सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

243. 'डाना' का 'पुनर्समापन'

 

        हम 'कला- 360' नामक फोण्ट का इस्तेमाल सत्यजीत राय और 'बनफूल' की रचनाओं के अनुवाद को टाईप करने में करते हैं। यह फोण्ट काफी साफ-सुथरा है और स्थान भी ज्यादा लेता है- खुला-खुला का आभास मिलता है। अभिमन्यु ने बताया कि किताबों में कम जगह लेने वाले छोटे फोण्ट अच्छे लगते हैं और पन्ने भी भरे-भरे अच्छे लगते हैं।

       ...तो 'डाना' के मामले में हमने 'गुल- 12 नॉर्मल' नामक फोण्ट का इस्तेमाल किया, जो अपेक्षाकृत कम जगह लेता है। पन्नों का मार्जिन भी थोड़ा-सा कम कर दिया। इसके बावजूद जब 'डाना' पुस्तक हाथ में आयी, तो इसकी मोटाई देखकर हम दंग रह गये। अब हम खुद सोच रहे हैं कि इतनी भारी-भरकम रचना का हमने अनुवाद कैसे कर लिया और करीब 350 पन्नों का मैटर टाईप कैसे कर लिया!

 


        खैर, इस पोस्ट का विषय है- 'पुनर्समापन।' दरअसल, हमने 'डाना' के हिन्दी अनुवाद के अन्त में एक अध्याय अपनी तरफ से जोड़ते हुए इसका पुनर्समापन करने की धृष्टता की है। ऐसा हमने क्यों किया, यह बताना उचित है-

1. मूल उपन्यास का समापन 'खुला समापन' है और इस लिहाज से हर पाठक को यह कल्पना करने का अधिकर प्राप्त है कि इसके बाद क्या हुआ होगा! तो एक पाठक के हिसाब से हमने भी कल्पना की है कि इसके बाद ऐसा हुआ होगा, या ऐसा होना चाहिए।

2. यह उपन्यास 2015 में "कॉपीराइट" के दायरे से बाहर आ गया है। इस लिहाज से भी मेरी हिम्मत बढ़ी कि हम अन्त में एक अध्याय जोड़ते हुए पुनर्समापन की कोशिश कर सकते हैं।

3. उपन्यास को 25 जनवरी को अपनी वैवाहिक रजत-जयन्ती के अवसर पर हम श्रीमतीजी को अर्पित करना चाहते थे। मूल उपन्यास का जो समापन था, वह इस अवसर के उपयुक्त नहीं था। इसलिए हमने अपनी ओर से एक अध्याय जोड़ते हुए कहानी का इस तरह से समापन किया कि वह वैवाहिक रजत-जयन्ती पर अर्पण के उपयुक्त बन जाय।     


  हालाँकि अपने अध्याय से पहले हमने एक टिप्पणी में बता दिया है कि मूल उपन्यास में कहानी यहीं समाप्त हो रही है, अगला अध्याय हमने जोड़ा है और पाठकगण अगले अध्याय को न पढ़ने के लिए स्वतंत्र हैं।


        हमने बँगला साहित्य के समालोचक डॉ. के.जी. रॉय सर से इस मामले में उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाहिए थी। सुनकर पहले तो वे हँसे थे, बोले थे- 'ए तो सांघातिक व्यापार!' माने, यह तो खतरनाक मामला है! फिर उन्होंने बंकिमचन्द्र की "कपालकुण्डला" वाली घटना सुनायी। इस उपन्यास का समापन खुला-समापन था। एक अन्य बँगला लेखक ने इसके बाद के घटनाक्रम की कल्पना करते हुए एक और कहानी या उपन्यास कुछ लिख डाला। बंकिमचन्द्र ने मना किया, वे नहीं माने, मामला कोर्ट में गया और अन्ततः अन्य लेखक की रचना जब्त हो गयी! आज उसकी कोई प्रति उपलब्ध नहीं है। वे लेखक बंकिमचन्द्र के समधी महोदय ही थे!


        खैर, कुछ दिनों बाद डॉ. के.जी. राय सर ने अपनी प्रतिक्रिया मुझे भेजी। उसका मजमून हम यहाँ हिन्दी में प्रस्तुत कर रहे हैं-

"जयदीप,

तुम्हारा लेखन अद्भुत है। लिखने की ऐसी क्षमता होने पर स्वयं ही कहानी या उपन्यास लिखा जा सकता है और वह निश्चित रूप से पाठकों को पसन्द आयेगा।

प्रश्न है कि यह उपसंहार उचित है कि नहीं।

उपन्यास की छह विशेषताओं में से एक है लेखक की 'फिलोसॉफी ऑव लाईफ', अर्थात् जीवन के बारे में लेखक की विशेष उपलब्धि, जिसे वे इस उपन्यास के माध्यम से बताना चाहते हैं। तुम्हारे द्वारा किया गया उपसंहार लेखक की 'फिलोसॉफी ऑव लाईफ' से नहीं मेल खायेगा। इस लिहाज से, आपत्ति बनती है। लेकिन तुमने जो ऑप्शन दे रखा है कि पाठक चाहे, तो नहीं भी पढ़ सकते हैं, इससे लेखक की निजता का हनन नहीं होता है।"

       के.जी. रॉय सर ने हमें सस्ते में छोड़ दिया, "बनफूल" चूँकि भागलपुर के थे, इसलिए हो सकता है कि वे हमें दो-चार झापड़ ही रसीद देते!

       खैर, "बनफूल" के जो भतीजे मनिहारी में रहते हैं (बनफूल के जन्मस्थान को उन्होंने स्मारक की भांति सहेज रखा है), बहुत पहले उनसे हम मिले थे। वे हिन्दी पढ़ना नहीं जानते। उन्होंने हमें बनफूल की एक पुत्रवधू (कोलकाता) से सम्पर्क करने को कहा था, जो साहित्य से जुड़ी हैं। हमनी ईमेल किया था। उनके पुत्र यानि बनफूल के पौत्र महीरूह मुखर्जी ने उत्तर दिया था। वे भी हिन्दी कुछ खास नहीं जानते, पर कुछ कहानियों के अनुवाद को सरसरी तौर पर पढ़कर खुशी ही जतायी थी उन्होंने। अब इस प्रयोग पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी, पता नहीं।

       ***

मंगलवार, 26 जनवरी 2021

242. "उत्सव भवन" का पहला कार्यक्रम यानि हमारी सिल्वर-जुबली

 


       जिन्दगी एक रंगमंच है- सुख-दुःख के दृश्य आते-जाते रहते हैं। शो चलते रहता है और हम सब अपनी-अपनी भूमिका निभाते रहते हैं।

ऐसे तो अभी हमारे "उत्सव भवन एवं प्राँगण" में बहुत काम बाकी है, पर हमने सोचा कि जो कार्यक्रम अपने घर में मनाया जाना है, क्यों न उसे "उत्सव भवन" में ही मना लिया जाय।

       ...तो अपने घर में गायत्री-परिवार द्वारा सुबह सिर्फ हवन करवाया गया। शाम की पार्टी "उत्सव भवन" में ही आयोजित हुई (मकर-संक्रान्ति के दिन यहाँ पूजा हो चुकी थी)।

दरअसल, बीते कल- यानि 25 जनवरी को- को हमारे विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ थी। 

 


         यू-ट्युब पर विडियो अपलोड होने में समय लगता है, इसलिए फिलहाल तीन ही विडियो के लिंक साझा कर रहे हैं। बाकी बाद में देखा जायेगा।

1. जब लालू भैया ने हमें जोड़े में डान्स करने को कहा और शुभंकर ने कोई नया गाना बजाया, तो हमने कहा कि हम तो अपने जमाने के गाने पर ही डान्स कर सकते हैं- 


 

 


2. मेरी साली साहिबा ने इस अवसर पर हमारे परिवार की कुछ लड़कियों के साथ एक डान्स प्रस्तुत किया-

 



3. ये हैं पैन्थर्स! यानि मेरे क्लासमेट। जब गाना पूछा गया, तो हमारी ओर से कहा गया- बजाया जाय- रम्बा हो-


 


 और बहुत-सी तस्वीरें फेसबुक पर श्रीमतीजी के प्रोफाइल पर हैं। उनके अल्बम के लिंक दे रहे हैं: 

कुल 25 विडियो श्रीमतीजी के 'गूगल ड्राइव' में रख दिये गये हैं, उसका लिंक- 

विडियो 

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पुनश्च (28 जून 21): 

एक बात का जिक्र भूल गये थे। कार्यक्रम के दौरान छत पर खाना-पीना चल रहा था- वहाँ मेरे घरेलू स्पीकर पर कुछ गाने बज रहे थे। बेशक, उस माहौल में किसी का भी ध्यान उन गानों की तरफ नहीं गया होगा, पर सच यह है कि हमने बड़े पापड़ बेल कर इन 25 रूमानी गानों को डाउनलोड किया था। ये गाने 50+ वालों को ही पसन्द आयेगा। बहुत बाद में हमने इन गानों को ड्राईव में रखा। सोचा था, इसका लिंक हम कभी इस ब्लॉग पोस्ट में डाल देंगे, पर अक्सर भूल जाते थे। आज याद करके "मेलोडी 25" का लिंक साझा कर रहे हैं। 
कोई भी यहाँ क्लिक करके इन गानों को डाउनलोड कर सकता है।

गुरुवार, 14 जनवरी 2021

241. मुनमुन

 


       विभिन्न कारणों से साल 2020 ज्यादातर लोगों के लिए दुःखदायी रहा। मेरे लिए यह इसलिए मनहूस रहा कि जाते-जाते यह मेरी प्यारी चचेरी बहन को हमसे छीन ले गया!

अब मुनमुन के ठहाके बस यादों में सुनायी पड़ेंगे। दरअसल, बात करते समय बीच-बीच में "हाः-हाः-हाः-हाः-" के जोरदार ठहाके लगाना उसकी आदत में शामिल था- तकिया-कलाम की तरह।

वह मुझसे तीन साल छोटी थी। दादाजी मुझे "मोनू" और उसे "मोनी" कहा करते थे। वह मुझे बहुत पसन्द करती थी और हम भी उसके प्रति बहुत लगाव महसूस करते थे।

जब हम छोटे हुआ करते थे, तो 9 जुलाई हमारे घर में एक उत्सव के समान होता था। चाचा-चाचीजी उसका जन्मदिन बहुत ही धूमधाम से मनाया करते थे।

अब 9 जुलाई के साथ-साथ हर साल 25 दिसम्बर को भी उसकी बहुत याद आया करेगी। इसी दिन वह हम सबसे विदा हुई- सदा के लिए।

अगले 25 जनवरी को हम अपनी वैवाहिक रजत-जयन्ती मनाने जा रहे हैं। इसके लिए कितनी तैयारियाँ कर रखी थी उसने। बेटे को जैकेट दिलवा दिलवा दिया था, रिजर्वेशन करवा लिया था, पति को भी साथ चलने के राजी कर लिया था, जाने कितने परिचितों से कह रखा था...

फोन पर अंशु से कह रखा था उसने- भाभीजी, मुझे दोसा बहुत पसन्द है, मेरे लिए प्लेन-दोसा जरूर बनवाईयेगा।  

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शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

'तुकादी'

 तुकादी एक खेल का नाम है।

एक बड़े-से रूमाल (लगभग 2 फीट गुणा 2 फीट) के बीचों-बीच एक गेन्द (टेनिस वाली गेन्द) को रखकर रूमाल को धागे से इस तरह बाँधा जाता है कि जब गेन्द को फेंककर मारा जाता है, तब इसकी आकृति 'धूमकेतु'-जैसी बन जाती है। इस गेन्द को भी 'तुकादी' ही कहते हैं। 

दो टीम बनती है। दोनों के पास एक-एक तुकादी रहती है। मान लीजिये कि एक टीम के खिलाड़ियों ने लाल जर्सी पहन रखी है, तो उनकी तुकादी (यानि रूमाल) का रंग भी लाल ही होगा। इसी प्रकार दूसरी टीम ने पीली जर्सी पहनी हो, तो उनकी तुकादी (यानि रूमाल) का रंग पीला होगा। टीम में खिलाड़ियों की संख्या 5, 7, 9 या 11 हो सकती है- यह निर्भर करता है मैदान के आकार पर। छोटा मैदान- कम खिलाड़ी, बड़ा मैदान- ज्यादा खिलाड़ी।

दो रेफरी होते हैं, जो खेल के दौरान एक-एक तुकादी के आस-पास रहते हुए खेल पर नजर रखते हैं। आम तौर पर 10-10 मिनट के चार क्वार्टर का यह खेल होता है। सुविधानुसार बदलाव किया जा सकता है। यहाँ तक कि 'अंकों' से हार-जीत के स्थान पर 'ऑल-आउट' वाला तरीका भी अपनाया जा सकता है।

खेल की शुरुआत में दोनों टीमें लाईन बनाकर आमने-सामने खड़ी हो जाती हैं- दोनों टीमों के बीच दस से बीस कदमों का फासला रहेगा। दोनों टीमों के कप्तान अपनी टीम से दो कदम आगे खड़े रहते हैं- तुकादी उन्हीं के हाथों में होती हैं। सीटी बजते ही दोनों कप्तान विरोधी टीम के किसी खिलाड़ी पर (कप्तान पर नहीं) निशाना साधकर तुकादी फेंकते हैं और इसी के साथ सारे खिलाड़ी मैदान में फैल जाते हैं और खेल शुरू हो जाता है। हर खिलाड़ी अपनी टीम की तुकादी से विरोधी टीम के खिलाड़ी को मारने की कोशिश करता है। जिसे तुकादी लग जाती है, वह खेल से बाहर हो जाता है। खेल के दौरान कप्तान पर भी निशाना साधा जा सकता है। जब एक टीम का एक खिलाड़ी 'आउट' या 'मात' होता है, तो विरोधी टीम को एक अंक मिलता है। कप्तान मात हो जाय, तो दो अंक और 10 मिनट होने से पहले पूरी टीम मात खा जाय (ऑल आउट), तो विरोधी टीम को 5 अंक अतिरिक्त मिलते हैं। अपनी टीम के अन्दर 'पास' भी दिया-लिया जाता है।  

अगले क्वार्टर में फिर सारे खिलाड़ी 'जिन्दा' हो जाते हैं।

रेफरी ध्यान रखते हैं कि कोई जान-बूझकर सामने से न टकराये, कोई किसी को न खींचे और किसी को धक्का या लंगड़ी न मारे। ऐसा करना 'फाउल' होगा और फाउल करने वाले खिलाड़ी को रेफरी चाहे, तो आउट भी कर सकेगा, नहीं तो चेतावनी देगा। बेशक, तीसरी चेतावनी पाने वाले को आउट होना ही पड़ेगा। किसी के सिर या चेहरे पर तुकादी से निशाना साधना 'रेड कार्ड' वाला फाउल होगा और ऐसा करने वाले को पूरे मैच से बाहर किया जायेगा- यानि अगले क्वार्टर में भी वह नहीं खेल पायेगा। 

यूँ तो खिलाड़ी सिर्फ अपनी तुकादी को ही पकड़ेगा, पर मौका मिलने पर वह विरोधी टीम की तुकादी को मैदान में दूर फेंक सकेगा, पर इसके लिए दो सख्त नियम होंगे- 1. वह इसके लिए अपने बाँये हाथ का इस्तेमाल करेगा और 2. तुकादी को कमर से नीचे रखते हुए (यानि झुलाते हुए) दूर फेंगेगा- इस दौरान वह तुकादी के रूमाल वाले हिस्से को पकड़ेगा, गेन्द वाले हिस्से को नहीं। इन नियमों को तोड़ने वाला भी आउट होगा।

अब आप सोचेंगे कि यह खेल कहाँ खेला जाता है? आपने अब तक इस खेल के बारे में सुना क्यों नहीं? और मुझे इस खेल की जानकारी कहाँ से मिली?

...तो मेरा जवाब यह है कि इस खेल को हमने सपने में देखा। जी हाँ, सपने में। शायद महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाके में इसे खेला जा रहा था। मैंने 'टेनिस की गेन्द' की बात अपनी ओर से जोड़ी, सपने में तो- हमें रूमाल खोलकर दिखाया गया था- ईंट का टुकड़ा बँधा हुआ था! 4 अगस्त की रात हमने इस सपने को देखा। सुबह उठकर सोचा, कम-से-कम खेल का नाम नोट कर लें। फिर लगा, याद रहेगा, पर दिन में भूल गया। नहीं ही याद आया। अगली सुबह नीन्द खुलने से पहले फिर खेल का नाम याद आया। सोचा, आज तो इसे नोट करना ही पड़ेगा। उसी समय एक फोन आ गया और नाम नोट करना नहीं हो पाया। बाद में फिर नाम भूल गया। बड़ा गुस्सा आया, लेकिन दोपहर तक नाम याद आ गया।

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लगे हाथ एक और नये खेल का जिक्र कर दिया जाय। यह सपने वाला नहीं है, इसे हमने खेला था।

दरअसल एक रोज झमाझम बारिश हो रही थी। जवानी के दिन थे, बैचलर थे और यूँ समझिये कि हॉस्टल में थे। कई लड़के बारिश में नहाने लगे। अचानक हमने आइडिया दिया- फुटबॉल माँगकर लाया जाय। फुटबॉल आया। फुटबॉल के मैदान पर पानी जमा था। उसी पर हमलोगों ने खेलना शुरू कर दिया।

बाद में आइडिया आया कि "वाटर फुटबॉल" नाम से एक खेल बनाया का सकता है। मैदान अपेक्षाकृत छोटा हो। घास हो- असली या नकली। मैदान में दो ईंच के करीब पानी जमा रहने की व्यवस्था हो। ऊँचाई पर कुछ फौव्वारे लगे हों। मैदान के किनारे खम्भों पर भी फौव्वारों की व्यवस्था की जा सकती है।

यकीन मानिये, पानी पर फुटबॉल खेलने के लिए लगभग दोगुने दम-खम की जरूरत पड़ेगी!

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