गुरुवार, 1 मई 2014

109. मजदूर दिवस पर




कल मैंने साइकिल पर कोयला ढोने वाले एक मजदूर को देखा- उसकी बनियान पसीने से तर-बतर होकर बदन से चिपकी हुई थी साइकिल से उतरकर वह दूसरी तरफ देख रहा था- उसकी पीठ मेरी तरफ थी। मैं भी साइकिल पर ही था- सोचा, एक तस्वीर ले लूँ, फिर, क्या मन में आया, आगे बढ़ गया। आठ-दस मिनट बाद याद आया कि कल मजदूर दिवस है- यह तस्वीर ले लेता, तो "पसीना बहाने वालों" को कल के दिन एक सलामी तो दे ही देता, फेसबुक/ब्लॉग पर! अफसोस!
खैर, दो बातें बता दूँ। पहली बात, पहले कभी साइकिल पर कोयला ढोने वाले की दो तस्वीरें मैंने खींची थी (हालाँकि उसमें "पसीना" नहीं था), उन्हें यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, ताकि जो बन्धु हमारे इलाके के नहीं हैं, उन्हें अन्दाजा हो जाये कि यह किस तरह का कठिन काम है। दूसरी बात, हमारी जो झारखण्ड सरकार है, उसने जमीन के नीचे का सारा-का-सारा कोयला कम्पनियों के नाम कर दिया है। यानि "कोयला डिपो" का लाइसेन्स देना उसने बन्द कर दिया है। पहले हर शहर-कस्बे में कोयला डिपो हुआ करते थे, जहाँ से कोयला खरीद कर गृहस्थ तथा दूकानदार कोयले के चूल्हे जलाया करते थे। अब सरकार का कहना है कि भले आप इस धरती के निवासी हैं- यहाँ पीढ़ियों से आप रहते आये हैं, मगर इस धरती के नीचे का जो कोयला है, उससे आप चूल्हा नहीं जला सकते! यह भण्डार तो पैनेम-जैसी निजी कम्पनियों के लिए है, जो रोज 5-7 मालगाड़ियों में भरकर कोयला पंजाब ले जाती है और उस कोयले से पंजाब को 24सों घण्टे बिजली मिलती है! या फिर, यह कोयला उन सरकारी कम्पनियों के लिए है, जो बंगाल-बिहार से लेकर दूर-दराज के राज्यों तक में स्थापित ताप बिजलीघरों तक कोयला ले जाती है! हमने अपने झारखण्ड में पिछले 14 वर्षों में एक भी ताप बिजलीघर नहीं बनाया है, यहाँ बिजली की प्रतिव्यक्ति उपलब्धता बहुत कम है, यह हम जानते हैं, मगर क्या है कि झारखण्ड तीन चीजों के लिए बना है- 1. लूट, 2. लूट और 3. लूट, तो हम राजनेता वही कर रहे हैं... आपका चूल्हा न जले, तो हमें क्या फर्क पड़ता है!
खैर, तो जो कोयला खदान बन्द हो जाते हैं, उन खदानों से कोयला खोदकर ये मजदूर साइकिल के माध्यम से दूर-दूर तक पहुँचाते हैं। इसके लिए साइकिल में कुछ फेर-बदल करवाने पड़ते हैं। पहले ये 3 क्विण्टल कोयला लेकर चलते थे, अब शायद 4 या इससे ज्यादा ही कोयला ये ढोते हैं। ये इस तरह से कोयला लेकर सौ-पचास या शायद इससे भी ज्यादा दूरी तय करते हैं। जहाँ सड़क पर चढ़ाव हो, वहाँ क्या स्थिति होती होगी इनकी- आप सहज ही कल्पना कर सकते हैं! 


चूँकि यह कोयला ढुलाई कानूनन अवैध है, इसलिए नेता से लेकर पुलिसवाले तक इनसे पैसे वसूलते हैं।
खैर, बात शुरु हुई पसीने से और व्यवस्था तक पहुँच गयी।
तो आज के दिन मैं पसीना बहाकर कमाने-खाने वालों को सलामी देता हूँ और एक उक्ति को दुहराता हूँ, जो मुझे बहुत सही लगी थी- "मजदूर को मजदूरी उसका पसीना सूखने से पहले ही दे दो!"
***  
प्रसंगवश, मैं भले दफ्तर में काम करता हूँ, मगर प्रतिसुबह 70 किलोमीटर की ट्रेन यात्रा के बाद 10 किलोमीटर साइकिल भी चलाता हूँ। शाम वापसी की यात्रा भी ऐसी ही होती है। जब से गर्मी शुरु हुई है, साइकिल चलाते वक्त मुझे भी पसीना आने लगा है... यानि मजदूर दिवस पर कुछ लिखने का मुझे हक है- क्यों?

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