सोमवार, 22 जुलाई 2024

280. खजूर: बिस्कुट जैसा एक व्यंजन

खजूर तले जा रहे हैं
 
     खजूर एक फल होता है— यह सभी जानते हैं, लेकिन कुरकुरे, हल्के मीठे, तले हुए बिस्कुट-जैसे एक व्यंजन का नाम भी “खजूर” होता है— यह बहुतों को शायद नहीं पता होगा।

हम लोग जब छठी कक्षा में हाई स्कूल गये, तब हमने इसके बारे में जाना। हमारा हाई स्कूल कस्बे (तब गाँव) के एक अन्तिम छोर पर था। आज भले 15-20 घरों की एक बस्ती इसके बाद बन गयी है, लेकिन उन दिनों हाई स्कूल का भवन गाँव का अन्तिम भवन हुआ करता था। वहीं एक कमरे वाली छोटी-सी चाय दुकान में खजूर मिलते थे। बाकी सारे गाँव में यह और कहीं नहीं मिलता था।

यानि हमने करीब 45 साल पहले इस खजूर के बारे में जाना था। यहाँ यह बन कब से रहा है— यह हम नहीं बता सकते। आज पैंतालीस साल बाद भी वह दुकान कायम है, उसी रंग-रूप में कायम है, आज भी वहाँ खजूर मिलते हैं और आज भी हमारे सारे कस्बे में यह कहीं और नहीं मिलता।

फर्क सिर्फ इतना है कि पहले पिता दुकान चलाते थे और अब पुत्र दुकान चलाता है। आज जो उस दुकान को चला रहे हैं, उनका नाम कार्तिक है और वह हम लोगों का हमउम्र है— सहपाठी भी।

दुकान आज भी वैसी ही है, जैसी 40-50 साल पहले हुआ करती थी
चूँकि हम लोगों का उस तरफ जाना नहीं होता है, इसलिए स्वाभाविक रूप से हम लोग और कस्बे के बाकी सभी मुहल्ले के लोग भी खजूर को भूल गये हैं। एक और बात है— हमारे कस्बे के ठीक बीचों-बीच से रेल-लाईन गुजरती है। कस्बे के प्रमुख रिहायशी एवं व्यवसायिक मुहल्ले रेल-लाईन के पश्चिम में हैं और हाई स्कूल वाला हिस्सा पूरब में। बीच में “रेल फाटक” (Level Crossing) है और रेल-फाटक पार करना एक आम भारतीय कस्बे में एक सिरदर्द होता है। इसलिए भी उस तरफ बहुत जरूरी काम होने पर ही लोग जाते हैं।   

हम कभी-कभी उस तरफ जाते हैं, तो कार्तिक से कुछ खजूर ले आते हैं। जब अभिमन्यु लोग आये थे, तब ज्यादा करके ले आये थे। चाय के साथ खाने के लिए बढ़िया चीज है।

हम सोच रहे हैं कि कार्तिक इसका नमकीन संस्करण भी बनाने की कोशिश करे, लेकिन लगता है, वह नहीं मानेगा। उसने अभी तक गैस-स्टोव नहीं अपनाया है दुकान के लिए, तो खजूर का स्वाद बदलना भला वह क्यों चाहेगा! आज भी वह कोयले वाले चूल्हे पर खजूर बनाता है। बेशक चाय भी बनाता है।

आज हम किसी और काम से कहीं और गये थे, लौटते समय फाटक के उस पार गये लगे हाथ कोई दूसरा काम निपटाने। वहाँ दस मिनट समय लगने की बात कही गयी, तो हमने साइकिल कार्तिक की दुकान की ओर बढ़ा दी और थोड़े खजूर ले आये।

हो सकता है, आपके इलाके में किसी और नाम से यह व्यंजन बनता हो, लेकिन हम तो इसे अपने कस्बे का एक खास आइटम मानते हैं। वैसे, कार्तिक ने भी एक बार बताया था कि उसके खजूर दूर-दूर तक जाते हैं। 


 
कार्तिक
 
 

नोट: दो विडियो हमने फेसबुक पर डाले हैं। उनके लिंक: 

1. खजूर तले जा रहे हैं 

2. दुकान आज भी वैसी ही है, जैसे 50-60 साल पहले थी

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2 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! मन ख़ुश हो गया. सामने बनते देखने और खाने का आनन्द ही अलग है.ताज़ा होने से स्वाद भी उससे बढ़िया होता है. हमने भी अल्मोड़ा में, वहाँ से धौलादेवी के रास्ते की ऐसी ही छोटी बेकरियों में बिस्कुट खाए हैं.

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