अररिया (नेपाल की
सीमा पर, बिहार) में रहते वक्त जब दीवाली पर घर लौटता था, तब कटिहार से मनिहारी के
बीच पड़ने वाले गाँवों में देखता था- हर घर के बाहर एक लम्बे बाँस से एक
"कन्दील" लटक रही है। गंगा के इस पार
आने के बाद यह दृश्य नहीं दीखता था। शहरों में तो बस ग्रिटिंग कार्ड़्स पर ही
कन्दील नजर आती हैं। हालाँकि अररिया में दीवाली की सुबह कन्दील बिकते हुए देखा था
और खरीद कर घर में टाँगा था।
खुद कन्दील बनाने की हिम्मत अब नहीं रही। बचपन में एक ही बार
कन्दील बनाया था- अपने से। दरअसल, हमारे बरहरवा में कन्दील टाँगने की परम्परा नहीं
के बराबर है। जो इक्के-दुक्के टाँगते भी हैं, वे "मेड इन चायना" वाली
कन्दील टाँग लेते हैं, जिनमें बिजली का बल्ब जलता है- दीपक के स्थान पर।
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एक और परम्परा बरहरवा
में नहीं है- "घरौंदा" बनाने की। इक्के-दुक्के लोग ही इसका पालन करते
हैं। अब यह परम्परा नहीं है, तो "चीनी के खिलौने" भी यहाँ नहीं बिकते।
हालाँकि पड़ोसी शहर राजमहल में इनकी परम्परा कायम है।
प्रसंगवश, इस साल
हमारी "छोटी" का घरौंदा सुन्दर बना है- चित्र देखिये। घरौंदे के लिए
"खील" तो मिल गयी, (चीनी के) "खिलौने" नहीं मिले। उसके स्थान
पर बताशे की व्यवस्था है।
एक और बात याद आयी।
बचपन में स्कूली पाठ्य-पुस्तक की जो दीवाली वाली कविता थी ("दीप जलाओ दीप
जलाओ आज दीवाली रे"), उसमें "मैं तो लूँगा खील-खिलौने तुम भी लेना
भाई" को हम ठीक से नहीं समझते थे। सोचते थे, यहाँ "खेल-खिलौने"
होना चाहिए। अब घरौंदा बनाने और उसे खील-खिलौने से भरने की जब परम्परा ही नहीं थी,
तो हम भला इसे समझते कैसे?
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हाँ, एक परम्परा
बरहरवा में काफी पुरानी है- वह है, दीवाली की रात "काली पूजा" की। बंगाल
में इसे "श्यामा पूजा" कहते हैं। यहाँ के "सार्वजनिक मन्दिर"
में दशकों से दीवाली की रात "काली पूजा" होती आ रही है।
काली पूजा पर एक
दृश्य की याद आ रही है। पिछले साल दीवाली के बाद किसी एक दिन भागलपुर में था। उस
रोज काली की प्रतिमाओं का विसर्जन होना था। ओह, ऐसा विसर्जन जुलूस मैंने कभी नहीं
देखा था! भागलपुर की सारी प्रतिमायें एक साथ विसर्जन के लिए जा रही थीं। सम्भवतः
एक सौ से ज्यादा प्रतिमायें होंगी! भारी भीड़। गाजे-बाजों की भरमार। इन सबके बीच
पारम्परिक हथियारों की प्रदर्शनी! हर दो-एक प्रतिमा के बाद एक गाड़ी में खास ढंग से
बना एक बड़ा-सा 'फ्रेम' था और उस फ्रेम में करीने से तलवार, भाले, कटार, बर्छी
इत्यादि सजे हुए थे। माँ काली की प्रतिमायें तो देखने लायक थीं ही।
भागलपुर से लौटते
वक्त साहेबगंज में उतरा- रात ढल चुकी थी। यहाँ भी यही दृश्य- छोटे पैमाने पर। पता चला,
शहर की सारी प्रतिमाओं का विसर्जन तो हो चुका है- आज "बम काली" का
विसर्जन है। "बम काली" मैं ठीक से समझा नहीं- सम्भवतः शहर की सबसे विशाल
और रौद्र रुप वाली काली प्रतिमा को "बम काली" कहा जाता होगा।
खैर, अभी इतना ही,
दीवाली की शुभकामनायें...
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ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से आप सब को गोवर्धन पूजन के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं|
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