क्या आपलोगों ने कभी "चरक मेला" का
नाम सुना है? नहीं, तो कोई बात नहीं, मुझसे सुनिये।
मेरा गाँव बरहरवा (छोटा-मोटा शहर ही है- राजमहल की पहाड़ियों की
तलहटी में बसा) बंगाल की सीमा के निकट है। फरक्का यहाँ से 26 किलोमीटर दूर है। यहाँ बंगला संस्कृति का पाया जाना आम है।
बरहरवा से 7 किमी दूर एक छोटा-सा देहात है, जहाँ हमारे
परदादा रहा करते थे- थोड़ी-सी जमीन, तालाब, आम के पेड़
हैं हमारे वहाँ। देहात का नाम
है- चौलिया। बरहरवा से
सवारी ट्रेन में बैठते हैं, ट्रेन खुलती है, और कुछ मिनटों में ही 'लिंक केबिन
हॉल्ट' पहुँच जाती है। ट्रेन से उतर कर खेतों के बीच से होते हुए गाँव पहुँच जाते हैं। (सड़क भी है-
साइकिल/मोटर साइकिल से भी जाया जा सकता है।)
एक अच्छी-सी चाची है हमारी वहाँ- हमारी खूब
खातिर होती है। दो
प्यारी-प्यारी बहनें हैं- एक की दो साल पहले शादी हो गयी है और दूसरी की इसी
नवम्बर में शादी है। और भी सारे
लोगों से मिलना-जुलना होता है। मेरा बेटा तो वहाँ मस्त हो जाता है- बकरी, बत्तख आदि
देख-देख कर।
खैर, तो बात 'चरक मेला' की हो रही थी।
पहला बैशाख बंगालियों के लिए नया साल होता है। खूब मनाते हैं लोग
इसे। उस छोटे-से देहात में
भी काफी रौनक रहती है। शाम के समय
चरक मेला का आयोजन होता है। गाँव के एक किनारे खुली जगह पर बड़ा-सा खम्भा गाड़कर उसपर एक
लम्बे-से बाँस को इस प्रकार बाँधा जाता है कि बाँस को चारों तरफ घुमाया जा सके। लोगों की भीड़
पहले-से जुटने लगती है। फिर
गाजे-बाजे के साथ गाँव के 'जोगी' एक व्यक्ति के कन्धे पर सवार होकर आते हैं। बगल के छोटे-से
मन्दिर में वे पूजा करते हैं और फिर बाँस के एक
किनारे को नीचे झुकाकर जोगी महाराज को उससे बाँध दिया जाता है। उनका एक पैर तथा हाथ
मुक्त रहता है। फिर बाँस के
दूसरे सिरे पर बँधी रस्सी को लोग मिलकर नीचे खींचते हैं और जोगी हवा में ऊपर उठ
जाते हैं। खम्भे को
धुरी बनाकर लोग बाँस की रस्सी को पकड़कर घुमते हैं और जोगी भी हवा में चारों ओर
घूमने लगते हैं।
घूमते हुए जोगी अपने थैले में से निकाल कर प्रसाद
चारों तरफ खड़ी भीड़ की ओर फेंकते हैं- लोग उत्साह और श्रद्धा के साथ उसे चुनकर
ग्रहण करते हैं। मजा तो तब
आता है, जब जोगी अपने थैले में से कबूतर निकाल कर भीड़ की ओर फेंकते हैं। जी हाँ, कबूतर-
फड़फड़ाते कबूतर। जिनके हाथ यह
कबूतर लगता है, वह तो जरूर खुद को भाग्यशाली समझता होगा।
खैर, घण्टे भर यह आयोजन
चलता है। तब तक शाम भी
गहराने लगती है। जोगी जी को
नीचे उतारा जाता है।
अब तक अच्छा-खासा मेला सज चुका है। गाँव के लड़के ही
चाट-पकौड़ियाँ बना रहे हैं- बहुत हुआ, तो पड़ोसी गाँवों के
दुकानदार हैं।
महिलाओं-बच्चों के लिए भी काफी कुछ है।
मेले से निकलकर हमलोग जिस भी घर में जाते हैं-
रसगुल्ले खाने को मिलते हैं। गरीब-से-गरीब आदमी भी आज उत्सव मना रहा है।
मई 2005 में भारतीय वायु सेना से रिटायर होने
के बाद अगस्त 2008 तक मैं बरहरवा में "आजाद" आदमी की तरह रहा- चौलिया के
इस छोटे-से ‘चरक मेले’ का आनन्द भी मैंने इसी दौरान उठाया। मगर तब मेरे पास ‘कैमरे वाला
मोबाईल’ नहीं था। आज मेरे पास
कैमरे वाला मोबाईल है, मगर वह “आजादी” नहीं है कि पहले बैशाख के दिन चौलिया जा पाऊँ, चरक मेले का
नैसर्गिक आनन्द उठा पाऊँ और वहाँ की तस्वीरों को आपलोगों के साथ शेयर कर सकूँ।
आजाद पंछी के बारे में राष्ट्रकवि ने भी क्या
खूब कही है- ‘कहीं भली है कटुक निबौरी, कनक कटोरी की मैदा से’!
वैसे, ऊपरवाले ने चाहा तो
कभी-न-कभी मैं आपलोगों तक “चौलिया के चरक मेले” के छायाचित्र जरूर पहुचाऊँगा।
बचपन में तो बरहरवा में ही बिदुवासिनी पहाड़ के
नीचे हमलोग चरक मेला देखने जाते थे। (तब बरहरवा का शहरीकरण नहीं हुआ था।) यहाँ (चौलिया के
मुकाबले) काफी बड़ा खम्भा गाड़ा जाता था, घूमने वाले काफी ऊँचाई
पर घूमते थे और एक नहीं, बारी-बारी से बहुत सारे लोग हवा में घूमते तथा
प्रसाद लुटाते थे।
याद आ रही है... गर्मियों की उन दुपहरियों को
हमउम्र दोस्तों के साथ कभी घर में बताकर, कभी बिना बताये चरक
मेला देखने जाना...
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पुनश्च: 14 अप्रैल 2016
पूरे छ्ह वर्षों के बाद चरक मेला का आयोजन हुआ चौलिया में और हमने वहाँ के छायाचित्र प्रस्तुत किया आलेख/पोस्ट क्रमांक- 161 में. देखने के लिए यहाँ क्लिक करें.
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पुनश्च: 14 अप्रैल 2016
पूरे छ्ह वर्षों के बाद चरक मेला का आयोजन हुआ चौलिया में और हमने वहाँ के छायाचित्र प्रस्तुत किया आलेख/पोस्ट क्रमांक- 161 में. देखने के लिए यहाँ क्लिक करें.
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