आपके इलाके में इसे कुछ और नाम से पुकारा जाता होगा, मगर हमारे इलाके में इसे “टप्परगाड़ी” कहते हैं. वैसे, अब इसका प्रचलन नहीं रहा. जी, ठीक समझा आपने- बैलगाड़ी के ऊपर ‘घर-जैसा’ एक ढाँचा कसने के बाद उस बैलगाड़ी को ही ‘टप्परगाड़ी’ कहा जा रहा है. आपने इसकी सवारी चाहे की हो या न की हो, मगर फिल्मों में तो इसे जरूर देखा होगा. कई सदाबहार गानों में ये ‘टप्पर’ वाली बैलगाड़ियाँ नजर आती हैं.
पहले साल में एक बार तो हमें इसे टप्परगाड़ी की सवारी का आनन्द मिल ही जाया करता था. चौलिया (हमारा पैतृक गाँव) से टप्परगाड़ी आती थी और हम सारा परिवार उसमें बैठकर चौलिया जाते थे- बहाना होता था- भूँईपाड़ा (भीमपाड़ा) मेला देखना. जो बच्चे बड़े होते थे (जैसे, मेरी बड़ी दोनों दीदी, बाद में भैया), उन्हें बैलगाड़ी के पीछे टप्पर से बाहर बैठने की अनुमति मिल जाया करती थी और वे पैर झुलाते हुए सफर के साथ-साथ दृश्यों का भी आनन्द उठाते थे. मुझे यह अनुमति नहीं मिली.
दो किलोमीटर पक्की सड़क (फरक्का रोड) पर चलने के बाद टप्परगाड़ी रोड छोड़कर खेतों में उतरती थी.(हमारे इलाके में अमूमन साल में एक ही बार खेती होती है- धान की. धान कटने के बाद खेत खाली पड़े रहते हैं. रबी फसल बहुत कम लोग लगाते हैं, जिनके पास सिंचाई के साधन हैं. आप सोचेंगे कि पूर्व के किसान ही आलसी होते हैं और पश्चिम (पंजाब-हरियाणा-पश्चिमी उ.प्र.) के मेहनती. मैं कहूँगा कि नेहरूजी ने आजादी के बाद 99.999 प्रतिशत नहरें उन्हीं इलाकों में बनवायी, इसलिए यह भेदभाव है! खैर,)
खेतों में कुछ दूर चलने के बाद हमारी टप्परगाड़ी एक ऊँचे रेल पुल के नीचे से गुजरती थी. इस पुल को पता नहीं क्यों ‘केंचुआ पुल’ कहते हैं. कभी-कभी यहाँ घुटना भर पानी जमा रहता था.(इस तरह के बड़े-छोटे चालीस-पचास रेल पुल किऊल जंक्शन से हावड़ा जंक्शन के बीच बने हैं, जिनका निर्माण काल 1890 के आस-पास है. सौ से अधिक वर्ष पुराने ये पुल अब तक मजबूत ही हैं. जो दो चार कमजोर पड़ गये हैं, उनका पुनर्निर्माण हो रहा है. इन पुलों को देखकर अहसास होता है कि अंग्रेज इंजीनियरों ने रेल-लाईन बिछाते समय बरसाती पानी के बहाव का कितना गहन अध्ययन किया था! इसके मुकाबले हमारे इंजीनियरों ने कुछ वर्ष पहले ललमटिया के कोयला खान से फरक्का एन.टी.पी.सी. तक जो रेल लाईन बिछाई, उसमें इस बात का ध्यान नहीं रखा; फलतः इन इलाकों में अब बरसात में छोटी-मोटी बाढ़ आने लगी है.)
चौलिया पहुँच कर लोगों से मिलना-जुलना होता था और फिर हमलोग टप्परगाड़ी में ही पड़ोसी गाँव भीमपाड़ा के मेले में जाते थे. आगे चलकर जुए के कारण मेला बदनाम हो गया और हमारा ‘टप्परगाड़ी’ का सफर बन्द हो गया. ये ’70 के आस-पास की बातें हैं.
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थोड़ी देर के लिए विषयान्तर.
वर्षों बाद ‘98 में हम अपने तीन महीने के ‘बाबू’ को लेकर चौलिया आते हैं. मेरी (फरक्का वाली) छोटी दीदी और (चिंचुँड़ा वाली) चचेरी बहन भी साथ है. चौलिया वाली चाची तीन महीने के हृष्ट-पुष्ट बाबू को देख खुश होती है, मगर पूछती है- इसकी आँखों में काजल क्यों नही है? अंशु मासूमियत से कहती है- अस्पताल (जालन्धर सैन्य अस्पताल) की डॉक्टरों-नर्सों ने काजल लगाने से मना किया है. तुरंत पड़ोसी घर से काजल आता है और बाबू की आँखों में सुन्दर से काजल डाल दिये जाते हैं.
चाची बाबू की खूब मालिश करती है और फिर हवा में उछालती है. हर उछाल के साथ बाबू किलकारियाँ भरता है. चाची कहती है- तुम्हारे बेटे को डर नहीं है रे.
अगली सुबह जब हम लौटने के लिए तैयार होते हैं, तब पास में ही रहने वाले एक दादाजी कहते हैं- पहली बार बहू आयी है, स्टेशन तक पैदल जायेगी? ठहरो, अभी टप्पर कसवाता हूँ.
बैलगाड़ी पर टप्पर कसा जाता है. मेरी दोनों बहनों के लिए तो यह नया कुछ नहीं है, मगर मेरी पत्नी मेरठवासिनी अंशु के लिए बैलगाड़ी/टप्परगाड़ी में बैठने का यह पहला अवसर है. बैलों की सुमधुर घण्टियों के साथ टप्परगाड़ी में हिचकोले खाते हुए हमलोग ‘लिंक केबिन हॉल्ट’ तक आते हैं और फिर ट्रेन पकड़ते हैं.
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अब चौलिया में यदा-कदा बाढ़ आने लगी है. बाढ़ का कारण ऊपर बताया जा चुका है. फरक्का बाँध का निर्माण भी मानो- बरसात में भारत के गाँवों को डुबोते हुए बाँगलादेश के गाँवों को बचाने के लिए ही किया गया है. सात-आठ वर्ष पहले चौलिया में तीन दिनों तक कमर भर पानी घुसा रहा. ज्यादातर घर ढह गये. बहुत नुक्सान हुआ. मेरी चाची और उन दादाजी के घर भी ढह गये थे. वह ‘टप्पर’, जो दादाजी के घर के बाहरी दीवार पर टँगा रहता था- मिट्टी की दीवार के साथ गिरकर दबकर और पानी में डूबे रहकर नष्ट हो गया. दो-चार साल पहले उन दादाजी का देहान्त हो गया.
अब चौलिया में मुश्किल से दो-चार टप्पर बचे होंगे तो बचे होंगे. वे भी दीवारों में ही टँगे होंगे. अब एक तो बहू-बेटियों के लिए पर्दे की उतनी जरूरत नहीं है, दूसरे, सड़कें पक्की हो गयी हैं और उनपर फर्राटे भरते हुए टेम्पो अब गाँव-गाँव पहुँचने लगे हैं.
तरक्की हो रही है.
भूल जाना होगा बैलों के गले की सुमधुर घण्टियाँ... कच्ची सड़कों पर से खुरों से उड़ती धूल... गाड़ीवान की हो-हो...
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