कल जाने क्या सूझा, हम
शाम ढलने के बाद 'शिवगादी' के लिए रवाना हुए। उद्देश्य- सावन की पहली सोमवारी पर
शिव की पूजा-अर्चना। योजना जयचाँद की थी। मेरा पाषाणयुगीन स्कुटर (बजाज- लीजेण्ड)
कुछ समय से पंगु खड़ा है। जयचाँद ने ही अपने मित्र की स्कुटी की व्यवस्था की मेरे
लिए। करीब 30 किलोमीटर का रास्ता है- 20-22 किलोमीटर पर बरहेट कस्बा है और फिर,
वहाँ से शिवगादी की गुफा 7 किलोमीटर दूर है। रास्ते का ज्यादातर हिस्सा पहाड़ियों
की तलहटी से होकर गुजरता है- सिर्फ बरहरवा से निकलते ही एक जुड़वाँ पहाड़ी की चढ़ाई
पार करनी पड़ती है। वापसी में रात होगी, यह तो पता था; मगर मूसलाधार वर्षा होगी-
इसका जरा भी अन्दाजा हमें नहीं था।
हमलोग शाम करीब छ्ह बजे निकले थे। सड़क अच्छी है। जब तक हम शिवगादी
पहुँचे, अन्धेरा घिर चुका था। यह प्राकृतिक गुफा एक पहाड़ी पर है। गुफा की बाहरी
दीवारों से सदा पानी टपकता- बल्कि बरसता रहता है और यही यहाँ का मुख्य आकर्षण है।
गुफा के अन्दर भी पत्थर की छत से पानी टपकता रहता है। अब यह स्थल 'गजेश्वर धाम' का
रुप ले चुका है और इसकी गिनती देवघर के बाबाधाम और बासुकीधाम के बाद होने लगी है।
सावन भर यहाँ मेला लगा रहता है। हमलोगों ने अपने बचपन और कैशोर्य में इसका विशुद्ध
"प्राकृतिक" रुप देखा है। तब झारखण्ड बिहार से अलग नहीं हुआ था। सड़कें
टूटी-फूटी हुआ करती थीं। बरहेट से शिवगादी वाली सड़क कच्ची थी- पथरीली। कमर भर पानी
में डूबकर गुमानी नदी को पार करना पड़ता था। गुफा तक की चढ़ाई 'पर्वतारोहण' हुआ करता
था। तब भी अच्छी-खासी संख्या में यहाँ काँवड़िये आते थे- फरक्का से गंगा-जल लेकर।
करीब 50-60 किलोमीटर की काँवड़-यात्रा बनती थी।
अब तो बात ही कुछ और है। सड़क
शुरु से अन्त तक अच्छी है, गुमानी नदी पर पुल (बाँध सहित) बन चुका है, झारखण्ड
सरकार ने तथा यहाँ की स्थानीय समिति ने बहुत खर्च करके इस स्थल पर बहुत से निर्माण
कार्य किये हैं। सावन में बड़ी संख्या में काँवड़िये आते हैं- खासकर, बंगाल से।
ज्यादातर पैदल ही होते हैं, पर मोटर-साइकिल या चारपहिया वाहनों में भी बहुत लोग
आते हैं।
खैर, गुफा में प्रवेश करने पर
हमने देखा कि विशेष-पूजा चल रही है। बरहेट के ही किसी परिवार की ओर से पूजा चल रही
थी। लगा, पूजा लम्बी चलेगी। एक परिचित- जो प्रतिदिन बरहरवा आते हैं- के माध्यम से
हमने पण्डितजी और पूजा करवाने वाले परिवार से कहलवाया कि हमें भी जल चढ़ाना है। उनकी
पूजा को थोड़ी देर के लिए विश्राम दिया गया। जयचाँद की पत्नी और अंशु ने बैठकर पूजा की। पिछले कई वर्षों से हर साल सावन में एकबार यहाँ आना हो रहा है, मगर रात्रि
में यह पहली बार आना हुआ। अच्छा ही लगा।
नीचे आकर हमने और जयचाँद ने
चाय पी और उनदोनों ने थोड़ी खरीदारी की। जब हम वापसी की यात्रा पर रवाना हुए, तो
काले आकाश में दूर बिजलियाँ चमक रही थीं। बरहेट से निकलने के कुछ देर बाद
बूँदा-बाँदी शुरु हुई और इसके बाद उतरी मूसलाधार वर्षा। एक यात्री-पड़ाव में हमने
शरण लिया। कुछ ही देर में तीन मोटर-साइकिलों पर सवार छह और लोगों ने वहीं शरण लिया।
पहले तो कुछ पता नहीं चला कि वे कौन लोग हैं, लेकिन जल्दी ही उनके टीम-लीडर ने
हमें पहचान लिया। वे ठेके पर छतों की ढलाई करने वाले लोग थे। हमारे 'रतनपुर
प्रोजेक्ट' की दूसरी छत की ढलाई इन्हीं लोगों ने की थी। पता चला, आज इनकी मशीन
खराब हो गयी थी, इसलिए ये काफी देर से लौट रहे थे- बरहेट में कहीं ढलाई कर रहे थे
ये।
वर्षा का रंग-ढंग देखकर लगा-
यह जल्दी थमने वाली नहीं है। इधर समय रात के नौ बजे से ऊपर का हो रहा था। अन्त
में, उस तेज वर्षा में ही हम सब निकल पड़े। बारिश की बूँदें चेहरे पर चोट कर रही
थीं। शरीर रह-रह कर ठिठुर रहा था। अन्धेरी रात, जंगली-पहाड़ी रास्ता, तेज वर्षा,
मोटर-साइकिलों की हेडलाइट की रोशनी- सबने मिलकर इस छोटे-से सफर को 'एडवेंचर' में
बदल दिया।
पहाड़ियों से उतरकर बरहरवा की
सीमा में प्रवेश करने के बाद एक दूकान खुली दिखायी दी। दूकानदार से प्लास्टिक की
थैली लेकर मोबाइल को सुरक्षित किया गया। इसके बाद बारिश की रफ्तार कुछ कम हुई। हालाँकि
घर आने तक वर्षा हो ही रही थी।
कुल-मिलाकर, शिवगादी की यह
रात्रि-यात्रा यादगार हो गयी।