"हजारदुआरी" (हजारद्वारी) नामक
एक महल है बंगाल के मुर्शिदाबाद शहर में, जो आस-पास के इलाकों में काफी प्रसिद्ध
है। इतावली शैली में बना यह महल 1829 से 1837 के बीच बना था। बनवाया था नवाब नाज़िम
हुमायूँजा ने। तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड बेण्टिक आधारशिला रखने के कार्यक्रम में
उपस्थित हुए थे। महल निर्माण में खर्च आया था- 16 लाख रुपये। तब एक मजदूर की
मजदूरी 5 पैसे तथा एक राजमिस्त्री की मजदूरी 2 आना (12 पैसे) हुआ करती थी! कहा
जाता है कि चिनाई के वक्त कत्थे और सौंफ के पानी तथा अण्डे की जर्दी का बड़ी मात्रा
में इस्तेमाल हुआ था- दीवारों को मजबूती देने के लिए। दरवाजों एवं खिड़कियों की बड़ी
संख्या के कारण ही इसे हजारद्वारी कहा जाता है।
आज यह महल एक शानदार संग्रहालय है। तलवार, भाले, बन्दूक से
लेकर हाथी दाँत से बने सिंहासन, पालकी, हौदे, विशालकाय तैलचित्र (यूरोपीय
चित्रकारों के- रैफेल, मार्शल-जैसे नामी चित्रकारों के भी) और रोमन शैली की
संगमर्मर की मूर्तियाँ यहाँ के आकर्षण है। दुमंजिले का मुख्य दरबार हॉल में लटकता
विशाल झूमर महारानी विक्टोरिया का तोहफा है। झूमर से याद आया, ग्वालियर में
सिंधिया के महल में शायद इससे भी बड़ा झूमर छत (बेशक, गुम्बज) से लटक रहा है, जिसका
वजन गाईड ने कई टन बताया था और कहा था कि बगल के महल की छत से इस गुम्बज पर पहले
हाथी चलवाये गये थे, तब जाकर झूमर को छत से लटकाया गया था!
पहले मंजिल में सीढ़ियों के पास एक विशाल मगरमच्छ की
"ममी" रखी है; उसके ऊपर बहुत ही मोटे एक बाँस का टुकड़ा रखा है, और उसी के
दोनों कोनों पर दो (एक में चार दर्पण) दर्पण रखे हैं, जो काफी प्रसिद्ध हैं। दर्पण
में दो दर्पणों को लगभग नब्बे डिग्री पर इस तरह जोड़ा गया है कि हर व्यक्ति को
आस-पास खड़े सभी संगी-साथियों के चेहरे तो दीखते हैं, मगर खुद का चेहरा कभी नहीं
दीखता!
खैर, हजारदुआरी में दुमंजिले का पुस्तकालय आम लोगों के लिए बन्द
है और जैसा कि गाईड बुक से पता चला, यहाँ बहुत तरह की चिड़ियों की "ममी"
की भी एक गैलरी है, जो शायद फिलहाल बन्द है। पटना म्यूजियम में इस तरह की गैलरी
देखा था।
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यह मुर्शिदाबाद शहर हमारे बरहरवा से कोई
ज्यादा दूर नहीं कहा जा सकता- ढाई-तीन घण्टों का रास्ता है एक तरफ से। फिर भी, मैं
अभी तक नहीं जा पाया था। पूरब में बरहरवा के 20 किलोमीटर बाद से ही बंगाल के
मुर्शिदाबाद जिले की सीमा शुरु हो जाती है- पहला शहर फरक्का है।
जो कोचिंग इंस्टीच्यूट हमारे घर (के एक
हिस्से) में चलता है, उन्हीं का कार्यक्रम था, मुर्शिदाबाद का- बीते कल 27 दिसम्बर
को। हम भी साथ हो लिये। सुबह 7 बजे से पहले तीन गाड़ियों में हमसब रवाना हुए।
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हजारद्वारी से पहले हम कटरा मस्जिद गये-
रास्ते में यही पहले पड़ता था। इसे नवाब मुर्शिदकुली खाँ ने बनवाया था। मुर्शिदकुली
खाँ हिन्दू (ब्राह्मण) परिवार में जन्मे थे। सम्भवतः गरीबी के कारण मुसलमान सौदागर
हाजी इसपाहन के नौकर (गुलाम?) बने। वहीं उन्होंने ईस्लाम धर्म कबूला और मोहम्मद
हादी बने। बाद के दिनों में उनकी योग्यता को देखते हुए बादशाह औरंगजेब ने उन्हें
ढाका का दीवान नियुक्त किया- नाम दिया उनका- करतलब खाँ। राजस्व वसूली के मामले में
उनका प्रदर्शन बहुत ही अच्छा था। मगर बंगाल (बिहार, उड़ीसा सहित) के गवर्नर औरंगजेब
के पोते अजीमुस्सान के साथ कुछ मतभेद उभरने के कारण राजस्व विभाग के कर्मचारियों
के साथ वे अपना दफ्तर 'मुकसुदाबाद' ले आये।
दक्षिण की लड़ाईयों के बाद जब औरंगजेब का
खजाना खाली हो गया था, तब करतलब खाँ ने एक करोड़ रुपये का राजस्व शाही खजाने में
जमा करवाया। प्रसन्न होकर औरंगजेब ने करतलब खाँ को नाम दिया- 'मुर्शिदकुली खाँ' और
बेशक, 'मुकसुदाबाद' का नया नामकरण हुआ- "मुर्शिदाबाद"! बंगाल के नवाब के
रुप में उन्होंने बहुत ही योग्यतापूर्वक शासन किया- बिना किसी धार्मिक भेदभाव के।
1725 में मृत्यु के बाद उनको उनके ही
द्वारा बनवाये गये इस विशाल कटरा मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे दफनाया गया- ताकि
मस्जिद में नमाज पढ़ने आने वालों की पदधूलि से उनका परलौकिक जीवन धन्य हो। मृत्यु
से पहले ही वे इस छोटी-सी कोठरी में रहने लगे थे। बाद के दिनों में उनकी बेटी अजिमुन्नेशा
ने भी यही रास्ता अपनाया। हालाँकि अजीमुन्नेशा की बनवायी मस्जिद ध्वस्त हो गयी है-
सिर्फ एक दीवार बची है। उनकी कब्र भी सीढ़ियों के नीचे ही है।
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कटरा मस्जिद से हम हजारद्वारी गये। हजारद्वारी का संग्रहालय
घूमने से पहले हम सबने नाश्ता किया और घूमने के बाद वहीं खाना भी खाया। गंगातट है-
पिकनिक मनाने वालों की भी काफी संख्या मौजूद थी।
सामने इमामबाड़ा भी है। इसे नवाब फेरादुनजा ने 1847 में
बनवाया- 6 लाख खर्च करके। हालाँकि यहाँ कभी नवाब सिराजुद्दौला ने इमामबाड़ा बनवाया
था- मगर वह लकड़ी की थी और उसके ध्वस्त होने पर ही बाद में आज का इमामबाड़ा बना है।
कहते हैं कि यहाँ पैगम्बर के पदचिह्न रखे हुए हैं।
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फिर हम सबने अजीमुन्नेशा की समाधि देखी। वहाँ से नशिपुर
राजबाड़ी गये। यह राजपरिवार इतिहास में बदनाम रहा है- जबरन करवसूली के कारण। इनके
महल का देखा, जीर्णोद्धार चल रहा है। एक हिस्से को संग्रहालय सह कला-दीर्घा बनाने
की कोशिश की जा रही है। वहाँ दो कलाकृतियाँ देखने को मिली- एक नाव और एक पालकी-
अगर ये हाथी दाँत की बनी हैं, तो वाकई नायाब हैं।
पास ही में इतिहास में बदनाम जगत सेठ का भी भवन था। वहाँ
हमारा जाना नहीं हुआ। पलासी की लड़ाई भारतीय इतिहास की एक दुखती रग है और जगत सेठ
तथा मीर जाफर (सिराजुद्दौला के सेनापति) भारतीय "दगाबाजी" के ज्वलन्त
उदाहरण हैं।
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यूँ तो मुर्शिदाबाद तथा इसके आस-पास के क्षेत्रों में 30 से
ज्यादा ऐतिहासिक स्थल हैं- कर्ण-सुवर्ण में 6ठी-7वीं सदी में बने बौद्ध स्तूपों
(इनका जिक्र ह्वेनसांग के लेखों में है) के अवशेषों से लेकर कासिमबाजार में वारेन
हेस्टिंग्स की पत्नी मेरी तथा शिशु कन्या एलिजाबेथ की समाधियों तक; मगर एक दिन की
सैर में सब देख पाना सम्भव ही नहीं है।
हमारा अन्तिम पड़ाव था- काठगोला का बागान। दुगर परिवार
द्वारा निर्मित। वे सम्भवतः राजस्थान से आये थे। साज-सजावट में राजस्थानी शैली
स्पष्ट है। वे भी जैन भी रहे होंगे। सो, बावली भी है, जिसमें न केवल सुन्दर
मछलियाँ हैं, बल्कि कहीं (हम देख तो नहीं पाये) मछलियों की समाधियाँ भी हैं!
दिनभर की सैर के बाद अन्तिम पड़ाव के लिए यह उपयुक्त जगह है-
छोटा-सा सुन्दर महल, खुले मैदान, सुन्दर बाग, एक जैन मन्दिर और भी बहुत कुछ।
गुलाबों की किस्मों का तो कोई अन्त ही नहीं था।
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वहीं से हमारी वापसी हुई- रात नौ बजे से पहले हम अपने-अपने
घरों में थे।
Imambada, Murshidabad |
Hajardwari, Murshidabad |
Imambada, Murshidabad |
Hajardwari, Murshidabad |
Katra Masjid, Murshidabad |
Katra Masjid, Murshidabad |
Ajimunnesha's Tomb, Murshidabad |
Ajimunnesha's Tomb, Murshidabad |
Nashipur Rajbadi, Murshidabad |
Nashipur Rajbadi, Murshidabad |
Kathgola Bagan, Murshidabad |
Kathgola Bagan, Murshidabad |
Kathgola Bagan, Murshidabad |
Kathgola Bagan, Murshidabad |
Kathgola Bagan, Murshidabad |
Kathgola Bagan, Murshidabad |