सोमवार, 29 जुलाई 2019

216. मोती झरना में कुछ नया


राजमहल की पहाड़ियों में जंगली जानवर तो कुछ बचे नहीं हैं- ले-देकर कुछ हाथी कभी-कभार नजर आ जाते हैं। (महाराजपुर के निकटवर्ती) तालझारी इलाके में पत्थर-खनन अपेक्षाकृत कम है, इसलिए यहाँ जंगल बचे हुए हैं और यहीं कभी-कभार हाथी दिखते हैं। जिक्र इसलिए कि इस बार मोती झरना के आस-पास के जंगलों में कुछ जंगली जानवरों की मूर्तियाँ खड़ी की गयी हैं। एक तेन्दुआ (चट्टान पर बैठा हुआ), एक बाघ (झरने के बगल में), दो हिरण (पार्क के पास) और एक मगरमच्छ (बहते पानी के किनारे) हमें नजर आये। जो प्रवेशद्वार बना है, उसपर भी दो हाथी, एक मोर और एक अजगर को बनाया गया है। इसके अलावे एक वनमानुष का बड़ा चेहरा और बहुत-से जानवरों के चेहरे विभिन्न स्थानों पर उकेरे गये हैं। झरने का पानी पार करने का जो पुल है, वह है तो कंक्रीट का, पर उसे लकड़ी के तख्तों, लट्ठों और बाँस के टुकड़ों का रंग-रुप दिया गया है। यह एक नयापन है। जो कई वर्षों से यहाँ नहीं आये हैं, वे आ सकते हैं।

कलाकारों की जिस टीम ने इन्हें बनाया है, वह बधाई की पात्र हैं। साथ ही, जिन प्रशासनिक अधिकारियों ने इस सौन्दर्यीकरण में रुचि ली है, वे भी बधाई के पात्र हैं।

संलग्न चित्र में चट्टान पर बैठे तेन्दुए या चीते की मूर्ति है।

कल की मोती झरना यात्रा के छायाचित्रों और विडियो का अल्बम हमने फेसबुक पर अपलोड किया है, देखने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें।
 


रविवार, 30 जून 2019

215. जिन्दादिली

       हाल ही में फेसबुक पर एक विडियो देखा, जो सम्भवतः महाराष्ट्र के किसी कॉलेज के घरेलू कार्यक्रम का है। (हो सकता है कि यह विडियो वायरल हो और प्रायः सबने देख रखा हो।) विडियो में एक नौजवान छात्र फिल्मी गाने- 'तुझमें रब दिखता है, यारा मैं क्या करूँ' पर नृत्य कर रहा है। जिस नजाकत, जिस नफासत के साथ वह लड़का डान्स कर रहा है, वह तो काबिले-तारीफ है ही; वह जिस शिष्टता और विनम्रता के साथ अपनी शिक्षिकाओं को नृत्य में शामिल करता है, वह ज्यादा काबिले-तारीफ है। व्यक्तिगत रुप से हम उसके सुसभ्य और सुसंस्कृत आचरण से मुग्ध हो गये!
       खैर, तो इस विडियो को देखने के बाद मन में क्या विचार आता है? सबकी अपनी-अपनी सोच होगी। मेरे मन में जो विचार कौंधा, वह था-
       "ज़िन्दगी ज़िन्दादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं!"
       दूसरी बात, जो मन में आयी वह यह थी कि पढ़ाई-लिखाई और करियर-वरियर की चिन्ता अपनी जगह है, "जवानी" में कुछ अल्हड़पन, कुछ बेफिक्री, कुछ मस्तमौलापन तो होना ही चाहिए! वर्ना फर्क क्या रह जायेगा एक तनावग्रस्त अधेड़ या खड़ूस बूढ़े और एक नौजवान में! 
        युट्युब पर उस विडियो का लिंक- https://youtu.be/5a-06VP7XsE 

 
        ***
       बात जब जिन्दादिली की चली, तो याद आया कि क्या मौज-मस्ती, बेफिक्री ही जिन्दादिली है? मेरे ख्याल से, नहीं। देश-दुनिया-समाज में घट रही घटनाओं के प्रति हमारी सजगता और खास तौर पर हमारी "पक्षधरता" निर्धारित करती है कि हम वाकई "जिन्दा" हैं या नहीं। मसलन, हम जंगल उजाड़ कर कल-कारखाने या खान बनाये जाने के पक्ष में हैं, या हम जंगलों में रहने वाले पशु-पक्षियों, वनवासियों के पक्ष में हैं? दुनिया की ज्यादातर धन-सम्पत्ति कुछ मुट्ठियों में सिमटती जा रही है- तो क्या हम उन पूँजीपतियों के पक्ष में हैं, या उन आम लोगों के पक्ष में हैं, जिनका शोषण हो रहा है?
       हम तो नौजवानों से यही अपील करेंगे कि वे जवानी के दिनों में ही अपना "पक्ष" तैयार कर लें- कि हर हाल में वे कमजोरों, शोषितों, वंचितों के पक्ष में खड़े रहेंगे! भारतीय होने के नाते हर नौजवान को भगत सिंह के विचारों से प्रेरणा लेना चाहिए और शोषण, दोहन, अत्याचार से रहित देश-दुनिया-समाज के निर्माण के लिए कुछ सोच-विचार करना चाहिए। समय आने पर उन्हें अपने विचारों को धरातल पर उतारने का मौका जरुर मिलेगा।
       इस सन्दर्भ में एक और विडियो देखा जाय- कुछ दिनों पहले फेसबुक पर ही यह दिखा था हमें। यह विडियो भारत के उस भू-भाग से आया है, जिसे बीते सात दशकों से 'पाकिस्तान' कहा जा रहा है! जी हाँ, यह विडियो पाकिस्तान के लाहौर शहर के "भगत सिंह चौक" से है, जहाँ कुछ नौजवान प्रदर्शन कर रहे हैं।
जवानी के दिनों में सिर्फ फिल्मी गानों पर थिरकना ही काफी नहीं- कभी-कभार चौक-चौराहों पर ऐसे प्रदर्शन भी करने चाहिए... तब जाकर पता चलेगा कि आप वाकई "जिन्दा" हैं, आपके सीने के अन्दर एक "धड़कता हुआ दिल" है, यानि कि आप "जिन्दादिल" हैं! 
फेसबुक पर विडियो का लिंक- https://www.facebook.com/salik2faridi/videos/2504323006279893/
(तस्वीर में भी लिंक जोड़ा हुआ है)

       ***
       खैर, एक बार फिर पहले वाले विडियो का जिक्र। इस विडियो ने हमें उस विडियो की याद दिला दी, जिसे श्रीमतीजी ने शूट किया था और जिसमें हम खुद थिरक रहे थे। हमें नाचना-गाना नहीं आता, पर क्या है कि हम किशोरावस्था के दिनों से ही शैलेन्द्र सिंह की आवाज के कायल रहे हैं। बीते जाड़े का यह विडियो है, हमने शैलेन्द्र सिंह के एक गाने पर थिरकना शुरु कर दिया था और श्रीमतीजी ने विडियो बना लिया था।
       (युट्युब पर विडियो का लिंक यहाँ है।)
       *****   

सोमवार, 6 मई 2019

214. दो पेड़: दो कहानी



       बाँस को हालाँकि पेड़ नहीं माना जाता- यह घास की श्रेणी में आता है (पादप विज्ञान के अनुसार, यह ग्रामिनीई (Gramineae) कुल की एक अत्यंत उपयोगी घास है), पर हम इसे यहाँ पेड़- पेड़ क्या, 'महीरूह' मान कर चल रहे हैं
       ***
      अपने घर के पिछवाड़े में जो थोड़ी-सी परती जगह है, वहाँ हम बाँस का पौधा रोपना चाहते थे, ताकि बहुत समय बाद वहाँ छोटा-मोटा जंगल हो जाय बाँस का। एक भागीदार से कहा, तो उसने टाल दिया। बोला- जहाँ कई बीघा परती जमीन होती है, वहाँ यह सब लगाया जाता है। यह युवा भागीदार था। फिर हमने बुजुर्ग भागीदार से अपनी बात कही। उन्होंने कहा कि चैत महीने में बाँस का पौधा रोपा जाता है। तीन या चार साल पहले की बात है। हमने चैत महीने का इन्तजार किया। चैत आया और बीतने भी लगा, आज-कल करते-करते हम जा नहीं पाये पौधा लाने। चैत का आखिरी दिन आ गया। सुबह बाहर निकलने पर उत्तम मिला मोटर साइकिल पर। हमने पीछे बैठते हुए कहा- चलो चौलिया, बाँस का चारा लाना है।
       चौलिया में भागीदार ने (हमारी ही) छोटी-सी बाँस-झाड़ में से एक बाँस जड़ सहित काटा, उसे पाँच या छह फीट का बनाया फिर उसे रोपने का तरीका हमें विस्तार से बता दिया। जड़ में भागीदार ने पाँच "आँखें" दिखायी हमें कि इससे पाँच पौधे निकलेंगे।
       घर आकर हमने और उत्तम ने निर्देशानुसार उसे रोप दिया।
       आज तीन-चार साल बाद यहाँ पाँच-सात बाँसों की अच्छी-खासी झाड़ बन गयी है। और भी तीन-चार नये बाँस के पौधे उग आये हैं। हालाँकि यह जगह घर के पिछवाड़े में ही है, पर उस कोने की तरफ आना-जाना नहीं होता है- दो-चार-छह महीने में ही कभी उस कोने की तरफ जाते हैं। कुछ दिनों पहले उधर गये थे, तो झाड़ का एक विडियो बना लिये थे। बस, उसे ही साझा करने के लिए यह ब्लॉग-पोस्ट है। अपने हाथों से रोपा हुआ कोई पौधा जब महीरूह का रुप धारण करके लहलहाता है और उस पर चिड़ियाँ चहचहाती हैं, तो कितनी खुशी मिलती है!
       ***

       एक और महीरूह (विशाल पेड़) है हमारे यहाँ- सेमल का। इसकी भी एक कहानी है।
       जहाँ तक हमें याद है, इसका पौधा पिताजी कल्याण क्रिश्चियन के यहाँ से लाये थे। कहा था कि यह उन्नत नस्ल का सेमल है। आम तौर पर पकने या सूखने के बाद सेमल के फल फटने लगते हैं और उसकी रूई के फाहे हवा में उड़ने लगते हैं। पिताजी ने कहा था कि इसमें ऐसा नहीं होगा। समय के साथ पौधा (या डाली- जो भी रही हो) बड़ा हुआ और उस पर फल लगे। देखा गया- सही में, इसके फल गर्मियों में नहीं फटते थे और रुई बर्बाद नहीं होती थी। बहुत सारे तकिये बने सेमल की रूई के।
       सेमल का पेड़ विशाल तो होता है, पर उसकी जड़ें शायद मजबूत नहीं होतीं। एक आँधी में पेड़ गिर गया। बहुत दिनों तक गिरा रहा। फिर कुछ लोगों (बेशक, भागीदार ही रहे होंगे) की मदद से उसे खड़ा किया गया। वह फिर टिक गया और फिर फल देने लगा।
       कुछ वर्षों बाद एक आँधी में वह दुबारा गिर गया। इस बार उसे उठाने की कोशिश नहीं की गयी। उसे मरने या सूखने के लिए छोड़ दिया गया। जो राजमिस्त्री हमारे यहाँ काम किया करता था, उसकी नजर पड़ी मोटे तने वाले इस मरते हुए पेड़ पर। उसने इसने खरीदने की पेशकश की। सेमल के तख्तों का इस्तेमाल यहाँ भवन-निर्माण के दौरान "शटरिंग" (हमारे इलाके में "सेण्टरिंग" कहते हैं, जो गलत है) के लिए होता है। पता नहीं क्यों, हम लोगों ने गिरे हुए पेड़ को बेचने में रुचि नहीं दिखायी।
       कुछ वर्षों बाद देखा गया कि जमीन पर गिरे हुए तने से नयी-नयी डालियाम फूट रही हैं और वे सीधी होकर नये पेड़ के रुप में बड़ी हो रही हैं। जहाँ सेमल का सिर्फ एक पेड़ था, वहीं दर्जनों पेड़ एक साथ बढ़ने लगे। आज यह एक महीरूह है। कई सारे तने सीधे खड़े हैं, जो जमीन से नहीं, बल्कि गिरे हुए मुख्य तने से निकले हुए हैं। जड़ें वही पुरानी है, जो उखड़ गयी थी- लेकिन एक हिस्सा तो जमीन से जुड़ा हुआ था ही। वर्षाकाल में यह बहुत ही घना और हरा-भरा हो जाता है। गर्मियों में इसमें फल आते हैं। फलों को पोषण देने के लिए गर्मियों में इसके ज्यादातर पत्ते झड़ जाते हैं। इस वक्त फल पक रहे हैं। फिर सूखेंगे, इन्हें तोड़ा जायेगा, इनसे रूई निकाली जायेगी और फिर उस रूई से बनेंगे तकिये आदि। सेमल की रूई तकियों के बहुत अच्छा होता है- बहुत ही मुलायम और आरामदायक।
       इस पेड़ के पुनर्जन्म से एक तो 'फीनिक्स'- सुरखाब की याद आती है, जो अपनी राख से दुबारा जन्म लेता है (बेशक, किंवदन्ति है) और दूसरे, जीवन की जीवटता को भी याद दिलाता है- कैसे गिर कर फिर से उठा जाता है...
       इति।
       *****