रविवार, 22 अक्टूबर 2017

188. हस्ताक्षर




       ऊपर तस्वीर में अँग्रेजी में जो हस्ताक्षर है (Jaydeep), उसे किया भले हम्हीं ने है, मगर वह मेरा हस्ताक्षर नहीं है। हम यह हस्ताक्षर कभी नहीं करते, कहीं नहीं करते। हमने इसकी खोज या इसका आविष्कार भी नहीं किया। मेरा खुद का हस्ताक्षर हिन्दी, यानि देवनागरी में होता है, जिसमें 'जयदीप' लिखा होता है।
       पिताजी तीनों भाषाओं में सुन्दर हस्ताक्षर किया करते थे। अँग्रेजी में J.C. Das लिखा होता था और हिन्दी-बँगला में 'जगदीश'। हमने हिन्दी वाले हस्ताक्षर का नकल किया। शुरु-शुरु में मेरे हस्ताक्षर में ज य दी और प- चारों को पढ़ा जा सकता था- हालाँकि वे आपस में सटे हुए होते थे; मगर धीरे-धीरे सारे वर्ण आपस में ऐसे गुथ गये कि अब अलग से इन वर्णों को पढ़ा नहीं जा सकता।
       एक बार मेरी किसी किताब पर या शायद किसी कॉपी पर हमने देखा कि किसी ने अँग्रेजी में मेरा हस्ताक्षर कर रखा था। वह बहुत ही सुन्दर था। हमने कई बार नकल किया, पर उसे हम साध नहीं पाये। हाँ, इतना हुआ कि उसका पैटर्न हमें याद रहा। वह हस्ताक्षर किसने किया था- यह हमें वास्तव में नहीं पता! हमने पिताजी से कभी पूछा भी नहीं। बहुत सम्भव है, उन्होंने ही किया हो।
       खैर, अभी फेसबुक पर एक विज्ञापन आ रहा है, जिसमें छायाकारों से कहा जा रहा है कि वे 'लोगो' के रुप में अपने हस्ताक्षर को तस्वीर में उकेर सकते हैं। बेशक, यह एक व्यवसायिक विज्ञापन है और इस युक्ति को पाने के लिए हमें पैसे खर्च करने होंगे।
       तो इसीलिए हमने अभिमन्यु से पूछा कि तस्वीर पर हस्ताक्षर को उकेरने के लिए क्या किया जा सकता है? उसने "कोरल ट्रेस" की मदद लेने को कहा। काम शुरु करने से पहले अचानक हमें ध्यान आया कि क्यों न इस काम के लिए उस "अँग्रेजी" वाले हस्ताक्षर का उपयोग किया जाय, जिसकी खोज हमने नहीं की थी और जिसे हम कभी-कहीं नहीं करते! इसमें नाम भी साफ पढ़ा जा सकता है।
       वही किया। चार-पाँच बार उस हस्ताक्षर का अभ्यास किया, जो ठीक बना, उसे 'स्कैन' किया, फिर कोरल ट्रेस में ले जाकर उसे ट्रेस किया और फिर एक तस्वीर में उसे चिपकाया। पता चला, बीच-बीच में कुछ हिस्से 'भरे हुए' नजर आ रहे हैं, जहाँ लकीरें एक 'बन्द' स्थान बना रही थीं। कई बार कोशिश करके भी सफलता नहीं मिली। फिर एक उपाय सूझा। 'कोरल फोटो-पेण्ट' में इमेज को ले जाकर 'इरेजर' का इस्तेमाल करते हुए 'बन्द' लाईनों में महीन 'कट' लगा दिया। अब सफलता मिल गयी। 'ट्रेस' में ही इमेज को 'इनवर्ट' करके सफेद लाईनों में हमने हस्ताक्षर हासिल कर लिया।
       इस 'लोगो' को दीवाली के शुभकामना सन्देश के साथ पहली बार हमने प्रस्तुत किया। अब "राजमहल पहाड़ियों" शृँखला वाली तस्वीरों पर भी इसका इस्तेमाल करते हुए उन्हें प्रस्तुत करने जा रहे हैं।
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रविवार, 15 अक्टूबर 2017

187. कंचनगढ़ की गुफा



 
गुफा में रह रहे- बाबा, जो पहाड़िया समुदाय से हैं.
       पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि इस गुफा में देखने लायक कुछ नहीं है। यह बस एक पहाड़ी गुफा है। यह प्राकृतिक है या मानव-निर्मित- पता नहीं। यह कितना प्राचीन है- इसकी भी जनकारी नहीं। वैसे, "रोमांच" के लिए हम यह कल्पना कर सकते हैं कि यह गुफा प्रागैतिहासिक काल की है- जब मनुष्य कन्दराओं में रहा करता था! (ध्यान रहे, हमारी "राजमहल की पहाड़ियाँ" जुरासिक काल की हैं- डेढ़-दो सौ करोड़ साल पुरानी!)

गुफ-सामने से

एक शिवलिंग स्थापित है वहाँ
गुफा में कुछ अन्दर की तरफ

गुफा के बाहर का दृश्य
खास इसे देखने जाने के लिए कार्यक्रम नहीं बनाया जाना चाहिए। हाँ, अगर आप छुट्टी का दिन किसी प्राकृतिक स्थल में बिताना चाहते हैं, तो आपके लिए लगभग 20 किलोमीटर का पूरा यह रास्ता एक उपयुक्त स्थान है। सड़क से गुजरते वक्त आप कंचनगढ़ की इस गुफा की ओर भी जा सकते हैं। 
       पूरी बात इस प्रकार है-
       लिट्टीपाड़ा चौराहे से आमरापाड़ा की ओर बढ़ते समय थाना पार करके दाहिने नजर रखिये- एक सड़क दिखायी देगी। उस पर बढ़ जाईये। "लबदा घाटी" नाम से एक बस्ती आयेगी। बस्ती से निकलने के बाद असली घाटी आयेगी। खासा चढ़ाव है। यहीं से नयनाभिराम दृश्यों की शुरुआत हो जाती है। खूब तस्वीरें खींचिये, सेल्फी लीजिये और वीडियो बनाईये। 


घाटी वाली सड़क से गुजरते समय बाँयी तरफ नजर रखिये- बोर्ड लगा होगा- "कंचनगढ़ गुफा"। उल्टा "U" आकार की सड़क गुफा के लिए जाती है, यानि एक सड़क से अन्दर जाकर आप दूसरी सड़क से लौट सकते हैं- मुख्य सड़क पर। बिल्कुल पहाड़ से सटकर सड़क खत्म होती है। गाड़ी वहीं छोड़िये और पहाड़ की पगडण्डी पर पैदल चलना शुरु कर दीजिये। करीब सौ मीटर की चढ़ाई के बाद आप गुफा के सामने होंगे। 


गुफा देखने के बाद फिर आगे बढ़ना शुरु कर दीजिये। दाहिनी ओर बोल्डर की "गार्ड वाल" है और इस वाल की दूसरी तरफ एक बार फिर नयनाभिराम दृश्यों का सिलसिला शुरु हो जायेगा। एकबारगी यकीन नहीं होगा कि हम सन्थाल-परगना में राजमहल की पहाड़ियों की वादियों में हैं! लगेगा- किसी प्रसिद्ध पर्यटन स्थल पर आ गये हैं! यहाँ भी खूब फोटोग्राफी कीजिये। 

14 किलोमीटर पर "तिराहा" आयेगा- दाहिने "सिमलौंग" है, बाँये- "कुंजबोना"- एक गाँव। कोयले का खदान देखने का शौक हो, तो सिमलौंग जाया जा सकता है (बेशक, हम नहीं गये थे)। हम बाँये गये थे- कुंजबोना की ओर। प्राकृतिक दृश्यों का उपभोग करते हुए आप भी आगे बढ़ते रहिये- सड़क क्या है- बस "साँप" है... "लहरिया" काटते हुए बढ़ते रहिये। । 
आप पहुँच जायेंगे- "पकलो"। लिट्टीपाड़ा से पकलो तक की यह सड़क हाल ही में बन कर तैयार हुई है- दो साल पहले 10-12 किलोमीटर सड़क निर्माणाधीन थी और हमलोग मुश्किल से इसे पार कर पाये थे। अभी तो फर्राटा भरते हुए सफर किया जा सकता है- इससे पहले कि सड़क खराब होनी शुरु हो- इस पर सफर का लुत्फ उठा लीजिये- हो सके, 2018 का नया साल यहीं मनाईये... 

खैर, पकलो से दाहिने मुड़ियेगा, तो ढाई किलोमीटर बाद आप "वायु सेना स्थल, सिंगारसी" के मुख्य द्वार पर खुद को खड़ा पायेंगे- चाहे तो जा सकते हैं उस तरफ- उधर ज्यादातर चढ़ाव है। नहीं तो पकलो से बाँये मुड़ जाईये- इधर ढलान ही ढलान है- करीब पन्द्रह किलोमीटर बाद आप मुख्य सड़क पर होंगे- दाहिनी तरफ आमरापाड़ा, बाँयी तरफ लिट्टीपाड़ा- जिधर जाना हो, बढ़ जाईये...
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नोट- हो सका, तो बाद में कुछ वीडियो के लिंक यहाँ प्रस्तुत करुँगा.


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पुनश्च:
1.   जो बात मेरी समझ में नहीं आ रही है, वह यह है कि जिस इलाके में यह गुफा है, उसका नाम "कंचनगढ़" क्यों है? आदिवासी इलाकों में ऐसे नाम तो नहीं होते! क्या इस स्थान का कोई इतिहास है?
2.   प्रसंगवश, बता दूँ कि हमारे इस इलाके का पुराना नाम "कजंगल" है। पूरब में गंगा-गुमानी नदियों का संगम; पश्चिम में तेलियागढ़ी का किला; उत्तर में गंगा नदी और दक्षिण में राजमहल पहाड़ियों की तलहटी- इस चौहद्दी के बीच का क्षेत्र "कजंगल" कहलाता था। कायदे से इस पर शोध नहीं हुआ है।
3.   गुफा में जो बाबा बैठे हुए थे उनसे हमने यह पूछा था कि इस गुफा के बारे में आप क्या जानते हैं? उनका कहना था धरती माँ की शुरुआत के समय से यह गुफा है। मैं यह पूछ सकता था कि क्या आप इसे "पिल्चू बूढ़ी" और "पिल्चू हाड़ाम" का घर मानते हैं, पर पता नहीं क्यों, नहीं पूछा। पूछना चाहिए था। (मनु-श्रद्धा या आदम-हौव्वा के आदिवासी संस्करण हैं- पिल्चू बूढ़ी, पिल्चू हाड़ाम।)  
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