रविवार, 25 अक्टूबर 2015

143. दुर्गा पूजा और मुहर्रम


       महालया के दिन माँ दुर्गा सपरिवार अपने मायके आती है और विजयादशमी के दिन लौट जाती है। इसी अवसर पर दुर्गा-पूजा मनाया जाता है। देश के पूर्वी प्रान्तों में माँ दुर्गा की प्रतिमा महिषासुर का वध करती हुई स्थापित होती है। उनके अगल-बगल गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती और कार्तिक की प्रतिमायें होती हैं। छठी पूजा के दिन माँ दर्शन देती है; सप्तमी, अष्टमी, नवमी के रोज लोग खूब घूमते हैं और दशमी के दिन इन प्रतिमाओं का जल में विसर्जन करते हुए माँ को सपरिवार विदा कर दिया जाता है। बंगाल में तरह-तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि की धूम रहती है।
देश के पश्चिमी प्रान्तों के लोग, जिन्होंने ऐसी पूजा नहीं देखी है, वे आश्चर्य करेंगे कि इतनी सुन्दर प्रतिमाओं का जल में विसर्जन कर दिया जाता है! (ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मेरी श्रीमतीजी, जो को देश के पश्चिमी हिस्से की है, वह शुरु-शुरु में बहुत अफसोस किया करती थी कि इन प्रतिमाओं को विसर्जित क्यों करते हैं? सजाकर रखते क्यों नहीं?)
दरअसल, पश्चिमी प्रान्तों में दुर्गा पूजा को नवरात्र के रुप में मनाया जाता है, जहाँ घरों में महिलायें आठ या नौ दिनों के लिए कलश की स्थापना करती हैं। ग्वालियर में रहते हुए मैंने माँ दुर्गा की प्रतिमायें देखी जरुर थीं, मगर वे सिंहवाहिनी दुर्गा की एक ही प्रतिमा होती थीं, जो पूरे नौ या दस दिनों तक स्थापित रहती थीं। वैसे, अगर सुन्दरता की बात की जाय, तो पूर्वी प्रान्तों की प्रतिमायें ही ज्यादा सुन्दर होती हैं। सबसे बड़ी बात, इधर चूँकि माँ दुर्गा के साथ गणेश, कार्तिक, लक्ष्मी, सरस्वती की भी प्रतिमायें होती हैं, इसलिए पूरा दृश्य और भी सुन्दर हो जाता है।
यह भी एक तथ्य है कि देश के किसी भी शहर में अगर बंगवासियों की संख्या पर्याप्त है, तो लोगों को वहाँ माँ दुर्गा की "सपरिवार" प्रतिमायें देखने मिल जायेंगी।
(बात यहाँ आस्तिकता-नास्तिकता की नहीं है; मूर्ति पूजा के औचित्य की बात भी नहीं है; और सुर-असुर के रुप को सवर्ण-दलित के रुप में देखने की बात तो बिलकुल नहीं है। सीधी-सी बात है, यह ऋतु का सन्धि काल है, मौसम सुहाना होता है, लोगों को ऐसे मौसम में त्यौहार मनाना और इसी बहाने जीवन में आमोद-प्रमोद को शामिल करना अच्छा लगता है। ऐसा होना चाहिए, होते आया है, होते रहेगा। ज्यादा दिमाग खपाना उचित नहीं- मेरी समझ से।)
खैर, हमारे बरहरवा में कुल सात दुर्गा-पूजा मण्डप हैं। हर साल की भांति इस साल भी पूजा धूम-धाम से मनी। मैं तस्वीरें नहीं खींच पाया, यह और बात है।
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इस बार जो विशेष बात रही, वह यह कि दुर्गा पूजा के साथ ही मुहर्रम भी चल रहा था। बरहरवा में मुहर्रम पर गीत गाते और खून बहाते हुए मातमी जुलूस तथा ताशे की धुन पर लाठियाँ खेलते हुए ताजिया जुलूस दोनों निकलते हैं। दोनों जुलूसों का समय अलग-अलग होता है। इस बार मुहर्रम में कुछ बातें मैंने नोट की और इसीलिए इस पोस्ट को मैं लिख रहा हूँ।
विजयदशमी के दिन बरहरवा में सिर्फ एक ही प्रतिमा का विसर्जन हुआ, बाकी प्रतिमाओं का विसर्जन अगले दिन यानि बीते शुक्रवार को हो रहा था। (आम तौर पर वृहस्पतिवार को बेटी को विदा नहीं किया जाता।) इधर हम नवरात्र/दुर्गा-पूजा के कारण एक दिन भी "मज़लिस" में नहीं जा पाये थे, जहाँ इमाम हुसैन तथा उनके परिजनों की शहादत की कहानियों दस दिनों तक चलती है। (इस पर मेरा एक विस्तृत आलेख क्रमांक 42 पर है- 'सक़ीना' नाम से)।
शुक्रवार को हम जाने के लिए तैयार थे, मगर रात के साढ़े नौ बजे के बाद भी मज़लिस शुरु होने की आवाज नहीं आयी (लाउडस्पीकर पर)- जबकि नौ बजते-बजते आवाज आ जाया करती थी। दस बजे करीब मैं सरबर ईरानी साहब के घर गया- पता लगाने कि आज मज़लिस होगी या नहीं। सरबर साहब ने बताया कि चूँकि आज आखिरी रात है और आज हमलोग रातभर जागते हैं, इसलिए देर से शुरुआत करेंगे। आपलोग साढ़े दस बजे रात तक आ जाईये। मुझे लगा, वे सही कह रहे होंगे। बाहर निकलते वक्त मौलाना साहब मिल गये, जो हर साल लखनऊ से आते हैं। असली बात उन्होंने मुझे बतायी- आपलोगों की पूजा जो घूम रही है न, इसलिए हमलोग देर कर रहे हैं।
तब मेरा ध्यान गया कि विसर्जन के लिए माँ दुर्गा की प्रतिमाओं के साथ हमारे जुलूस भी तो घूम रहे हैं- पूरे बाजे-गाजे के साथ। अभी कुछ ही देर पहले ऐसा एक जुलूस हमारे मुहल्ले से होकर गुजरा था। ऐसे में, अगर इनका लाउड स्पीकर भी उस वक्त ऑन रहता, तो क्या अटपटा नहीं लगता? एक तरफ खुशी के बाजे-गाजे और दूसरी तरफ मातमी स्वर... ।
जो भी हो, मुझे उनका यह निर्णय बहुत अच्छा लगा।
कल मुहर्रम के दोनों जुलूस निकले- एक दोपहर से पहले, दूसरा दोपहर के बाद।
आज शाम ताजिया के साथ एक और जुलूस निकला। ताशा बज रहा था, नौजवान लाठियाँ खेल रहे थे... अचानक मेरा ध्यान गया- एक तिरंगे पर। तिरंगा! यह तो पहली बार मैं देख रहा था- विशाल धार्मिक झण्डों के साथ-साथ एक "राष्ट्रध्वज" भी।
एक और बात पर ध्यान गया- ईरानियों के जुलूस के साथ तो खैर महिलायें और लड़कियाँ रहती ही थीं; इस बार देखा, ताजिया वाले जुलूस के साथ भी महिलायें और लड़कियाँ घूम रही थीं।
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मुझे लग रहा है, कोई कुछ भी समझे, मुझे अपने ब्लॉग पर इन शुभ लक्षणों वाली बातों का जिक्र कर देना चाहिए, जिन्हें मैंने अपने बरहरवा में दुर्गा-पूजा और मुहर्रम के दौरान नोट किया- इस साल।

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मंगलवार, 4 अगस्त 2015

141. "रोमियो"

जब रोमियो के आये तीन दिन हुए थे. 

       पहले ही स्पष्ट करना जरुरी है कि "रोमियो" हमारे घर में रह रहे बिल्ली के नन्हे बच्चे का नाम है
       दो महीने पहले (5 मई को) यह बच्चा हमारे घर में 'मान न मान, मैं तेरा मेहमान' के रुप में आ गया था। जैसा कि हमारे घर की परम्परा रही है (पहले पिताजी कुत्ता पालने का शौक रखते थे और माँ भुनभुनाती थी फिर मैं कुता रखता था तो श्रीमतीजी भुनभुनाती थी- हालाँकि बाद में देखभाल में उन्हीं लोगों का हाथ ज्यादा होता था।), अंशु ने उसे भगाना चाहा, मगर अभिमन्यु ने उसे रख लिया।
       बिल्ली का वह बच्चा औरों से अलग था- हमेशा लोगों के साथ रहना पसन्द करता था और हमेशा बिस्तर वगैरह पर ही बैठना पसन्द करता था। ऐसा लगता था, मानो पहले से ही पालतू हो; जबकि आम तौर पर इतने छोटे बिल्ली के बच्चे इन्सानों से दूर भागते हैं।
अभिमन्यु की गोद में आराम फरमाते हुए... 
       खैर, वह घर में रहने लगा। जल्दी ही अभिमन्यु का दोस्त बन गया। हमने भी अंशु से कहा- रहने दो, कौन जाने किसी जन्म में कभी यह कोई अपना ही रहा हो! कुछ दिनों बाद तो ऐसा हुआ कि दो-एक घण्टे उसे न देखने पर हमलोग खुद ही उसे खोजने लगते थे- कहाँ गया रोमियो?
       वह खाने का शौकीन बिल्कुल नहीं था। रोटी के कुछ टुकड़े और दो-चार शिप दूध, बस यही उसका खाना था। हाँ, रसोई में बर्तनों की आवाज सुनते ही वह रसोई में आकर चुपचाप बैठ जाता था।
       हमलोग मांसाहार न के बराबर करते हैं। मगर रोमियो के कारण अभिमन्यु सप्ताह में एकबार खुद ही मछली या चिकन लेकर आने लगा- आम तौर पर वह बाजार जाने से कतराता था। अभिमन्यु उसे कभी-कभी नहलाता था- नहाने के बाद रोमियो छत पर बैठा रहता था- सूख जाने तक। हाल में अभिमन्यु की किताबों की आलमारी से दुछत्ती तक एक पुल बना दिया गया था और वह दुछत्ती पर भी कुछ समय बिताने लगा था।
       रोमियो कभी-कभी मच्छरदानी के ऊपर सोता था- झूलते हुए।
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एक रोज इस तरह सोते हुए पाया गया वह... 
  रोमियो अब भी घर में ही है- मगर अब वह उदास रहता है- ढंग से आँखें खोलकर देखता भी नहीं। खाना-पीना बस नाममात्र का रह गया है। बीते वृहस्पतिवार को अभिमन्यु कोलकाता चला गया- आगे की पढ़ाई करने। हमदोनों भी गये थे- हमदोनों तो सोमवार को लौट आये, अभिमन्यु वहीं रहा। शायद पन्द्रह अगस्त पर वह घर आये। तब शायद रोमियो फिर पहले की तरह खुश हो जाये... मगर सिर्फ दो दिनों के लिए ही...

       पता नहीं आगे उसके दिन कैसे गुजरेंगे...  

शरारत करते हुए... 

बाहर बरामदे पर रोमियो. 

खेलने के मूड में. 

और अब कल की तस्वीर- उदास रोमियो.
पुनश्च: 9/8/2015
"रोमियो" चल बसा... 
सुबह अंशु की सिसकियों से मेरी आँखें खुलीं... 
देखा रोमियो के मृत शरीर को गोदी में लेकर वह रो रही है...  

रविवार, 26 जुलाई 2015

140. जिन्दगी


       1984 में मैट्रिक पास करके मैं अगले ही साल (इण्टर की पढ़ाई अधूरी छोड़) एक भारतीय सशस्त्र  सेना में शामिल हो गया था- एक मामूली सैनिक के रुप में। ज्यादा पैसा कमाने, ऊँचा ओहदा पाने की चाह कभी मुझ पर हावी नहीं हो सकी। मैं अपने काम के प्रति ईमानदार रहा, निजी जीवन में मस्त रहा, सिर उठाकर चला, अपनी मर्जी से मैंने जीवन को जीया...
       मेरा एक सहपाठी- जिसकी गिनती तेज विद्यार्थी के रुप में होती थी- रेलवे में क्लर्क बना। उसकी पोस्टिंग मालदा में हुई, जो हमारे बरहरवा से ज्यादा दूर नहीं है। फिर वह देश के फ्लैगशिप बैंक में पी.ओ. बना।
       पिताजी के एक पत्र से मुझे यह खुशखबरी मिली। उन्होंने यह भी लिखा कि मुझे भी कुछ इसी तरह कोशिश करनी चाहिए, जीवन में ऊँचा मुकाम हासिल करने के लिए। मैं उस वक्त आवडी में था। साथियों से पूछा कि यह पी.ओ. क्या बला है, जो मेरे पिताजी भी मुझे इसकी सलाह दे रहे हैं?
       साथियों ने बताया- ज्यादा दिमाग लगाने की जरुरत नहीं है, संक्षेप में यही समझो कि बैंकों में पी.ओ. वह होता है, जो सुबह आठ बजे बैंक में घुसता है और रात आठ बजे दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द करके ताला लगाकर घर लौटता है।
       उन दिनों सेना में हमारा वर्किंग आवर सुबह साढ़े सात बजे से दोपहर डेढ़ बजे तक का हुआ करता था। डेढ़ बजे दफ्तर से आकर हमलोग मेस में खाना खाते थे और खिड़कियों पर पर्दे तान कर सो जाया करते थे। शाम हम स्वतंत्र होते थे- खेलने, फिल्म देखने, बाजार घूमने या किसी भी अन्यान्य गतिविधि के लिए। हफ्ते में दो दिन शाम को पी.टी. होती थी।
        मैंने पिताजी को पत्रोत्तर देते समय यही लिखा कि सबको उसकी ऊँची सैलरी दिखायी देगी, मगर किसी को भी उसका सुबह आठ से रात आठ बजे तक का काम नहीं दिखायी देगा। ...मैं ऐसा जीवन नहीं जी सकता।
       ***
       समय गुजरता रहा। सेना में बीस साल बिताकर मैं घर लौट आया। दो-तीन साल कम्प्यूटर वगैरह लेकर डी.टी.पी. का काम किया। 2008 में उसी बड़े बैंक में बड़ी बहाली हुई और मैं उस संस्था में शामिल हो गया- बतौर मामूली क्लर्क।
(प्रसंगवश, दो बातों का जिक्र कर दूँ- एक, उस संस्था की कमान उस वक्त एक ऐसे नायक के हाथों में थी, जिनके प्रति मेरे मन में गहरा सम्मान है, उन्होंने लड़खड़ाती हुई उस संस्था को फिर से मजबूत बनाया; दो, मैं आभारी हूँ उस सशस्त्र सेना का, जो 20 वर्षों की सैन्य सेवा के बाद अवकाश लेने वाले सैनिकों को "स्नातक" की डिग्री प्रदान करती है, इसी डिग्री की बदौलत मैं नयी नौकरी में शामिल हो सका। (इग्नू से मैंने ग्रेजुएशन किया जरुर, मगर एक तो "जयदीप शेखर" के नाम से, जो मेरा "कलमी" नाम है, और दूसरे वहाँ से मुझे सर्टीफिकेट नहीं मिल पाया- ऐन मौके पर पता बदलने के कारण।)
       ***
       खैर, तब तक मेरा वह पी.ओ. मित्र ऊँचे ओहदे पर पहुँच चुका था। वह काफी मेहनती था, मगर उसे और किसी चीज का कोई खास शौक नहीं था। कभी-कभी वह बरहरवा आता था, उससे बातचीत भी होती थी।
       फिर पता चला कि काम के दवाब के चलते उसका "शुगर लेवल" खरतनाक स्तर तक पहुँच गया है!
       मैं फोन से उससे सम्पर्क नहीं कर पाया- नम्बर बदल गया था, नया नम्बर उसने दिया नहीं। उनके भाई साहब से दो बार उसका हाल-चाल लिया- पता चला, कुछ दिनों तक ठीक रहता है, फिर तबियत बिगड़ जाती है।
       बेशक, काम के दवाब के कारण ही उसकी यह हालत हुई होगी। लगता तो नहीं है कि ज्यादा पैसे कमाने और ज्यादा ऊँचा ओहदा पाने का उसे कोई शौक था। बस वह बगावत करना नहीं जानता था- नाक तक पानी आ जाने पर भी...
       ...पानी वाकई नाक तक पहुँचा और आज यह मनहूस खबर मिली कि वह नहीं रहा... बीती रात वह चल बसा है...
       ***
       किसको जिम्मेदार ठहराऊँ मैं? खुद उसे ही, जो परिवार-समाज से कटकर, स्वास्थ्य-शौक को त्यागकर सिर्फ काम करता था? या उस संस्था को, जो "per employee" ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए अपने कर्मियों की जान तक की परवाह नहीं करती?
       किसने छीना मेरे एक दोस्त को? आज की जीवन-शैली ने, जिसमें आदमी कुत्ते की तरह जीभ निकाले बस दौड़ता रहता है? आज के संस्कारों को, जिसमें आदमी वक्त और जरुरत पड़ने पर भी बगावत नहीं करता?
       कहाँ हैं वे युनियन वाले, जो पहली मई को सन्देश भेजते हैं: On the May day, let us all pledge to fight against exploitation of intellectual and physical labour!, मगर इस दिशा में करते कुछ नहीं
       ***
       मैं तो मामूली क्लर्क हूँ, मगर मुझसे भी एकबार उम्मीद की गयी थी कि मैं देर रात तक काम करूँ। मैंने मना करके इस्तीफा सौंप दिया। कहा गया, इस्तीफा मंजूर होने में दो-तीन महीने लगते हैं। मैं तीन महीने दफ्तर गया ही नहीं था! यह और बात है कि इस्तीफा मंजूर नहीं हुआ और इसके बदले मेरा स्थानान्तरण ही मेरे गृहनगर में कर दिया गया।
       यहाँ भी मुझसे उम्मीद की गयी कि मैं देर शाम तक दफ्तर में काम करूँ। मेरा जवाब था- मैं काम के प्रति ईमानदार हूँ, काम के बाद मैं परिवार, समाज, स्वास्थ्य, शौक के लिए समय बिताना पसन्द करता हूँ। काम और परिस्थिति को देखते हुए मैं अपनी मर्जी से भले कुछ ज्यादा समय तक रुक जाऊँ, मगर नियमित रुप से देर शाम/रात तक दफ्तर में बैठना मुझसे नहीं हो पायेगा! मैंने अपनी बात लिखकर भी दे दी है...
       एक और बात मौखिक रुप से मैंने बतायी- इस संस्था ने मेरे "पुनर्वास" के लिए मुझे नौकरी पर रखा है- क्योंकि मैंने अपनी युवावस्था के बेशकीमती बीस साल देश की सेना को दिये हैं... जिस दिन संस्था को लगे कि मैं अपने हिस्से का काम नहीं कर रहा हूँ, या जिस दिन इस संस्था को यह पुनर्वास बोझ लगने लगे, उस दिन वह बेशक मुझे निकाल बाहर कर सकती है!
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       जिन्दगी को जीने के मेरे अपने कुछ उसूल हैं... किसी को पसन्द आये, तो ठीक, न आये तो ठीक... मगर मैं जीभ निकाल कर हाँफते हुए जिन्दगी बिताने के लिए तैयार नहीं हूँ... न ही मधुमेह, रक्तचाप, तनाव का मरीज बनकर दवाईयों पर जीने के लिए!
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रविवार, 19 जुलाई 2015

139. हास्य


       जो लोग जीवन में हास्य को महत्व देते हैं, उन्हें अफसोस होता होगा कि टीवी पर अब स्तरीय हास्य धारावाहिक नहीं आते। एक समय "ये जो है जिन्दगी" काफी पसन्द की जाती थी। फिर "देख भाई देख" और "मिसेज माधुरी दीक्षित" को पसन्द किया गया। सोनी टीवी जब शुरु हुआ, तो "बीविच्ड", "हू इज द बॉस", "डिफरेण्ट स्ट्रोक्स" और "सिल्वर स्पून" (इसका नाम शायद कुछ और था) जैसे उम्दा हास्य धारावाहिकों को हिन्दी में प्रस्तुत करने का सराहनीय काम किया था उसने।  
उसके बाद जिसे "स्तरीय" हास्य कहते हैं, उसकी कमी आ गयी। हाल के दिनों में "कॉमेडी सर्कस" ने काफी भरपाई की थी। कभी शेखर सुमन ने "मूवर्स एण्ड शेकर्स" में लोगों को हँसाया था, आज कपिल शर्मा इस काम में सफल हैं।
अपना तो टीवी देखना दो-चार-दस मिनट समाचार (कभी-कभी कार्टून) देखने तक सिमट गया है। धारावाहिक ज्यादातर स्तरहीन ही नजर आते हैं। हास्य के नाम पर जो भी आता है, उसमें "स्तर" नजर नहीं आता।
(अभी तो सबसे बड़ी बात यह है कि हम सन्थाल-परगना के वासी हैं, जहाँ दिन में दो-एक घण्टे की विद्युत-आपूर्ती को पर्याप्त माना जाता है- तो यहाँ टीवी देखेंगे भी कितना? अब सुनने में आ रहा है कि सन्थाल-परगना में "भी" बिजली की आपूर्ती सामान्य होने वाली है!)
       ऐसे में, बीते मई में- जब हमलोग चुँचुड़ा में थे, अपनी चचेरी बहन के घर- तब श्रीमतीजी को "&TV" पर आने वाले एक हास्य धाराविक "भाभीजी घर पर हैं" का पता चला। यह धारावाहिक आता तो रोज है, मगर जैसा कि मैंने कहा- बिजली न रहने के कारण हम देख नहीं पाते थे। बाद में पाया गया- रविवार के दिन हफ्तेभर की कड़ियों को एकसाथ दिखाया जाता है। कई रविवारों को हमने देखा... और मेरी यह शिकायत दूर हो गयी कि टीवी पर अब स्तरीय हास्य धारावाहिक नहीं बनते!
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       हास्य की बात चली है, तो यह बता दूँ कि हास्य फिल्में मुझे बहुत पसन्द है। हालाँकि अपनी युवावस्था में पता नहीं क्यों, मैं गम्भीर, समानान्तर और सार्थक फिल्मों को पसन्द करने लगा था। "गाईड", "प्यासा", "दो बीघा जमीन", "दो आँखें बारह हाथ", "पथेर पाँचाली"- जैसी फिल्में मुझे बहुत पसन्द आने लगी थीं।
       अब गम्भीर फिल्में देखने का मन नहीं करता। या तो "हैरी पॉटर"-जैसी फन्तासी फिल्म हो, या "इवोल्यूशन", "जुरासिक पार्क" और "गॉडजिला"-जैसी साई-फाई, या फिर "गोल माल", "हेरा फेरी"-जैसी हास्य फिल्में- यही पसन्द है। बचपन में "पड़ोसन" मेरी पसन्दीदा हास्य फिल्म थी, आज- यानि अब तक, "हंगामा" मेरी पसन्दीदा हास्य फिल्म है।
       आम तौर पर हमलोग ज्यादातर समय गम्भीर रहते हैं, या फिर तनाव में। ऐसे में, ये हास्य धारावाहिक और हास्य फिल्में ही हैं, जो मन-मस्तिष्क-स्नायुओं को आराम पहुँचाती है। शायद हँसने से चेहरे पर रक्त का प्रवाह भी बढ़ जाता है- यह भी जरुरी है।
       वैसे, लजाने-शर्माने से भी चेहरे पर रक्त का प्रवाह बढ़ता है। पहले के बच्चे- खासकर लड़कियाँ- लजाती-शर्माती ज्यादा थीं- इस कारण उनके चेहरे को रक्त का पोषण भरपूर मिलता था और उनके चेहरे की स्वाभाविक या प्राकृतिक चमक बरकरार रहती थी। अब ऐसा नहीं है- खासकर, नगरीय इलाकों में तो बिलकुल नहीं है!
       खैर, ये मेरे अपने विचार हैं।

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138. एक स्थानीय रथयात्रा


       रथयात्रा मुख्यरुप से पुरी में ही होती है, मगर अन्यान्य शहरों-कस्बों में भी स्थानीय रथयात्रायें आयोजित की जाती हैं। पुरी मैं गया जरुर हूँ, मगर रथयात्रा के अवसर पर नहीं- जब हम वहाँ गये, रथों का निर्माण कार्य चल रहा था।
बरहरवा का एक पड़ोसी शहर है- पाकुड़। वहाँ की रथयात्रा के बारे में बचपन से सुनता आया हूँ, मगर आज तक कभी वहाँ की रथयात्रा में गया नहीं।
कल संयोग से एक रथयात्रा देखने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। यह शहर था- नलहाटी, बंगाल का एक शहर। हमलोग (दो परिवार) तारापीठ से माँ तारा की पूजा करके लौट रहे थे। बता दूँ कि तारापीठ रामपुरहाट से कोई दस किलोमीटर दूर एक शक्तिपीठ है- पौराणिक कथाओं के अनुसार शिव के ताण्डव नृत्य के समय सती के आँख का मणि (तारा) यहाँ गिरा था। शनिवार को यहाँ काफी भीड़ होती है। ऊपर से, इस शनिवार को रथयात्रा/ईद की छुट्टी थी, सो भीड़ कुछ ज्यादा ही थी। बँगला कैलेण्डर के श्रावण मास की भी शुरुआत हो चुकी है। अत्यधिक भीड़ के कारण मन्दिर के सामने बने चबूतरे से ही पण्डे के माध्यम से हमने पूजा-अर्चना की। दोपहर में रामपुरहाट से हमलोग वापस रवाना हुए।
पन्द्रह मिनट की रेलयात्रा के बाद हमलोग नलहाटी उतर गये। वहाँ एक परिवार में हम मेहमान बनकर रुके। सवा चार बजे करीब सड़क से वहाँ की रथयात्रा गुजरी। हमलोगों के लिए यह पहला अवसर था जब हम कोई रथयात्रा देख रहे थे। सैकड़ों लोग अलग-अलग दल में "हरे राम-हरे कृष्णा" गाते हुए और नाचते हुए चल रहे थे। भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा लकड़ी के एक रथ पर सवार थी। रथ को रस्सी से खींचा जा रहा था।
सैकड़ों लोगों की इस भीड़ में हर उम्र की, हर वर्ग की स्त्रियाँ और पुरुष मौजूद थे। सभी "हरे रामा-हरे कृष्णा" की धुन पर भाव-विभोर हो रहे थे। पहली बार मैंने देखा कि इन चार शब्दों- हरे रामा हरे कृष्णा- को कितनी धुनों में गाया जा सकता है और इन धुनों पर कितनी शैलियों में नृत्य किया जा सकता है! किसी दल का मुख्य वाद्य परम्परागत मृदंग था, तो किसी दल के पास "ताशा" था, किसी के पास "नाल" था, तो किसी दल के पास था- "कांगो"। सबकी धुन अलग-अलग और उन धुनों पर नृत्य करने वालों की शैलियाँ भी अलग-अलग! कुछ किशोरियों-युवतियों का सामूहिक नृत्य तो देखने लायक था!  
रथयात्रा के साथ ही साथ प्रसाद वितरण भी चल रहा था। घरों से निकलकर महिलायें पूजा कर रहीं थीं, तो पुरुष एक बार रथ की रस्सियों को हाथ लगाकर ही स्वयं को भाग्यशाली महसूस कर रहे थे। पता चला, आज शाम सभी घरों में "जलेबियाँ" जरुर खायी जायेंगी। हम जिस घर में मेहमान थे, उनकी मिठाईयों की भारी-भरकम दुकान है। प्राय: दर्जन भर किस्म की मिठाईयाँ हम पहले ही छक चुके थे। रथयात्रा के बाद जलेबी- वास्तव में "इमरती"- भी हमने खायी। पता चला, आज रात ग्यारह बजे तक दुकान में जलेबियों के लिए लाईन लगी रहेगी!
खैर, वहाँ से एक और परिचित के घर हम गये। संयोग से, हमारी (अगली) ट्रेन थोड़ी लेट थी, सो वहाँ भी कुछ समय हम बिता पाये।
लौटते समय पता चला, हमारे पहले वाले मेजबान के घर में हमारे लिए "दालपूरी" और खीर को पैक कर दिया गया है- रात के खाने के लिए। पता चला, रथयात्रा की रात दालपूरी और खीर बनाने-खाने का रिवाज भी है!  
रात सवा नौ बजते-बजते हम बरहरवा स्टेशन पर थे।

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शनिवार, 11 जुलाई 2015

137. आषाढ़


       बीते चैत-बैशाख में जब रह-रह कर वर्षा हो रही थी, तब मन में सन्देह हो रहा था कि कहीं सावन सूखा तो नहीं बीतेगा? सन्देह इसलिए पैदा हो रहा था कि कहीं मैंने महाकवि घाघ की एक पंक्ति पढ़ी कि चैत में बरसने वाली वर्षा की एक-एक बूँद सावन की हजार बूँदों को हर लेती है!
       ...मगर लाख-लाख शुक्र है इन्द्रदेव का कि वर्षा ऋतु शुरु होते ही वर्षा शुरु हो गयी और पहले आषाढ़ के बाद अब दूसरे आषाढ में भी वर्षा होती जा रही है। वह भी अच्छी-खासी वर्षा।
       यह 'दूसरा' आषाढ़ है- यानि तकनीकी रुप से इसे सावन होना चाहिए। हमारे भारतीय महीने चाँद पर आधारित होते हैं- हर पूर्णिमा के बाद नया महीना शुरु होता है। हर चौथे साल एक अतिरिक्त महीना जोड़कर इस "चन्द्र" कैलेण्डर को "सौर" कैलेण्डर के साथ समायोजित किया जाता है।
       ***
       इस साल मलमास के रुप में आषाढ़ महीना जुड़ा है। इस "अतिरिक्त आषाढ़" महीने के प्रति मेरे मन में भक्ति 2007 में पैदा हुई। हमलोग उस साल पुरी घूमने गये हुए थे। जो पण्डा हमारे गाईड थे, वे इतने विस्तार से और इतने सुन्दर ढंग से भगवान जगन्नाथ जी की कहानियाँ बता रहे थे कि वास्तव में हमलोग भाव-विभोर हो गये थे। उन्हीं की कहानियों से पता चला कि जिस साल "जोड़ा आषाढ़" आता है, उस साल भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की नयी प्रतिमायें गढ़ी जाती हैं। शायद बारह साल में एक बार ऐसा होता है और यह वही साल है। यह एक विशेष आयोजन होता है। एक बन्द कमरे में देवदार की लकड़ी से प्रतिमायें गढ़ी जाती हैं और बाहर ढोल-नगाड़े बजते रहते हैं। कुछ घण्टों की बात होती है- उस दौरान जैसी प्रतिमायें बन गयीं, तो बन गयीं- उन्हें ही स्थापित किया जाता है। पण्डे ने बताया कि जो पण्डा इन प्रतिमाओं में प्राण-प्रतिष्ठा करता है, उसकी सालभर के अन्दर मृत्यु निश्चित होती है!
       ***
       आषाढ़ पर रवीन्द्र नाथ ठाकुर की एक कहानी भी है- शायद 'आषाढ़ की एक रात'। कहानी पढ़ी तो है, पर कुछ याद नहीं- हाँ, आषाढ़ में होने वाली भारी वर्षा का वर्णन पृष्ठभूमि में है।
       बात निकलती है, तो दूर तलक जाती है। 1986 में बेलगाँव (कर्नाटक) में एक जंगली इलाके में हमारी जंगल-ट्रेनिंग चल रही थी- सात दिनों की। एक रात "कैम्प फायर" में गाने का कार्यक्रम चल रहा था। मधु (पूरा नाम याद नहीं) ने एक मलयाली गाना गाया था, जिसमें "आषाढ़ मासाना" का जिक्र आ रहा था। भले हमलोग मलयाली नहीं समझ रहे थे, मगर गाने की धुन प्यारी थी और मधु की आवाज भी एस.पी.बी. की याद दिला रही थी।
       ***
       हमारे घर के पिछवाड़े में थोड़ी-सी परती जगह है, वह जगह वर्षाकाल में घने जंगल में तब्दील हो जाती है- उसी का चित्र मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूँ कि मेरे आस-पास इतनी हरियाली है... वर्ना बहुत-से स्थान ऐसे भी होंगे, जहाँ हरी दूब का एक चप्पा भी नजर नहीं आता होगा!


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       यह सही है कि वर्षा ऋतु बहुतों के लिए कष्ट लेकर आती है- खासकर गरीब-मजदूरों के लिए। मगर किसानों के लिए यह वरदान है- बरसात के पानी के भरोसे ही हमारे यहाँ धान की खेती होती है और चावल हमारे देश का मुख्य अनाज है। यह और बात है कि पंजाब के किसान चावल को "व्यवसायिक" फसल के रुप में उपजाते हैं- सिर्फ बेचने के लिए, खाने के लिए नहीं; और इसके लिए वे मौनसून का इन्तजार नहीं करते। गेहूँ की फसल काटने के बाद डीप बोरिंग की सहायता से जमीन के नीचे का पानी निकाल कर खेतों में भर देते हैं और धान की खेती शुरु कर देते हैं। मेरा मानना है कि आगे चलकर यह खेती भारी नुकसान पहुँचायेगी।
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       रही बात हम-जैसे कलाकार-मन वालों की, तो उमड़ते-घुमड़ते बादल, ठण्डी हवाओं, वर्षा की बूँदों से हमारे मन का मोर नाच ही उठता है... यह जानते हुए भी कि इस वर्षा से बहुतों का जीवन दूभर हो रहा है...
       ..आखिर क्या किया जाय........? 

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