यह मेरा
दूसरा ही मतदान रहा। इसके पहले एकबार चुनाव के दौरान मैं छुट्टी पर था, तब मतदान
का अवसर मिला था। उसबार हमारे क्षेत्र के भाजपा प्रत्याशी ने काँग्रेस प्रत्याशी
को 11 मतों से पराजित किया था। जी हाँ, सिर्फ 11 मतों से!
देश के
सैनिकों के लिए मतदान की कोई कारगर व्यवस्था तो है नहीं। सो उस चुनाव से पहले या
उसके बाद मैंने मतदान नहीं किया था।
सेना
छोड़ने के बाद मैं एक अर्द्धसरकारी संस्था में आया। यहाँ पिछले चुनाव में ड्यूटी
लगी। फिर वही बात। दूसरे क्षेत्रों के चुनावकर्मियों के मतदान के लिए कोई कारगर
व्यवस्था है नहीं। तो पिछले चुनाव में भी मतदान नहीं कर सका।
इसबार कुछ
कारणों से मैं चुनाव ड्य़ूटी नहीं करना चाहता था। मैंने भगवान से प्रार्थना की कि
इस बार ड्यूटी न लगे। प्रार्थना क्या- धमकी दे डाला! संयोग से, ड्यूटी नहीं लगी। पता
नहीं क्या हुआ, कैसे हुआ, मेरे दफ्तर के किसी कर्मचारी की ड्यूटी नहीं लगी!
तो जाहिर
है कि इसबार मुझे मतदान करना ही था। पहले श्रीमती जी से नोंक-झोंक हुई। आखिर वह
राजी हुई मतदान के लिए। फिर माँ से भी नोंक-झोंक हुई- वह भी राजी हुई। दोनों का
यही कहना कि क्या होगा वोट देकर? बहुत दिये, क्या फर्क पड़ा? श्रीमतीजी से मैंने
कहा- तुम्हारा मोबाइल कनेक्शन, गैस कनेक्शन, बिजली कनेक्शन कट जाये तो कैसा लगेगा?
यही तो नागरिकों को मिली सुविधा है। फिर 5 साल में एकदिन फर्ज निभाने में परेशानी
क्यों?
पिताजी तो
पहले से तैयार थे और चाचीजी भी। भैया-भाभी भी वोट दे आये। छोटा भाई बाद में जायेगा।
इस प्रकार
आज सुबह-सुबह ही हमलोग अपना कर्तव्य निभा आये। अब परिणाम चाहे जो हो...
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जब हरहरा,
ढोंर, धामन, करैत, गेहूँअन, अजगर इत्यादि तरह-तरह के साँपों में ही किसी एक को
चुनना हमारी नियति है, तो यही सही! अब अगले पाँच वर्षों तक अपना खून बेचकर दूध का
इन्तजाम करो और इस साँपों को पालो!