मनिहारी घाट... आषाढ़ के मेघ... गंगाजी... |
फुहार में भींगते अभिमन्यु और अनिमेष |
बरहरवा से अररिया आने-जाने के लिए मैं साहेबगंज तथा मनिहारी घाटों के बीच गंगाजी में चलने वाली स्टीमर सेवा को पसन्द करता हूँ। इसलिए नहीं कि यह (सैद्धान्तिक रूप से) सबसे छोटा तथा सस्ता रास्ता है, बल्कि इसलिए कि इस सफर में मैं- तमाम तरह की परेशानियों के बावजूद- एक अलग तरह के आनन्द का अनुभव करता हूँ, जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। मैं खुद को भाग्यशाली समझता हूँ कि मेरी पत्नी (जो मेरठ की है, जिसने स्टीमर सिर्फ चित्रों में ही देखा होगा) तथा मेरा तेरहवर्षीय बेटा भी इस रास्ते तथा सफर को पसन्द करता है!
‘भद्रजन’ किस्म के लोग इस रास्ते पर कम ही चलते हैं- वे या तो भागलपुर में गंगाजी पर बने सड़क पुल से; या फिर, फरक्का में बने रेल-रोड पुल से गंगाजी को पार करना उचित मानते हैं। मैंने भी इन दोनों रास्तों को आजमाया, मगर सफर में हमेशा एक ‘परायेपन’ का अहसास पाया। इसके मुकाबले मनिहारी घाट पर पहुँचते ही जब गंगाजी के उस पार राजमहल की नीली पहाड़ियों की शृँखला दीखने लगती है, तब एक ‘अपनेपन’ का अहसास होता है। साहेबगंज घाट पर उतरने के बाद तो बरहरवा पहुँचने का अहसास होने लगता है...!
आम तौर पर जो दो स्टीमर चलते हैं- “राजमहल” तथा “बृज”- उन्हें एल.सी.टी. कहते हैं। ये ट्रकों को ढोने के लिए बने हैं। झारखण्ड से बोल्डरों, गिट्टियों से लदे ट्रकों को ये साहेबगंज घाट से मनिहारी घाट लाते हैं और फिर खाली ट्रकों को मनिहारी से साहेबगंज ले जाते हैं। सामने के खुले डेक पर एक बार में नौ ट्रकों को लेकर चलने में ये सक्षम हैं। अक्सर एक-दो ट्रकों के स्थान पर छोटे चौपहिया वाहनों को स्थान दिया जाता है। पिछले हिस्से में (इंजन कक्ष के ऊपर) दुमंजिले-तीनमंजिले पर यात्रियों के लिए स्थान है।
एक तीसरा स्टीमर भी है, जिसे “अम्बा” नाम दिया गया है। यह वास्तव में दो छोटे स्टीमरों को एक साथ बाँधकर बनाया गया है- इनमें से एक में छोटा डेक है, जिसपर छोटी गाड़ियाँ, गाय-भैंसें, ट्रैक्टर इत्यादि आ जाते हैं, तो दूसरे में सिर्फ यात्रियों को लेकर चलने की व्यवक्था है।
स्थानीय भाषा में इन तीनों स्टीमरों को “लॉन्च” या “जहाज” कहते हैं।
2008 में जब मैंने इस मार्ग पर चलना शुरु किया, तब स्टीमर का किराया प्रति व्यक्ति सात रूपया था; आज बीस रूपये हैं- महँगाई जो न कराये! 2008 से पहले भी 1985-90 के दौरान दो-चार बार मैंने इस मार्ग से यात्रा की थी- क्योंकि मेरी बड़ी दीदी का विवाह अररिया में हुआ है। (आज अररिया में मैं उनके घर के पास ही रहता हूँ।)
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पिछले 18 जून को हमलोग बरहरवा जा रहे थे। (दरअसल मेरा भांजा ओमू अररिया आया हुआ था, उसी के साथ-साथ हमलोगों ने भी बरहरवा चलने का कार्यक्रम अचानक बना लिया।)
मनिहारी घाट पर वर्षा शुरु हो गयी- बचपन की बरसात याद आ गयी, जब हफ्तों तक बादल घिरे रहते थे- जब-तब वर्षा होते रहती थी- हवायें चलती थीं... । वैसा ही मौसम हो गया- सारा आकाश काले बादलों से ढक गया... जोरों की हवायें चलने लगीं... रह-रह कर वर्षा... स्टीमर पर भीड़... हमारे कपड़े कभी बर्षा की बूँदों से भींगते तो कभी हवायें उन्हें सुखा देतीं...
लो आ गया स्टीमर... |
साहेबगंज में जब हम ट्रेन में बैठे, तब एक बुजुर्ग सहयात्री ने जानकारी दी- इधर तो पिछले तीन दिनों से ऐसा मौसम है... अगले चार दिनों तक रहेगा.... चक्रवात है।
वाकई ऐसा ही रहा। जमाने बाद महसूस हुआ कि आषाढ़ का महीना बरसात का होता है- वर्ना जून तो जून, जुलाई का पहला-दूसरा हफ्ता भी आकाश में काले बादलों को ढूँढ़ते हुए बीत जाता है... ।
स्टीमर से उतरते ट्रक... |
20 को हम फरक्का गये- जाफरगंज में मेरी छोटी दीदी रहती है- उनके पास।
बेटा अभिमन्यु गंगाजी में खूब नहाया। मैंने उसे तैराकी का पहला अध्याय- “लेग बीट” सिखाने की कोशिश की और खुद सिर्फ ‘लेग बीट’ के बल पर अच्छी स्पीड में तैर कर दिखाया। मगर तैराकी कोई एक दिन में सीखने की चीज तो है नहीं। बेटे ने घर आकर माँ से शिकायत की- पापा ने तैरना नहीं सिखाया।
स्टीमर की खुली छत पर बरसाती हवाओं और फुहार का आनन्द... |
2005 में जब मैं भारतीय वायु सेना से सेवामुक्ति लेकर घर आया था, तब अभिमन्यु की उम्र सात साल थी और मैं तभी उसे तैराकी सिखाना चाहता था। मगर वह बरहरवा के तालाबों के पानी में उतरने को तैयार नहीं था और मैं कुछ कारणों से घर पर एक छोटा-सा “स्वीमिंग टैंक” नहीं बनवा पाया! (मैं खुद तैराकी के चारों स्ट्रोक जानता हूँ- क्राउल स्ट्रोक (फ्रीस्टाईल) में तो मैं ‘परफेक्शन’ की हद तक माहिर हूँ! भारतीय वायु सेना का यह उपकार है मुझपर!) खैर।
जाफरगंज में ही मेरी (कोटालपोखर वाली) चचेरी बहन भी रहती है, उनसे मिलने गया, तो बोली- अच्छा हुआ तुमलोग आये, यहाँ आम खराब हो रहे हैं- कोई खाने वाला नहीं है! उनका आम का बाग है। स्वादिष्ट “मालदा” किस्म के आम हमने खाये भी और घर भी लेकर आये!
उस पार... राजमहल की पहाड़ियाँ... |
22 जून को जब भोर साढ़े तीन बजे ‘अपर इण्डिया’ से साहेबगंज के लिए रवाना हुए, तब ‘चक्रवात’ का असर खत्म हो गया था। (ट्रेन का नाम भले ‘वाराणसी-मुगलसराय एक्सप्रेस’ है, मगर पुराने लोग इसे अब भी “अपर इण्डिया” ही कहते हैं। एक जमाने में- 1987 से पहले- यह एक शानदार ट्रेन हुआ करती थी- बरहरवा होकर दिल्ली-कोलकाता को जोड़ने वाली यह एकमात्र ट्रेन थी! पता नहीं, इसे फिर कभी बनारस के बजाय मुगलसराय होते हुए दिल्ली तक चलाया जायेगा या नहीं!)
आ रहा है... साहेबगंज घाट... |
हम साढ़े पाँच बजे ही साहेबगंज घाट पर थे। मगर पता चला कि पहला स्टीमर भोर चार बजे और दूसरा साढ़े चार बजे ट्रकों को लेकर (मनिहारी के लिए) खुल गया है। कम-से-कम एक स्टीमर को तो नियत समय पर- साढ़े छह बजे- खुलना चाहिए था। मगर क्या किया जाय- एल.सी.टी. को असली फायदा ट्रकों से ही होता है। “अम्बा” आजकल इस रास्ते पर नहीं है। पहला स्टीमर साढ़े सात बजे तक मनिहारी से लौटकर आयेगा। हम समझ गये कि अब हमें कटिहार से (अररिया के लिए) सुबह नौ बजे वाली ट्रेन नहीं मिलेगी, बल्कि अब बारह बजे वाली मिलेगी।
खैर, साढ़े सात बजे स्टीमर आया आया, आठ बजे करीब खुला और करीब डेढ़ घण्टे के सफर के बाद हम मनिहारी घाट पर उतरे। अभिमन्यु को मनिहारी घाट की कचौड़ियाँ बेहद पसन्द है। हमने नाश्ता किया। अब भी हमारे पास डेढ़ घण्टे का अतिरिक्त समय था।
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बरहरवा जाते समय... ट्रेन की खिड़की से... |
मैंने सुझाव रखा- हर बार सोचते हैं कि मनिहारी में “बनफूल” के घर का पता लगायेंगे, मगर हर बार हड़बड़ी में ऐसा नहीं कर पाते, क्यों न इस बार इस काम को पूरा कर ही लें! दो-चार स्थानीय लोगों से पूछ्ताछ करने के बाद “बनफूल” के घर का पता चल गया। हम रिक्शा लेकर निकल पड़े।
वापसी... साहेबगंज घाट... स्टीमर का इन्तजार... |
देखा- रिक्शा उसी रास्ते से गुजर रहा है, जिसपर बरहरवा में पेरे पड़ोस की एक बहन का घर है! चूँकि हमें मनिहारी चौक से कटिहार के लिए गाड़ी भी पकड़नी थी, इसलिए हमने सोचा- इस बार उसके घर पर नहीं उतरेंगे। मगर पड़ोसिनों ने पहचान लिया और आवाज देने लगीं- अरे, गलती से रिक्शा आगे जा रहा है... । (प्रसंगवश, कटिहार से मनिहारी तक छोटी लाईन को हटा कर बड़ी लाईन बिछा दी गयी है- सुना था, जनवरी में ही ट्रेन चलने लगेगी, मगर अब तक तो नहीं चली है। अतः अभी हमें मनिहारी से तिपहिया या चौपहिया पकड़कर कटिहार जाना होता है और कटिहार से जोगबनी जाने वाली ट्रेन पकड़नी होती है।)
हम उतरे। बहन भी नाराज हुई- बिना मिले जा रहे हो। (उसके खुद के भाई कभी यहाँ आते नहीं, इसलिए हमारे आने पर वह बहुत खुश होती है।) हमने समझाया- “बनफूल” का घर इस बार देखना है, समय कम है। वह मान गयी- लेकिन बहन के घर के पास से बिना पानी पीये आप गुजर रहे थे- यह अच्छी बात नहीं! हमने पानी पीया।
"बनफूल" का घर... |
बँगला के सुप्रसिद्ध लेखक “बनफूल” का जन्म मनिहारी में हुआ था- यह जानकारी मुझे कुछ समय पहले ही मिली थी, वर्ना मैं समझता था कि उनका जन्म भागलपुर में ही हुआ होगा। “बनफूल” के सात या आठ छोटे भाई थे। अभी सिर्फ सबसे छोटे भाई श्री उज्जवल मुखर्जी यहाँ रहते हैं। मैंने बँगला में उन्हें अपना उद्देश्य बताया- हम “बनफूल” उस घर का फोटो खींचना चाहते हैं, जहाँ उनका जन्म हुआ था! हमारे अनुरोध पर उन्होंने घर में कार्यरत एक युवक (नाम मैं भूल रहा हूँ) को निर्देश दिया- चाभी लेकर जाओ, वह घर दिखा दो। थोड़ी दूरी पर ही वह घर था- जहाँ “बनफूल” का जन्म हुआ था तथा बचपन बीता था। पक्का घर है, छत टालियों की है। सामने खूबसूरत बाग है। मकान की दाहिनी ओर चबूतरा है- उधर से भी प्रवेश का रास्ता है। सम्भवतः यहीं बैठक जमती होगी। घर का बड़ा हिस्सा कभी जल गया था, उसे फिर से नहीं बनवाया गया है। सरकार (बिहार, बंगाल या केन्द्र) की ओर से इस घर को स्मारक बनाने की शायद कोई कोशिश नहीं की गयी है। हाँ सहरसा से कटिहार होकर कोलकाता जाने वाली एक ट्रेन का नाम जरूर “बनफूल” के एक प्रसिद्ध उपन्यास “हाटे-बाजारे” पर रख दिया गया है।
हम हिन्दी भाषी भी “बनफूल” को कम ही जानते हैं। मैंने थोड़ी जानकारी तथा कुछ कहानियों का हिन्दी अनुवाद अभी इण्टरनेट पर डाला है। आगे और भी डालने का इरादा है। लिंक है- http://bonofulstories.blogspot.in/
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ऐसा नहीं है कि इस छोटी-सी छुट्टी में सब कुछ अच्छा ही हुआ। फरक्का में मेरी चचेरी बहन ने बताया उनकी बड़ी बहन (जो पटना में रहती हैं) का छोटा बेटा कोटालपोखर में मोटरसाइकिल दुर्घटना का शिकार हो गया है। हालाँकि डरने की बात नहीं है, मगर पटना से बड़ी दीदी कोटालपोखर पहुँच चुकी है और फरक्का से यह दीदी भी आज ही दोपहर बाद कोटालपोखर के लिए रवाना होने जा रही थीं।
फरक्का से बरहरवा आने पर इससे भी दुःखद समाचार मिला- चौलिया में हमारे “गुनू काकू” ताड़ के पेड़ से कंक्रीट की सड़क पर आ गिरे और अपने कमर की हड्डियाँ तुड़वा बैठे! चौलिया हमारा पैतृक गाँव है और गुनू काकू रिश्ते में पिताजी के मौसेरे भाई होते हैं। उनकी उम्र पचपन-साठ से क्या कम होगी? हालाँकि ताड़ के पेड़ पर चढ़ने के लिए अब वे “पाश” का इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि पेड़ों के साथ लम्बे-लम्बे बाँस बाँधकर उन्हीं के गाँठों पर निकली सीढ़ीदार छोटी ‘कमचियों’ के सहारे चढ़ते हैं; मगर देखा जाय तो यह उम्र नहीं है इस काम के लिए। खासकर तब, जब पिछले ही वर्ष उनका बेटा एक अर्द्धसैन्य बल में भर्ती हो चुका है। उन्हें पाकुड़ से राँची स्थानान्तरित करने की बात चल रही थी- बेहतर ईलाज के लिए।
न तो मैं बीस किलोमीटर दूर कोटालपोखर जा पाया और न ही सात किलोमीटर दूर चौलिया। क्योंकि मुझे बैंक से इस शर्त पर छुट्टी मिली थी कि हमारे खजाँची साहब किसी सेमिनार में भाग लेने राँची जाने वाले हैं और मुझे 23 जून को लौटना ही है! ...वायु सेना के दिन याद आ गये- साठ दिनों की वार्षिक तथा तीस दिनों की आकस्मिक- कुल नब्बे दिनों की छुट्टी एक साल में। आपात्कालीन परिस्थिति में टेलीग्राम भेजकर छुट्टी बढ़वाने की सुविधा... ।
"बनफूल" के घर के बाहर... |
कटिहार से बारह बजे जो ट्रेन चली, वह दसेक मिनट चलकर ही खेतों के बीच घण्टे भर के लिए रूक गयी... मारे उमस और गर्मी के हम सब उबल गये! तीन बजे डेरे पर आकर- जैसाकि होता है- कुछ देर आराम करने के बजाय श्रीमतीजी साफ-सफाई में जुट गयीं और अगली सुबह बीमार पड़ गयीं।
जीवन भी गंगाजी-जैसी एक नदी है, जिसके दो किनारे हैं- सुख और दुःख....
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