बीते चैत-बैशाख में जब रह-रह कर वर्षा हो
रही थी, तब मन में सन्देह हो रहा था कि कहीं सावन सूखा तो नहीं बीतेगा? सन्देह
इसलिए पैदा हो रहा था कि कहीं मैंने महाकवि घाघ की एक पंक्ति पढ़ी कि चैत में बरसने
वाली वर्षा की एक-एक बूँद सावन की हजार बूँदों को हर लेती है!
...मगर लाख-लाख शुक्र है इन्द्रदेव का कि
वर्षा ऋतु शुरु होते ही वर्षा शुरु हो गयी और पहले आषाढ़ के बाद अब दूसरे आषाढ में
भी वर्षा होती जा रही है। वह भी अच्छी-खासी वर्षा।
यह 'दूसरा' आषाढ़ है-
यानि तकनीकी रुप से इसे सावन होना चाहिए। हमारे भारतीय महीने चाँद पर आधारित होते
हैं- हर पूर्णिमा के बाद नया महीना शुरु होता है। हर चौथे साल एक अतिरिक्त महीना
जोड़कर इस "चन्द्र" कैलेण्डर को "सौर" कैलेण्डर के साथ
समायोजित किया जाता है।
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इस साल मलमास के रुप
में आषाढ़ महीना जुड़ा है। इस "अतिरिक्त आषाढ़" महीने के प्रति मेरे मन में
भक्ति 2007 में पैदा हुई। हमलोग उस साल पुरी घूमने गये हुए थे। जो पण्डा हमारे
गाईड थे, वे इतने विस्तार से और इतने सुन्दर ढंग से भगवान जगन्नाथ जी की कहानियाँ
बता रहे थे कि वास्तव में हमलोग भाव-विभोर हो गये थे। उन्हीं की कहानियों से पता
चला कि जिस साल "जोड़ा आषाढ़" आता है, उस साल भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और
सुभद्रा की नयी प्रतिमायें गढ़ी जाती हैं। शायद बारह साल में एक बार ऐसा होता है और
यह वही साल है। यह एक विशेष आयोजन होता है। एक बन्द कमरे में देवदार की लकड़ी से
प्रतिमायें गढ़ी जाती हैं और बाहर ढोल-नगाड़े बजते रहते हैं। कुछ घण्टों की बात होती
है- उस दौरान जैसी प्रतिमायें बन गयीं, तो बन गयीं- उन्हें ही स्थापित किया जाता
है। पण्डे ने बताया कि जो पण्डा इन प्रतिमाओं में प्राण-प्रतिष्ठा करता है, उसकी
सालभर के अन्दर मृत्यु निश्चित होती है!
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आषाढ़ पर रवीन्द्र नाथ
ठाकुर की एक कहानी भी है- शायद 'आषाढ़ की एक रात'। कहानी पढ़ी तो है, पर कुछ याद
नहीं- हाँ, आषाढ़ में होने वाली भारी वर्षा का वर्णन पृष्ठभूमि में है।
बात निकलती है, तो
दूर तलक जाती है। 1986 में बेलगाँव (कर्नाटक) में एक जंगली इलाके में हमारी
जंगल-ट्रेनिंग चल रही थी- सात दिनों की। एक रात "कैम्प फायर" में गाने
का कार्यक्रम चल रहा था। मधु (पूरा नाम याद नहीं) ने एक मलयाली गाना गाया था,
जिसमें "आषाढ़ मासाना" का जिक्र आ रहा था। भले हमलोग मलयाली नहीं समझ रहे
थे, मगर गाने की धुन प्यारी थी और मधु की आवाज भी एस.पी.बी. की याद दिला रही थी।
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हमारे घर के पिछवाड़े में थोड़ी-सी परती जगह है, वह जगह वर्षाकाल
में घने जंगल में तब्दील हो जाती है- उसी का चित्र मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूँ कि मेरे आस-पास इतनी हरियाली है... वर्ना बहुत-से
स्थान ऐसे भी होंगे, जहाँ हरी दूब का एक चप्पा भी नजर नहीं आता होगा!
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यह सही है कि वर्षा
ऋतु बहुतों के लिए कष्ट लेकर आती है- खासकर गरीब-मजदूरों के लिए। मगर किसानों के
लिए यह वरदान है- बरसात के पानी के भरोसे ही हमारे यहाँ धान की खेती होती है और
चावल हमारे देश का मुख्य अनाज है। यह और बात है कि पंजाब के किसान चावल को
"व्यवसायिक" फसल के रुप में उपजाते हैं- सिर्फ बेचने के लिए, खाने के
लिए नहीं; और इसके लिए वे मौनसून का इन्तजार नहीं करते। गेहूँ की फसल काटने के बाद
डीप बोरिंग की सहायता से जमीन के नीचे का पानी निकाल कर खेतों में भर देते हैं और
धान की खेती शुरु कर देते हैं। मेरा मानना है कि आगे चलकर यह खेती भारी नुकसान
पहुँचायेगी।
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रही बात हम-जैसे
कलाकार-मन वालों की, तो उमड़ते-घुमड़ते बादल, ठण्डी हवाओं, वर्षा की बूँदों से हमारे
मन का मोर नाच ही उठता है... यह जानते हुए भी कि इस वर्षा से बहुतों का जीवन दूभर
हो रहा है...
..आखिर क्या किया
जाय........?
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