सोमवार, 22 जुलाई 2024

280. खजूर: बिस्कुट जैसा एक व्यंजन

खजूर तले जा रहे हैं
 
     खजूर एक फल होता है— यह सभी जानते हैं, लेकिन कुरकुरे, हल्के मीठे, तले हुए बिस्कुट-जैसे एक व्यंजन का नाम भी “खजूर” होता है— यह बहुतों को शायद नहीं पता होगा।

हम लोग जब छठी कक्षा में हाई स्कूल गये, तब हमने इसके बारे में जाना। हमारा हाई स्कूल कस्बे (तब गाँव) के एक अन्तिम छोर पर था। आज भले 15-20 घरों की एक बस्ती इसके बाद बन गयी है, लेकिन उन दिनों हाई स्कूल का भवन गाँव का अन्तिम भवन हुआ करता था। वहीं एक कमरे वाली छोटी-सी चाय दुकान में खजूर मिलते थे। बाकी सारे गाँव में यह और कहीं नहीं मिलता था।

यानि हमने करीब 45 साल पहले इस खजूर के बारे में जाना था। यहाँ यह बन कब से रहा है— यह हम नहीं बता सकते। आज पैंतालीस साल बाद भी वह दुकान कायम है, उसी रंग-रूप में कायम है, आज भी वहाँ खजूर मिलते हैं और आज भी हमारे सारे कस्बे में यह कहीं और नहीं मिलता।

फर्क सिर्फ इतना है कि पहले पिता दुकान चलाते थे और अब पुत्र दुकान चलाता है। आज जो उस दुकान को चला रहे हैं, उनका नाम कार्तिक है और वह हम लोगों का हमउम्र है— सहपाठी भी।

दुकान आज भी वैसी ही है, जैसी 40-50 साल पहले हुआ करती थी
चूँकि हम लोगों का उस तरफ जाना नहीं होता है, इसलिए स्वाभाविक रूप से हम लोग और कस्बे के बाकी सभी मुहल्ले के लोग भी खजूर को भूल गये हैं। एक और बात है— हमारे कस्बे के ठीक बीचों-बीच से रेल-लाईन गुजरती है। कस्बे के प्रमुख रिहायशी एवं व्यवसायिक मुहल्ले रेल-लाईन के पश्चिम में हैं और हाई स्कूल वाला हिस्सा पूरब में। बीच में “रेल फाटक” (Level Crossing) है और रेल-फाटक पार करना एक आम भारतीय कस्बे में एक सिरदर्द होता है। इसलिए भी उस तरफ बहुत जरूरी काम होने पर ही लोग जाते हैं।   

हम कभी-कभी उस तरफ जाते हैं, तो कार्तिक से कुछ खजूर ले आते हैं। जब अभिमन्यु लोग आये थे, तब ज्यादा करके ले आये थे। चाय के साथ खाने के लिए बढ़िया चीज है।

हम सोच रहे हैं कि कार्तिक इसका नमकीन संस्करण भी बनाने की कोशिश करे, लेकिन लगता है, वह नहीं मानेगा। उसने अभी तक गैस-स्टोव नहीं अपनाया है दुकान के लिए, तो खजूर का स्वाद बदलना भला वह क्यों चाहेगा! आज भी वह कोयले वाले चूल्हे पर खजूर बनाता है। बेशक चाय भी बनाता है।

आज हम किसी और काम से कहीं और गये थे, लौटते समय फाटक के उस पार गये लगे हाथ कोई दूसरा काम निपटाने। वहाँ दस मिनट समय लगने की बात कही गयी, तो हमने साइकिल कार्तिक की दुकान की ओर बढ़ा दी और थोड़े खजूर ले आये।

हो सकता है, आपके इलाके में किसी और नाम से यह व्यंजन बनता हो, लेकिन हम तो इसे अपने कस्बे का एक खास आइटम मानते हैं। वैसे, कार्तिक ने भी एक बार बताया था कि उसके खजूर दूर-दूर तक जाते हैं। 


 
कार्तिक
 
 

नोट: दो विडियो हमने फेसबुक पर डाले हैं। उनके लिंक: 

1. खजूर तले जा रहे हैं 

2. दुकान आज भी वैसी ही है, जैसे 50-60 साल पहले थी

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सोमवार, 13 मई 2024

279. अपना-अपना दुःख

 



पचास-पचपन की उम्र के बाद ज्यादातर लोग सिर के झड़ते बालों और पेट पर चढ़ती चर्बी से परेशान हो जाते हैं। मेरे साथ उल्टा है— हम सिर के घने बालों और पेट पर से घटती चर्बी से तंग आ गये हैं। जब कभी सर्दी-जुकाम होता है, तब लगता है कि घने (और बढ़े हुए) बालों के कारण तबियत खराब लग रही है, जल्दी से बाल कटवाने पड़ते हैं। दूसरी तरफ, पिछले कुछ समय से पेट पर से चर्बी बिलकुल खत्म हो गयी है, जिसके चलते सारी पैण्टें एकाध ईंच ढीली पड़ गयी हैं। शरीर मरियल-जैसा दिखने लगा है। ‘अण्डरवेट’ तो हम हमेशा से रहे हैं, फिर भी, 53 किलो पर मेरा वजन स्थिर रहता था। कभी-कभी 55 किलो तक भी जाता था। अब हालत यह है कि मेरा वजन 50 किलो पर या शायद इससे भी नीचे चला गया है।

सिर के घने बाल को कोई समस्या नहीं कहा जा सकता, लेकिन कम वजन से चिन्तित होना स्वाभाविक है। अभी जनवरी में रक्तदान शिविर में पता चला था कि वे लोग 50 किलो से कम वजन वाले व्यक्तियों के रक्त नहीं लेते। इसका मतलब यही हुआ कि 50 किलो से कम वजन होना कोई अच्छा लक्षण नहीं है।

दरअसल, पिछले कुछ समय से हमने खान-पान में थोड़ा-सा बदलाव किया है। नॉनवेज के शौकीन हम कभी नहीं रहे थे, अब तो दूध भी छोड़ दिये हैं। भोजन सादा होता है, मात्रा कम ही होती है और जल्दी खाना खाना होता है। (जल्दी खाने का स्पष्टीकरण: नाश्ता सुबह 8 से 9 के बीच {कायदे से, नाश्ता फलों, अंकुरित अनाजों और/या सूखे मेवों का होना चाहिए}, दोपहर का भोजन 12 से 1 के बीच और रात का खाना शाम 7 से 8 के बीच {कायदे से, 6 से 7 के बीच होना चाहिए}।) बढ़ती उम्र को देखते हुए हमने यह बदलाव किया, ताकि बीमारियों से बचे रहे। शुगर, प्रेशर, थायरायड, युरिक एसिड, किडनी, फैटी लीवर इत्यादि बीमारियों का जिक्र इतना सुनने लगे हैं कि हमें लगा, भले शरीर दुबला-पतला रहे, लेकिन बीमारियों से बचना ज्यादा जरूरी है।

वजन घटने का एक कारण यह भी हो सकता है कि पिछले कुछ समय से हम दोस्तों के साथ ‘फिटनेस क्लास’ चला रहे थे। दोस्तों का ऐसा था कि जब जिसकी मर्जी होती थी, छुट्टी कर लेता था, लेकिन मेरी रोज की कसरत हो जाती थी। इस उम्र में इतनी कसरत की जरुरत नहीं थी। हम लोग ऐरोबिक्स, कसरत, योगासन इत्यादि करते थे— 45 मिनट से लेकर 1 घण्टे तक। बीते नवम्बर से हमने इसे बन्द कर दिया। कहा— सबने सीख लिया है, अपने-अपने घर में किया करो, कम-से-कम योगासन किया करो। कोई नहीं करता। हम सप्ताह में तीन-चार दिन आधे घण्टे अपने “जय योग” (योगासन, प्राणायाम, ध्यान की एक शृंखला) का अभ्यास कर लेते हैं।

कम वजन का असर कहीं मेरे “स्टामिना” पर तो नहीं पड़ा है— इसे जाँचने के लिए हमने एक शाम छत पर “स्किपिंग” किया। ‘फिटनेस क्लास’ शुरू करने से पहले, यानि दो-तीन साल पहले कसरत का मेरा एक तरीका हुआ करता था, जिसके तहत हम लगभग 20 मिनट स्किपिंग किया करते थे, 20 मिनट फ्रीहैण्ड कसरत किया करते थे और कुछ मिनट के लिए रिलैक्सेशन कसरत किया करते थे। सप्ताह में दो-तीन दिन और साल में दो-चार महीने के लिए यह मेरा अभ्यास था। खैर, तो अचानक हमने एक शाम स्किपिंग किया यह देखने के लिए कि क्या वजन कम होने से मेरा स्टामिना भी घट गया है? स्किपिंग मेरा 5,000 स्टेप्स का हुआ करता है— 4,000 स्टेप्स सामान्य स्पीड में और अन्तिम 1,000 कुछ ज्यादा स्पीड में। इसमें कोई 20 मिनट समय लगता है और यह ‘कामचलाऊ’ ‘वार्म-अप’ है। कामचलाऊ इसलिए कह रहे हैं कि एक समय में 7 किलोमीटर की जॉगिंग मेरा वार्म-अप हुआ करता था, बाद में लगभग 3 किलोमीटर की जॉगिंग का वार्म-अप करने लगे थे और अब पचास की उम्र के बाद— 5,000 स्टेप्स की स्किपिंग के वार्म-अप से काम चला रहे थे। तो हमने पाया कि बिना साँस तेज हुए हमने आराम से 5,000 स्किपिंग कर लिया और अगली शाम (यानि 24 घण्टों बाद) जाँघों की मांसपेशियों में एक रत्ती भी दर्द का अनुभव नहीं हुआ। यानि मेरी स्टामिना पर कोई फर्क नहीं पड़ा है वजन घटने का।

तो अब हम इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि शायद 50 किलो ही मेरे लिए सही वजन है। क्योंकि हमें याद है कि पहले ऐसा होता था कि दोपहर के बाद हमें पेट फूला-फूला-सा महसूस होता था, कई बार खींचकर पेट को अन्दर करना पड़ना था, अब यह समस्या नहीं है। अब कभी भी पेट फूला-फूला-सा महसूस नहीं होता।

बात दरअसल क्या है कि मांसपेशियाँ दो तरह की होती हैं— लाल और सफेद। जो लोग मैराथन दौड़-जैसी प्रतियोगिताओं में भाग लेते हैं, वे दुबले-पतले— कई बार मरियल-जैसे, होते हैं। उनके शरीर में लाल मांसपेशियों की मात्रा अधिक होती है, जो उन्हें थकने नहीं देतीं। इसके मुकाबले दौड़ के स्प्रिण्ट मुकाबलों— 100 या 50 मीटर की दौड़, में भाग लेने वाले खिलाड़ी हट्टे-कट्टे, बलिष्ठ होते हैं, इनके शरीर में सफेद मांसपेशियाँ ज्यादा होती हैं। ये कुछ ही सेकेण्ड में अपनी पूरी ऊर्जा खर्च कर थक जाते हैं। ......तो हमने मान लिया कि मेरे शरीर में लाल मांसपेशियों की मात्रा ज्यादा है, जिसके कारण आज 55 से अधिक उम्र में भी हम 5-7 किलोमीटर की जॉगिंग कर सकते हैं, 5-700 मीटर की तैराकी आराम से कर सकते हैं (अभ्यास न होने पर भी बीते नवम्बर में हम एक तालाब में तैरने उतरे थे, कोई खास थकान महसूस नहीं हुई थी— इससे बड़ी बात, बाजुओं की मांसपेशियों में अगले दिन कोई दर्द नहीं हुआ था) और 5-7 किलोमीटर साइकिल चलाकर कहीं आना-जाना तो मेरे लिए आम बात है (हमारा पैतृक गाँव 7 किमी दूर है, कभी-कभार (अकेले) जाना होता है, तो साइकिल से ही जाते हैं)।     

ज्यादातर शुभचिन्तक यही समझते हैं कि हमें जरूर कोई अन्दरूनी बीमारी है। ऐसा हो भी सकता है। लेकिन हम सोचते हैं कि जब हम शारीरिक-मानसिक रूप से खुद को स्वस्थ महसूस कर रहे हैं, तो किसलिए फालतू में चेकअप-वेकअप कराने जायें?

हमारी मित्र-मण्डली में एक डॉक्टर साहब हैं, जब चाहें, वे मेरा शुगर-प्रेशर चेक कर सकते हैं, लेकिन हम टाल देते हैं। वे भी चेहरा देखकर हँसते हुए कहते हैं— नहीं, आपको शुगर नहीं होगा। जब शुगर ही नहीं होगा, तो बाकी बीमारियाँ कहाँ से आयेंगी।

वायु सेना का मेरा एक दोस्त (एण्ट्रीमेट) अभी दो महीनों पहले— 57 की उम्र में— रिटायर हुआ (हमने 20 वर्षों में— 36 की उम्र में— सर्विस छोड़ी थी), उसने फोन पर बात की, पता चला, वह थायरायड, किडनी, युरिक एसिड, ब्लड-प्रेशर और शुगर की समस्याओं से ग्रस्त है। मेरे कुछ यहाँ के दोस्त भी शुगर, युरिक एसिड से ग्रस्त हैं।

अब अन्त में एक बात। जब हम वायु सेना में थे और ग्वालियर में पोस्टेड थे, तो एक बार भाई साहब ने कहा कि वहाँ उनका एक क्लासमेट भी पोस्टेड है, मैं जाकर उनसे मिलूँ। हम जाकर मिले। हमारे कस्बे के पड़ोस के ही रहने वाले थे। जब हम मिलकर लौट रहे थे, तब हम मन-ही-मन सोच रहे थे— कितने लम्बे-तगड़े हैं ये..... और एक हम हैं, कमजोर कद-काठी के। खैर, कुछ दिनों बाद फिर कभी उधर से गुजरना हुआ, तो हम उनके क्वार्टर की ओर चले गये। ताला लगा था, पड़ोसी ने बताया कि वे एम.एच. (मिलिटरी हिस्पिटल) में भर्ती हैं। बाथरूम में चक्कर आने से गिर गये थे, गहरी चोट लगी है, उनकी श्रीमतीजी भी वहीं गयी हुई हैं। हम भी एम.एच. जाकर उनसे मिले थे। लेकिन फिर हमने ऐसा सोचना बन्द कर दिया कि हम लम्बे-तगड़े क्यों नहीं हैं। लगा, यही कद-काठी ठीक है, कम-से-कम कभी चक्कर तो नहीं आता!

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278. मस्तमौला

 


बहुत कम ही लोग होते हैं, जो मस्तमौला किस्म के होते हैं।

हमारे यहाँ एक हैं। नाम एक बार पूछा था, याद नहीं रहा।

अक्सर सड़क पर भेंट हो जाती है। कभी कचरे की बोरी पीठ पर टाँगे हुए, तो कभी बीड़ी का कश (कभी सिगरेट पीते थे जनाब) लगाते हुए, कभी बैठकर थकान मिटाते हुए, तो कभी चलते-फिरते हुए। भेंट होते ही एक नमस्ते और उसके बाद हँसते हुए कुछ देर बातचीत।

हँसना इनके स्वभाव में है। बात खुशी की हो, तो हँसी और गम की हो, तो भी हँसी। जैसे, आज बहुत काम मिला, इतने रुपये की कमाई हो गयी, भगवान करे,  रोज इसी तरह काम मिले— यह बताते हुए भी ये हँसते हैं और आज बहुत खराब दिन रहा, कमाई-धमाई बहुत कम हुई— यह बताते हुए भी हँसते हैं।

बहुत पहले हम इनकी तरफ आकृष्ट हुए थे इनके सिगरेट पीने की स्टाइल देखकर। अनामिका और कनिष्ठा उँगलियों के बीच सिगरेट फँसाकर, मुट्ठी बाँधकर ऊपर से जोरदार कश खींचते थे और चुटकी बजाकर सिगरेट की राख झाड़ते थे। हमें यह स्टाइल वास्तव में पसन्द आयी थी, ऊपर से मस्त स्वभाव! तब इनसे मेरी बातचीत नहीं हुआ करते थी। तब इनकी ‘चलती’ भी बहुत हुआ करती थी। हमारा कस्बा तब नगर-पंचायत नहीं बना था, बाजार के ज्यादातर दुकानदार कचरा फेंकवांने के लिए इन्हीं पर निर्भर रहा करते थे। कचरा फेंकने कोई दूर भी नहीं जाना पड़ता था, रेलवे की या निजी परती जगह बहुत हुआ करती थी, जहाँ कचरा फेंका जा सकता था। उन दिनों कई बार तो ये जनाब सीधे मुँह बात भी नहीं किया करते थे। कहीं सड़क पर कुत्ता मर गया, तो फेंकने का अच्छा-खासा शुल्क वसूलते थे— इसे नाजायज नहीं कहा जा सकता। आम कस्बाई तो फेंकने से रहा।

वक्त बदला, कस्बा नगर पंचायत बना, कचरा उठाने के लिए लोग नियुक्त हुए, ट्रैक्टर गाड़ियों में कचरा उठाया जाने लगा और इनके परिणामस्वरूप इनकी पूछ कम हो गयी। फिर भी, काम तो इन्हें मिलते रहता है। परिवर्तन यह देख रहे हैं कि अब सिगरेट की जगह बीड़ी पीते हैं और अक्सर— बेशक हँसते हुए ही— बताते हैं कि नगर पंचायत के ट्रैक्टर वाले कभी-कभी इनकी मदद नहीं करते और कचरा फेंकने के लिए इनको बहुत दूर जाना पड़ता है।

मेरी इनसे बातचीत शुरू हुई तकरीबन चार-पाँच साल पहले। हुआ यूँ था कि एक लड़की का मोबाइल फोन कॉलेज से आते समय कहीं गिर गया था और उसने हमारे घर आकर बहुत परेशान होकर यह बात बतायी। श्रीमतीजी ने खोये फोन के नम्बर पर कॉल किया, उठाया इन जनाब ने। बताया कि इनका घर कॉलेज के गेट के पास ही है। जिसका फोन है, वह आकर ले ले। श्रीमतीजी उस लड़की के साथ इनके घर गयीं और फोन ले आयीं। बेशक, इन्हें कुछ ईनाम भी दिया गया था।

इसके बाद एक बार हम श्रीमतीजी के साथ उस इलाके से गुजर रहे थे, तो ये जनाब जोर-जोर से “दीदी-दीदी” कहते हुए श्रीमतीजी से बातें करने लगे। बाद में हमने पूछा कि तुम इसको कब से जानने लगी? तब उन्होंने मोबाइल खोने वाला वाकया सुनाया।

उसके बाद से हमसे से इनकी बातचीत होने लगी।

अभी दो-तीन दिनों पहले हम लोग शाम के समय बाजार से लौट रहे थे। ये जनाब अचानक प्रकट हुए और “दीदी-दीदी” करते हुए बातचीत करने लगे, मोबाइल वाली घटना का जिक्र करना नहीं भूले।

खैर, भेंट होने पर हम दो-चार मिनट इनसे बात करना कभी नहीं भूलते, क्योंकि इसी बहाने मेरे चेहरे पर भी हँसी और मुस्कान तैर जाती है— वर्ना जमाना ऐसा है कि बिना हँसे-मुस्कुराये अक्सर घण्टों बीत जाते हैं।

तो कुल-मिलाकर— बहुत कम ही लोग होते हैं, जो मस्तमौला स्वभाव के होते हैं, मौका मिलने पर उनसे बातचीत जरूर करनी चाहिए। स्टेटस? भाड़ में जाये। निश्छल हँसी और मुस्कान के सामने सब फालतू के चोंचले हैं!

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277. ‘पक्की नौकरी’

 


(28 मार्च के दिन हमने फेसबुक पर निम्न पोस्ट लिखा था, बाद में ध्यान गया कि इसे ब्लॉग पर दर्ज किया जाना चाहिए।)

किसी एक पोस्ट से मुझे एक मजेदार बात याद आ गई। मेरा बेटा अभिमन्यु जब नवीं में था, तब एक शिक्षक के पास गणित का ट्यूशन पढ़ने जाता था। तब हम अररिया में थे। जाहिर है कि वे शिक्षक बिहारी ही थे। (मैं उनसे कभी मिला नहीं।)

 शिक्षक ने अभिमन्यु से मेरे बारे में पूछताछ की। उन्हें पता चला कि मैं पहले भारतीय वायु सेना में था और अब भारतीय स्टेट बैंक में हूं। उनकी मजाकिया टिप्पणी थी, "अच्छा, बिहारी चाहे पक्की नौकरी।" (हालांकि हमारा साहेबगंज जिला झारखंड में आ चुका था।)

अभिमन्यु ने घर आकर कहा, "मुझे तुम कभी पक्की नौकरी के लिए नहीं कहोगे।" मैंने कहा, "ठीक है, नहीं कहेंगे।"

बाद के दिनों में (12वीं केबाद) उसने अपनी हॉबी को पेशा बनाने का फैसला लिया और उसने मल्टीमीडिया की पढ़ाई की। आज वह ग्राफिक डिजाइनर है कोलकाता में, खुद की छोटी कंपनी (moldbreaker studio) है, दोपहर तक सोता है, देर रात तक काम करता है और अपनी मर्जी के हिसाब से जीवन बिताता है।

होली में वह घर आया हुआ है। ऊपर की तस्वीर में वह दाहिने कोने पर है - लापरवाह व्यक्तित्व। बांई तरफ उसका कजन (मेरी चचेरी बहन का बेटा) है - स्मार्ट व्यक्तित्व।

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(इस अंश को अभी जोड़ा जा रहा है।)

इस साल होली में अभिमन्यु घर आया था। उसके साथ ‘टारजू’ भी आया- मेरी चचेरी बहन (मुनमुन) का बेटा यानि अभिमन्यु का कजन। दोनों की मंगेतर भी साथ थीं। मेरा भांजा ओमू भी आया- सपत्नीक, हाल ही में शादी हुई है। दो भांजियाँ भी आयीं। घर में भतीजे-भतीजियाँ तो हैं ही। यानि इस साल घर में काफी रौनक रही।

सबने खूब होली खेली। सभी मोती झरना, कन्हैया स्थान घूमने भी गये थे। एक दिन चण्डोला पहाड़ भी घूमने गये थे।

कुल-मिलाकर इस साल की होली यादगार रही। 


 


गुरुवार, 11 अप्रैल 2024

276. पिताजी की एक सीख

 

चेतावनी: यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, किसी को सलाह देने का इरादा मेरा बिलकुल नहीं है। स्वास्थ्य का मामला है, कृपया सलाह योग्य चिकित्सक से ही लें।

 

माँ-पिताजी नाती-पोतों के साथ: एक पुरानी तस्वीर

मेरे पिताजी और दादाजी दोनों होम्योपैथ चिकित्सक रहे थे।

वर्षों पहले एक बार पिताजी ने मुझसे कहा था कि पैंतीस-चालीस की उम्र के बाद ‘फेरम फॉस,’ ‘कैलक्रिया फॉस’ और ‘मैग फॉस’ की गोलियों की शीशियाँ घर में हमेशा रखना और बीच-बीच में ऐसे ही चार-चार गोलियाँ खा लिया करना।

पिताजी ने जब यह बात बतायी थी, तब मेरी उम्र बीस-बाईस रही होगी, तो स्वाभाविक रूप से मैंने उनकी इस सलाह को एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया— यानि मैं भूल गया। दूसरी बात, कसरत और योगाभ्यास— अनियमित ही सही— की मेरी आदत बचपन से बनी हुई थी। ऊपर से, भारतीय वायु सेना में कमान की तैराकी टीम में भी मैं शामिल हो गया था। उस दौरान (1987 से 1995 तक) बहुत कसरत और बहुत तैराकी करता था मैं। तो मेरे मन में यही था कि मुझे कभी इस तरह की गोलियों की जरूरत नहीं पड़ेगी।

 

जब मेरी उम्र पैंतालीस के करीब हुई, तब एकाएक मैंने महसूस किया कि घुटनों में हल्का दर्द रहने लगा है— खासकर सुबह के समय। एक बार राजन जी से बातचीत के क्रम में मैंने इसका जिक्र किया। उन्होंने तुरन्त कहा, “कैल्शियम कम हो गया है, कैल्शियम की गोली लो।”

मुझे उनकी बात कुछ सही लगी। घर आकर नेट पर सर्च किया। पता चला— युवा उम्र तक शरीर ठीक भोजन से कैल्शियम लेता रहता है, लेकिन एक उम्र के बाद यह प्रक्रिया सुस्त पड़ जाती है, तब शरीर सीधे हड्डियों से कैल्शियम लेने लगता है। परिणाम— घुटनों में दर्द।

मुझे अचानक पिताजी की बात याद आ गयी कि क्यों उन्होंने कहा था कि पैंतीस-चालीस की उम्र के बाद ‘कैलक्रिया फॉस’ की दो-चार गोलियाँ यूँ ही खाते रहना!

 

इसके कुछ दिनों बाद टीवी पर एक आयुर्वेदाचार्य को यह बताते हुए सुना कि  घुटनों में अकड़न एवं दर्द का कारण कैल्शियम की कमी तो होती ही है, मैग्निशियम की भी कमी होती है। तब मुझे समझ में आया कि पिताजी ने साथ में ‘मैग फॉस’ की गोलियाँ भी साथ में लेते रहने के लिए क्यों कहा था।

जब अभिमन्यु से (फोन पर) इन बातों का जिक्र हुआ, तो उसने बताया कि मैग्निशियम शरीर के अन्दर बनता ही नहीं है, इसे हमेशा बाहर से ही लिया जाता है। यानि यह शाक-सब्जियों में होता होगा और मैं बचपन से ही शाक-सब्जी बहुत कम खाता था— बस नाम के लिए खाता था।

 

जो भी हो, ‘फेरम फॉस’ वाला मामला साफ हुआ एक जमाने के बाद— इसी साल जनवरी में। स्वामी विवेकानन्द जयन्ती के दिन मैं श्रीमतीजी के साथ रक्तदान शिविर में गया था। (1997-98 के बाद से रक्तदान नहीं किया था, इस बार सोचा कि किया जाय।) शिविर में पता चला कि जिनका HB 12 से कम होगा (जहाँ तक याद है, 12 ही कहा गया था), उनका रक्त नहीं लिया जायेगा। मेरा तो 12 से अधिक हो गया— शायद 12.3, लेकिन श्रीमतीजी का 12 से नीचे रह गया— शायद 11.8। तो वे रक्तदान नहीं कर सकीं, मैंने किया। अब जाकर समझ में आया कि पिताजी ने ‘कैल’ और ‘मैग’ के साथ-साथ ‘फेरम फॉस’ खाते रहने की सलाह क्यों दी थी।

 

अन्त में दो बातें। घुटनों का दर्द— जहाँ तक याद है— तीन महीनों में ठीक हो गया था। इस दौरान सुबह-शाम मैं ‘कैलक्रिया फॉस’ की चार-चार गोलियाँ नियमित रूप से खाता रहा था।

दूसरी बात, तीन शीशियाँ सेल्फ पर सदा रखी रहती हैं। जब कभी इनकी तरफ ध्यान जाता है— हफ्ते, दो हफ्ते में एक दिन— किसी एक शीशी से चार गोलियाँ निकालकर हम खा लिया करते हैं। 

 


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