बुधवार, 13 मई 2015

136. क्या गाँधीजी कभी बरहरवा स्टेशन से गुजरे थे?


       महात्मा गाँधी कभी बरहरवा रेलवे स्टेशन से गुजरे हैं या नहीं, पता नहीं; मगर "बनफूल" के उपन्यास "भुवन सोम" में ऐसी एक घटना का जिक्र है। हो सकता है, यह घटना काल्पनिक हो, मगर चूँकि इस घटना में बरहरवा स्टेशन का जिक्र है, इसलिए मैं घटना का वर्णन हिन्दी में प्रस्तुत कर रहा हूँ।
       बता दूँ कि "भुवन सोम" 1956 का उपन्यास है; इस पर मृणाल सेन ने 1969 में फिल्म बनायी थी; मुख्य भूमिका में उत्पल दत्त थे; फिल्म को बेस्ट फिल्म, बेस्ट डायरेक्टर और बेस्ट एक्टर के राष्ट्रीय पुरस्कार मिले थे; और जैसी कि विकीपीडिया से जानकारी मिल रही है, फिल्म में सूत्रधार की भूमिका में अमिताभ बच्चन थे। इस फिल्म को भारतीय सिनेमा का एक "मील का पत्थर" माना जाता है।
       खैर, तो उपन्यास का वह अंश प्रस्तुत है:
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       बहुत दिनों पहले की एक घटना याद हो आयी। तब मिस्टर एम.के. गाँधी- महात्मा गाँधी नहीं बने थे; भुवन सोम भी एस.टी.एस. नहीं बने थे। भुवन सोम तब एक मामूली किरानी थे, थर्ड क्लास का पास मिलता था उन्हें। बरहरवा स्टेशन पर थर्ड क्लास की एक ट्रेन में सवार हुए थे वे। गाड़ी में बहुत भीड़ थी, फिर भी, बड़ी-सी पगड़ी बाँधे एक दुबले व्यक्ति पर उनकी नजर पड़ गयी- वे एक कोने में बैठकर अखबार पढ़ रहे थे। उनके बगल में दाढ़ी वाला एक बूढ़ा बैठा हुआ था। अब ट्रेन में तो कितने ही प्रकार के चेहरे दिखायी पड़ जाते हैं! शुरु में भुवन सोम ने ध्यान नहीं दिया; लेकिन अन्त में देना पड़ा।
       बूढ़े ने कुछ देर बाद ही खाँसने के बाद घरघराते हुए कफ खींचा और उसे बाहर न फेंककर ट्रेन के फर्श पर ही थूक दिया। पगड़ी वाले व्यक्ति ने अखबार से नजरें हटाकर तुरन्त हिन्दी में कहा, "यह तो आपने गलत किया, फर्श पर क्यों थूक रहे हैं? बाहर थूक फेंकिये।" बिलकुल सही प्रतिवाद था। दाढ़ी वाला बूढ़ा लेकिन पक्का खूसट निकला। शुरु में तो बात का कोई जवाब ही नहीं दिया उसने। हाँफता रहा। हाँफ पर काबू पाने के बाद उसने अपनी स्थिति साफ की। आँखें गोल करते हुए उसने बताया कि ठण्ड लग जाने के कारण उसके सीने में कफ जमा हो गया है, खिड़की से मुँह निकालने पर और भी ठण्ड लग सकती है, इसलिए वह तो गाड़ी के फर्श पर ही थूकेगा। इससे अगर किसी को परेशानी हो, तो वह उठकर अन्यत्र जा सकता है। ट्रेन किसी के बाप की सम्पत्ति नहीं है।
       भुवन सोम मारे गुस्से के तिलमिला उठे, मगर उन्होंने कुछ कहा नहीं। अकारण दूसरों के मामले में पड़ने से भारी मुश्किल में पड़ जाना पड़ता है- इस बात को बहुत सारे धक्के खाकर वे पहले ही हृदयंगम कर चुके थे। वे चुप ही रहे।
       लेकिन पगड़ी वाले उस दुबले व्यक्ति ने जो किया, वह अद्भुत था। अखबार से थोड़ा-सा कागज फाड़कर अपने हाथों से उन्होंने कफ को उठाकर बाहर फेंक दिया। दाढ़ी वाला बूढ़ा आँखें गोल किये देखता रहा, मगर कुछ बोला नहीं वह। इसके बाद फिर उसे खाँसी का दौरा पड़ा, फिर आक्- करके उसने गाड़ी के फर्श पर थूका। पगड़ी वाले व्यक्ति ने फिर कागज से पोंछकर कफ को बाहर फेंक दिया। बोगी के सभी यात्री बैठकर मुफ्त में मजे ले रहे थे। दूर से मजे लेना ही हमलोगों का रष्ट्रीय स्वभाव है- सड़क पर कोई एक मामूली बात होते ही मजमा लग जाता है।
       बूढ़े ने तीसरी बार गाड़ी के फर्श पर थूक फेंका और पगड़ी वाले व्यक्ति ने तीसरी बार भी कागज से उसे उठाकर बाहर फेंक दिया। इस बार बूढ़ा बड़ी-बड़ी आँखें किये पगड़ी वाले व्यक्ति की तरफ देखता रह गया, फिर हिन्दी में बोला, "यह आप क्या कर रहे हैं?"  
       पगड़ी वाले व्यक्ति ने कुछ कहा नहीं, उसके चेहरे पर मृदु हँसी खेल गयी- बहुत ही मधुर मुस्कान- भुवन सोम ने ऐसी मधुर मुस्कान कभी नहीं देखी थी।
       डिब्बे के सभी यात्री साँस रोके प्रतीक्षा कर रहे थे कि बूढ़े को खाँसी का अगला दौरा कब पड़ता है। मानो सभी कोई फुटबॉल मैच देख रहे हों।
       कुछ ही देर में खाँसी का दौरा पड़ा, लेकिन इस बार बूढ़े ने गाड़ी के फर्श पर कफ नहीं थूका, चेहरा निकाल कर खिड़की के बाहर थूका उसने। डिब्बे के सभी लोग हो-हो कर हँस पड़े।
       इसके बाद ट्रेन एक स्टेशन पर आकर रुकी। पता चला कुछ सज्जन हाथों में फूलमालायें लिये स्टेशन पर खड़े थे। पगड़ी वाले व्यक्ति के उतरते ही उन्हें मालायें पहनायी गयीं। तब जाकर पता चला। वे पगड़ी वाले दुबले व्यक्ति अफ्रिका से लौटे बैरिस्टर थे- विश्वविजयी मिस्टर एम.के. गाँधी।
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       यह उपन्यास अभी मैंने पढ़ना शुरु ही किया है। पहले साहेबगंज का जिक्र आया, फिर पाकुड़ का और फिर बरहरवा का। तब मैंने पढ़ना छोड़ इस पोस्ट को लिखना शुरु किया।
       यानि इस उपन्यास का हिन्दी अनुवाद तो अब मुझे करना ही करना है- भले थोड़ा समय लग जाय...
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पुनश्च:
·         मानवेन्द्र सिंह जी को धन्यवाद, जिनके कारण मैंने इस उपन्यास को मँगवाया। वरना, मैं "बनफूल" के हास्य उपन्यास "भीमपलश्री" से (उपन्यासों के) अनुवाद का काम शुरु करने की सोच रहा था।
·         आज भी हमारे इलाके में ऐसे रेलयात्रियों की कमी नहीं है, जो ट्रेन में सवार होने के कुछ ही मिनटों के अन्दर बोगी के फर्श को मूँगफली के छिलकों से गन्दा कर देते हैं। खिड़की के पास बैठा यात्री तक फर्श पर ही छिलके फेंकता है।  
फिल्म की जानकारी: