रविवार, 21 अप्रैल 2019

212. बरहरवा गोलीकाण्ड तथा मनोज


       हमारे बरहरवा में एक गोलीकाण्ड हुआ था- पुरानी बात है- सम्भवतः 1982 की। हमलोग आठवीं-नवीं कक्षा में थे। रेलवे स्टेशन के परिसर से पुलिसवालों ने प्रदर्शन कर रही जनता पर गोलियाँ चलायी थी। एक युवक मारा गया था। एक गोली सौ-डेढ़ सौ मीटर दूर अपने घर से बाहर खड़े हमारे दोस्त मनोज के पैर में लगी थी। गोली आर-पार निकल गयी थी। भागलपुर में शुरुआती ईलाज के दौरान डॉक्टरों का कहना था कि पैर काटना पड़ेगा। मनोज ने विरोध किया- गोली लगने के बाद मैं दौड़ कर घर के अन्दर गया था। अगर हड्डी को नुकसान पहुँचा होता, तो मैं दौड़ता कैसे? दरअसल, यह वह जमाना था, जब एक्स-रे की रिपोर्ट तीन दिनों बाद आती थी! तो तीसरे दिन पता चला कि पैर सही-सलामत रहेगा।
       आप कहेंगे, अचानक इतने वर्षों बाद इस गोलीकाण्ड की याद क्यों? तो बात यह है कि मनोज- हमारे बैच का एक 'पैन्थर'- कल (19 अप्रैल को) एक दिन के लिए बरहरवा आया था। आधी रात में ही उसे वापसी की ट्रेन पकड़नी थी। अभी वह फरीदाबाद में बस गया है। सी.ए. है- चार्टर्ड अकाउण्टैण्ट। तो हम कुछ दोस्त रात करीब तीन घण्टों तक साथ बैठे थे। दुनिया भर की बातें हुईं। उन्हीं बातों में गोलीकाण्ड वाली बात भी उठी। पता चला, तीस-चालीस लोगों को आरोपित बनाया गया था। मनोज, जो कि एक नाबालिग था और गोलीकाण्ड का भुक्तभोगी था- उसे भी आरोपित बना दिया गया था। गोलीकाण्ड के बारे में संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि रेलवे-स्टेशन पर मजिस्ट्रेट-चेकिंग के दौरान स्थानीय लोगों तथा पुलिसवालों के बीच झड़प हो गयी थी। कुछ लोगों को रेलवे की हाजत में डाल दिया गया था। बाद में हो-हंगामे के बाद क्या हुआ, क्या नहीं- यह हम नहीं जानते, पर सुनने में आया कि हाजत तोड़ कर लोग भाग गये। हालाँकि यह आरोप सही नहीं जान पड़ता- अँग्रेजों के जमाने की बनी बीस-तीस ईंच मोटी दीवार को तोड़ डालने की बात हजम नहीं होती। वैसे, जानकारों से पूछने पर सही बात का पता चल जायेगा- पर फिलहाल हम भी किसी के जख्म को कुरेदना नहीं चाहते। लेकिन कुछ लोग पुलिस हिरासत से भागे जरुर होंगे- तभी बवाल हुआ और थाने से मदद मँगवायी गयी। उस समय दिनेश सिंह नाम के एक दारोगा थे- दबंग किस्म के। उन्हीं के कारण गोलियाँ चलीं।
       खैर, वर्षों तक मुकदमा चला- पुलिस-प्रशासन-रेलवे की ओर से कभी कोई हाजिर नहीं हुआ। आई.जी. की रिपोर्ट में भी साबित हुआ कि गोली चलाने लायक स्थिति नहीं थी। मगर दुर्भाग्य से, मुकदमा खारिज नहीं हुआ- ठण्डे बस्ते में चला गया।
       वर्ष 2000 में झारखण्ड बिहार से अलग हुआ। मुकदमों का भी बँटवारा हुआ। कहा गया कि पुराने मामलों को निपटाया जाय। निपटाने के लिए केस को खोलना जरूरी था और फिर एकबार शुरु हुआ तारीख पर तारीख वाला खेल। मनोज हर तारीख पर दिल्ली से आता- हजारों रुपये खर्च करके- मिलती अगली तारीख। उसके बच्चे बड़े हो रहे थे- उनका सवाल था- आपने कुछ तो ऐसा किया होगा, जिस कारण पुलिस ने आपके पैर में गोली मारी! सोचिये, क्या हालत थी उसकी।
       अभी मात्र दो साल पहले वह मुकदमा खारिज हुआ। तब जाकर उसने चैन की साँस ली।
      
       खैर, कल की बैठकी जबर्दस्त रही- इससे ज्यादा कुछ कहा नहीं जा सकता। 


211. केंचुल



       बीते शुक्रवार को एक केंचुल मिला था, जिसकी लम्बाई 8 फीट के करीब थी- चार ईंच कम। यानि इतने लम्बे-लम्बे साँप आज भी हमारे इलाके में हैं। हम सोचते थे कि अब बड़े-बड़े साँप हमारे इलाके से- खासकर, रिहायशी इलाके से खत्म हो गये हैं। जंगल-पहाड़ों में होते होंगे, तो होते होंगे।
       केंचुल सही-सलामत था। यह मिला हमें रतनपुर में, जहाँ पुराने निर्माण को तुड़वा कर नये निर्माण का काम चल रहा है।
       कहते हैं कि मोर का साबुत पंख या साँप का साबुत केंचुल मिलना सौभाग्य का सूचक होता है। सौभाग्य वाली बात छोड़ भी दी जाय, तो आठ फीट लम्बे एक साबुत केंचुल को दुर्लभ तो कहा ही जा सकता है। हमने इसे वहीं स्टोर में रखवा दिया। यहीं थोड़ी गलती हो गयी- या तो उसे घर ले आना चाहिए था, या फिर, उसे किसी दराज में रखवाना था। अगली सुबह वह केंचुल अपनी जगह से गायब था। अब अगर चूहा ले गया हो, तो उसे कुतर कर बर्बाद कर दिया गया होगा।
       अफसोस तो हुआ कि एक दुर्लभ चीज हाथ आकर भी खो गयी- लापरवाही के चलते। गनीमत है कि एक तस्वीर ले ली थी हमने।

सोमवार, 15 अप्रैल 2019

210. संजय और आइंस्टाईन



       संजय हमारे "फर्स्ट-ब्वॉय" का नाम है- संजय डोकानियाँ। अभी वह भिलाई स्टील प्लाण्ट SAIL में AGM है।
       कहने की आवश्यकता नहीं, श्री अरविन्द पाठशाला से लेकर बरहरवा उच्च विद्यालय की दसवीं कक्षा तक वह हमेशा "टॉपर" ही रहा था। 1984 में मैट्रिक करने के बाद वह पटना सायन्स कॉलेज चला गया, फिर वहाँ से IIT, पवई। दोनों संस्थानों में वह हमेशा "टॉपर" रहा। आई.आई.टी. के बाद वह भिलाई चला गया। वहाँ नौकरी के साथ-साथ वह छात्रों को IIT के लिए तैयार भी करता था। काफी व्यस्त रहता था।
       हमारे जो सहपाठी बरहरवा से बाहर गये, उनमें से कई अक्सर यहाँ आते-जाते रहते हैं, पर कई तो एक बार भी नहीं आये। संजय का एकाध बार ही आना हुआ था। सात-आठ साल पहले शायद कुछ घण्टों के लिए उसका यहाँ आना हुआ था- हम मिल ही नहीं पाये थे।
       फिल्म "थ्री ईडियट्स" रिलीज होने के बाद हमलोगों ने उसे फोन करके बुलाया भी था कि अबे, तुम्हीं हमारे "रेंचो" हो, एकबार आ भी जाओ! पर वह नहीं आया था।
       कुछ समय पहले उसने व्हाट्सएप पर "पैन्थर्स'84" नाम से एक ग्रुप बनाया और आज करीब पचास सहपाठी हम उस ग्रुप में हैं। अब उसने कोचिंग क्लास चलाना छोड़ दिया है- बस रविवार को इच्छुक छात्रों को बुलाता है- समाजसेवा के रुप में। शायद इसलिए अब उसे समय मिलने लगा है। दरअसल, हमलोगों ने नवीं-दसवीं कक्षा में जो क्लब बनाया था, उसका नाम "पैन्थर्स क्लब" था- यही नाम उसने चुना। हमलोग बाकायदे एक लाईब्रेरी चलाया करते थे।
       खैर, इस साल रामनवमी पर वह आया यहाँ। हमारे यहाँ रामनवमी एक "महोत्सव" है। यह "पहाड़ी बाबा" की देन है, जो 1960 से '72 तक यहाँ बिन्दुधाम में रहे थे। आजकल महीने भर का मेला लगता है इस अवसर पर।
       यहाँ आने से पहले वह कोलकाता में हमारे प्रधानाध्यापक् से मिल आया था। दुःख की बात है कि अभी वे अस्वस्थ हैं- हम सब उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करते हैं। यहाँ आकर यहाँ रह रहे पूर्व-शिक्षकों से भी वह मिला। और हम कुछ दोस्त तो मिले ही।

       ब्लॉग पर इस आलेख को लिखने का कारण यह है कि कल रात (14 अप्रैल को) एक वाकया हो गया। रात दस बजे जब वह वनांचल एक्सप्रेस पर सवार हुआ, तब उसे पता चला कि अरे जा! टिकट तो बीते दिन की है- यानि 13 अप्रैल की। दरअसल, 14 अप्रैल को आसनसोल स्टेशन पर सुबह साढ़े तीन बजे उसे दूसरी ट्रेन पर सवार होना था, जो भिलाई तक जाती। चूँकि उसने रिजर्वेशन जनवरी में ही करा लिया था, इसलिए उसके दिमाग में सिर्फ "14 अप्रैल" तारीख ही घूमती रही। वह भूल गया कि बरहरवा से उसे 13 अप्रैल की रात में ट्रेन पकड़नी है। आज वह एक दूसरी ट्रेन से हावड़ा गया और वहाँ से भिलाई जायेगा।
       अब हमारे जो भी दोस्त इस वाकये के बारे में सुनेंगे, वे एक ही सवाल करेंगे कि "हमारे "फर्स्ट-ब्वॉय"  से यह गलती भला कैसे हो गयी?"
       ...तो इसके जवाब में हम आइंस्टाईन का एक वाकया सुनाना चाहते हैं।
      
एक समय में आइंस्टाईन के पास दो बिल्लियाँ थीं- एक बड़ी, दूसरी छोटी। आइंस्टाईन ने घर के मुख्य दरवाजे पर दोनों बिल्लियों के आने-जाने के लिए दो छेद बनवाये- एक बड़ा छेद और दूसरा छोटा छेद। बड़ा छेद बड़ी बिल्ली के लिए और छोटा छेद छोटी बिल्ली के लिए।
आइंस्टाईन के दिमाग में यह नहीं आया कि जो छोटी बिल्ली है, वह बड़े छेद से ही आना-जाना कर लेगी- उसके लिए अलग से छोटे छेद की जरुरत नहीं!
कहने का मतलब... ऐसा होता है... ऊँची आई.क्यू. वाले दिमाग वालों के साथ भी कभी-कभी ऐसा होता है...
ऐसे ही पल जिन्दगी में यादगार होते हैं...  
***
तस्वीर में- लाल घेरे में संजय।  

रविवार, 14 अप्रैल 2019

209. रामनवमी' 2019: दो दृश्य






       ये दोनों तस्वीरें कल की हैं। हमारे यहाँ के बिन्दुधाम की। दोनों के बीच फासला सौ मीटर से ज्यादा का नहीं होगा। एक ओर पूरे ताम-झाम एवं आडम्बर के साथ महाशतचण्डी यज्ञ की पूर्णाहुति चल रही है, तो दूसरी तरफ धरतीपुत्र "साफा होड़" (आदिवासियों का वह समुदाय, जिसने ईसाई धर्म नहीं अपनाया है और जो हिन्दू धर्म के बहुत-से त्यौहारों को मनाता है) निष्ठा एवं श्रद्धा के साथ अनुष्ठान कर रहे हैं।
       एक तरफ पक्की यज्ञशाला और पक्का हवनकुण्ड है, तो दूसरी तरफ खुला आकाश और वृक्ष की छाँव। एक हवन कुण्ड में ढेरों लकड़ियाँ स्वाहा हो रही हैं- घी के साथ; तो दूसरी तरफ उपले के छोटे-से टुकड़े से हल्का-सा धुआँ उठ रहा है।
       एक तरफ जय श्रीराम और हर-हर महादेव का घोष हो रहा है, तो दूसरी तरफ शान्त स्वर में भजन गाये जा रहे हैं- उनकी अपनी धुन एवं बोली में।  

       मैं- एक प्रकृति एवं पर्यावरण प्रेमी होने के नाते खुद को साफा होड़ लोगों के अनुष्ठान के करीब पाता हूँ- आप अपना पक्ष चुनने के लिए स्वतंत्र हैं।