में मुझे परेशानी से
बचाने के लिए तो तुमने बोल दिया होगा कि कोई बात नहीं। अब तो सच-सच बता दो...’’
वो दिन था और
आज का दिन है- मैं अपने मोबाइल का ‘की-पैड’ हमेशा
‘लॉक’ रखता
हूँ,
ताकि फिर कभी गलती से कोई नम्बर न दब जाए.....
आज शशीकान्त (दोस्तों का ‘शशिया’) हाँग-काँग में पदस्थापित है। पिछले साल हाँग-काँग जाने से पहले उसकी इच्छा हुई कि वह पुराने साथियों के साथ जमकर होली मनाये। क्योंकि वह तीन वर्षों के लिए सपरिवार विदेश जा रहा था।
फिर क्या था- हम बीस-पच्चीस दोस्त जुट गये होली के दिन- प्रमोद (चीकू, उर्फ ‘चिकुआ’) की दूकान पर। इतने दोस्तों के पहुँचने का अनुमान प्रमोद को नहीं था। मैंने ही बहुतों को फोन कर दिया था। सॉफ्ट-ड्रिंक कम पड़ गया। मिल-बाँट कर हमने खाया-पीया।
हाटपाड़ा से दिलीप (सपन) तो कोलकाता से आये हुए मनोजीत को ले आया था, जिससे हम ’84 के बाद पहली बार मिल रहे थे! (1984 में हमने मैट्रिक दिया था और बरहरवा में हमारा बहुत बड़ा सर्कल है- याद कीजिये, दो कक्षायें मिलकर एक हो गयी थीं।)
एक “जुगाड़” गाड़ी किराये पर ली गयी. उसी पर हो-हल्ला करते हुए हमने बरहरवा का चक्कर लगाया। पता चला- बी.डी.ओ. साहब के यहाँ जबर्दस्त तैयारियाँ हैं। होली की मस्ती थी ही, हम वहाँ भी पहुँच गये। बहाना- सर, आपने भी ’84 में मैट्रिक दी है और हम सब भी वही हैं। बरहरवा के इस धाकड़ समूह से मिलकर मिलकर बी.डी.ओ. साहब को अच्छा ही लगा।
अन्त में मेरे घर डेरा डला। पकवानों के दौर के साथ गाना-बजाना और हँसी-ठिठोली हुई। दोपहर बाद वहाँ से स्टेशन चौक आकर हम एक-दूसरे से विदा हुए।
शाम को हम सबको बड़ा पछतावा हुआ कि “जुगाड़” लेकर हम बी.डी.ओ. के पास तो गये, मगर अपने पुराने शिक्षकों- हजारी बाबू, गोपाल बाबू, इत्यादि के पास जाने की याद नहीं रही! यहाँ तक कि नन्दकिशोर सर (जो फिलहाल दुमका में रहते हैं और इस बार होली-मिलन समारोह में भाग लेने खास तौर पर आये हुए थे) से भी मिलने का ध्यान नहीं रहा, जिनका कि घर मेरे घर के बगल में ही है! अगर हम कुछ किलोमीटर दूर तीनपहाड़ जाकर अपने प्रधानाध्यापक कुमुद बाबू से मिल आते, तो यह सोने पे सुहागा हो जाता! खैर, फिर कभी। ईश्वर हमारे शिक्षकों को अच्छा स्वास्थ्य तथा लम्बी आयु प्रदान करे।
अभी फरवरी में घर गया था, तो घनश्याम (लिलिपुट) ने बताया कि वह इस बार होली में बरहरवा में नहीं रहेगा। मेरे ऊपर भी करनाल जाने का दवाब है। (पिछली दुर्गापूजा में ट्रेन रद्द होने के कारण जाना नहीं हो पाया था। इस बार अपना छोड़कर परिवार का मैंने रिजर्वेशन करा रखा है। मेरे जाने- न जाने का फैसला अन्तिम घड़ी में ही होगा।) बैंक से छुट्टी मिलेगी या नहीं, पता नहीं। उधर कोलकाता से कैलाश का फोन आ गया चुका है कि इस साल वह खास तौर पर होली मनाने बरहरवा आ रहा है- और मुझे हर हाल में होली वाले दिन बरहरवा में ही रहना है।
अब देखिये, क्या होता है...
ईति।
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