गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

102. पैदल


       दोपहर 12 बजे पाकुड़ स्टेशन पर पूछा- बरहरवा के लिए ट्रेन कब है? जवाब मिला- 3 बजे
       मुझे लगा 3 घण्टे बैठना मुश्किल है। और क्या पता, ट्रेन 4 बजे आये। क्योंकि इधर सवारी रेलगाड़ियाँ ऐसे ही चलती हैं- मनमतंगी। कब कहाँ कितनी देर के लिए रुक जाय, भरोसा नहीं है।
       ...और मैं पैदल चल पड़ा- रेल लाईन के किनारे-किनारे। जहाँ बगल की जमीन चलने लायक थी, जमीन पर चलता रहा।
       1 बजे तिलभिटा स्टेशन पहुँचा- करीब 10 किमी होगा। वहाँ कुछ रुककर फिर चला, तो कोटालपोखर आते-आते 2 घण्टे लग गये। कुछ तो मैं धीरे चला और शायद दूरी भी 10 किमी से ज्यादा होगी।
       कोटालपोखर में चचेरे भाईयों से मिला। बड़ी माँ के हाथ का बना स्वादिष्ट खाना भरपेट खाया।
       तब तक ट्रेन भी आ गयी।
       ट्रेन में बैठकर फिर बरहरवा आया।
       पैदल चलने के दौरान कुछ तस्वीरें ली, वे ही यहाँ पेश हैं। कुछ तस्वीरें नहीं भी लीं।  
जरा बताईये तो "सी फा" "W L" का मतलब क्या है? 

ये पुल 19वीं सदी के हैं! 



ऐसी नीली जलराशि कम ही देखने को मिलती है. 

पटरी के नीचे 'स्लीपर' देवदार के हैं- 19वीं सदी के. 

पता नहीं चल रहा है- यहाँ कुछ सारस उड़ान भर रहे थे. 

छाँव 

पता नहीं चल रहा है- लोग मछलियाँ पकड़ रहे थे. 

1870 से 90 के बीच बिछी है यह रेल लाईन. 

अब कुछ वर्षों के बाद ये पुल देखने को नहीं मिलेंगे. 


बसन्त. 

"सी.फा"= सीटी बजाओ, फाटक आगे है. (W= Whistle L= Level Crossing Ahead)
अब शायद यह 'नया' निशान है- लेवल क्रॉसिंग का. 

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

101. "फेलू'दा"...



       फेलू'दा सीरीज के (किशोर जासूसी) उपन्यासों के समग्र का मैंने पहले अँग्रेजी अनुवाद मँगवाया था- अभिमन्यु के लिए। वह बँगला नहीं जानता। उसने अँग्रेजी अनुवाद बड़े चाव से पढ़ा। मगर मैं सत्यजीत राय साहब की इस प्रसिद्ध रचना का स्वाद मूल बँगला में ही लेना चाहता था। तब बँगला समग्र की कीमत थी- सात सौ रुपये- फ्लिपकार्ट पर। कुछ समय बाद बढ्ते-बढ़ते यह एक हजार हो गयी। तब जाकर मैंने जल्दी से मँगवाना चाहा- पता चला, बरहरवा में इसकी डिलिवरी नहीं होगी। फ्लिपकार्ट से अन्य किताबें बरहरवा आ जाती हैं- इसके लिए मना किया गया।
       अन्ततः कोलकाता में रह रहे अपने भांजे के पते पर इसे मँगवाया। वह बीते रविवार को इसे ले आया।
       ***
       लगे हाथ, एक "टैबलेट" भी मँगवा लिया गया।
       25 जनवरी हमारी सालगिरह थी। श्रीमती जी को एक बड़े स्क्रीन वाले मोबाइल की चाह थी। उसके सस्ते विकल्प के रुप में टैबलेट मँगवाया गया। यह कोलकाता तो 25 जनवरी से पहले पहुँच गया था- मगर हमें मिला 2 फरवरी को। यह भी ठीक रहा। 1996 में 25 जनवरी के दिन बसन्त पँचमी थी। इस लिहाज से, बसन्त पंचमी हमारी सालगिरह है और टैबलेट उससे पहले मिल गया।  


मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

100. "कारवाँ": बीस साल बाद...



अपनी बात

       अपनी किशोरावस्था एवं युवावस्था के दिनों में मैं कवितायें लिखा करता था। 'कविता' क्या, बस मनोभावों को सीधे-सादे ढंग से कागज पर शब्दचित्र के रुप में उतारने का प्रयास था। तब मैं अपना उपनाम "द्विरेफ" (भौंरा) लिखा करता था। भाव पहले रूमानी हुआ करते थे, बाद में धीरे-धीरे देश और समाज के प्रति सरोकार झलकने लगे थे।
       1995 में मुझे अहसास हुआ कि देश-समाज में इतनी समस्यायें हैं और मैं रूमानी कवितायें लिख रहा हूँ! यह अहसास जागने के बाद मैंने देश-समाज की समस्याओं का अध्ययन करते हुए उनके समाधानों के बारे में लिखना शुरु किया। तब मुझे लगा कि किसी को भी अलविदा कहने का एक खास सलीका तो होना ही चाहिए। और फिर, अपनी कविताओं को एकत्र कर मैंने उसे एक कविता संग्रह के रुप में छपवा लिया- बेशक, "कारवाँ" नाम से। उन दिनों मैं ग्वालियर में था। वहीं इसे प्रकाशित करवाया।  ...इस प्रकार रूमानी कल्पनालोक, "द्विरेफ" उपनाम तथा कविता को मैंने अलविदा कहा और यथार्थ के धरातल पर उतरकर "शेखर" उपनाम के साथ मैं खुशहाल भारत के निर्माण का खाका बनाने लगा। ("खुशहाल भारत" भी प्रकाशित है।)
       तब "कारवाँ" को मैंने अपने बचपन के दोस्त रंजीत को अर्पित किया था। उसकी भूमिका में मैंने मिर्ज़ा ग़ालिब के इस शेर को उद्धृत किया था: "दर्दे-दिल लिखूँ कब तक, जाऊँ उनको दिखला दूँ; उँगलियाँ फिग़ार अपनी, ख़ामा खूंचकां अपना।" (फिगार- घायल, खामा- कलम, खूंचकां- जिससे खून टपकता हो)
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       आज लगभग बीस वर्षों के बाद उसी "कारवाँ" को फिर से प्रकाशित करवा रहा हूँ। इस बार मैंने बँगला कवि सुकान्तो भट्टाचार्य की सात कविताओं के हिन्दी अनुवाद तथा मिर्ज़ा ग़ालिब के कुछ चुनिन्दा शेरों पर आधारित एक काल्पनिक कहानी को भी इसमें जोड़ दिया है। ये भी मेरी उन्हीं दिनों की रचनायें हैं।   
       कहते हैं कि किशोरावस्था ही वह कालखण्ड होता है, जब मनुष्य के मन में प्रेम या घृणा, दोनों में किसी एक भाव का अंकुरण होता है और उसके कदम सृजन या विध्वंस, दोनों में से किसी एक रास्ते पर चल पड़ते हैं। अगर किसी के मन में प्रेम का भाव अंकुरित करने और उसके कदमों को सृजन के रास्ते पर चला पाने में ये शब्दचित्र सफल होते हैं, तो मुझे सन्तोष होगा कि उन दिनों मैंने कुछ निरर्थक नहीं लिखा था!
       इति-

बसन्त पँचमी' 2014                                    जयदीप शेखर   
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उपर्युक्त आलेख दरअसल भूमिका है "कारवाँ" की. पुस्तक नेट पर यहाँ उपलब्ध है. 
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"कारवाँ", 20 साल पहले-